वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 135
From जैनकोष
असियसय किरियवाई अक्किरियाणं च होइ चुलसीदी ꠰
सत्तट᳭ठी अण्णाणी वेणैया होंति बत्तीसा ꠰꠰135꠰꠰
(531) क्रियावादियों के भेद―आत्मा के सहज सत्य स्वरूप को जाने बिना यह मनुष्य किस-किस तरह के मिथ्यादर्शन में बढ़-बढ़कर कैसे-कैसे सिद्धांतों की रचना करता है, इसका संकेत इस गाथा में किया है ꠰ कुछ लोग होते हैं क्रिया वाले, याने क्रिया से मोक्ष मानने वाले ꠰ क्रिया से तिर जायेंगे और वह क्रिया श्राद्धादिक है ꠰ जब तक जिंदा हैं तब तक गोदान करना, पृथ्वीदान करना, वस्त्रादिक दान करना, इन क्रियाओं को करके मानते कि इनसे मोक्ष मिल जायेगा ꠰ कोई मर गया तो उसके लिए कुछ श्राद्ध करे, उसके नाम पर कुछ त्याग करे ꠰ किसे दे ? पंडा को दे ꠰ जैसे देखा होगा कि बड़ी-बड़ी नदियों के किनारे कुछ पंडा लोग बैठते हैं जहां कि श्राद्ध करने वाले पहुंचते हैं तो वहां श्राद्ध कैसा होता कि पंडों को जो भी चीज चाहिए जैसे खाट, वस्त्र, गाय, रुपया, पैसा आदिक वे सब चीजें उन पंडों को देता श्राद्ध करने वाला, ऐसा श्राद्ध कहलाता है और इन क्रियाओं को करके जो मोक्ष माने वे कहलाते हैं क्रियावादी ꠰ क्रिया का एकांत, ज्ञान का भाव का कोई संबंध नहीं, क्रिया से ही वे मोक्ष मानने की मान्यता होने पर भावों में कोई फर्क नहीं आता ꠰ भाव हो सही सम्यक्त्व के और फिर जैसे मेरा आत्मा में रमण हो उस प्रकार की क्रिया करे तो वह एक बाह्य साधन है ꠰ पर यहां तो मोक्षमार्ग की क्रिया की बात नहीं कह रहे ꠰ श्राद्धादिक अटपट क्रियाओं की बात कही जा रही है ꠰ क्रियायें करें, मगर जानें यह कि इन क्रियाओं से मोक्ष नहीं मिलता, ज्ञान से मोक्ष मिलता है ꠰ फिर क्रियायें करनी क्यों पड़ती हैं ? यों कि यह ज्ञान अपना स्थिर नहीं रहता, भागता है अनेक जगह पापों में तो उसकी रोकथाम के लिए हमारी यह क्रियायें हैं, इन शुभ चेष्टाओं में अगर हमारा चित्त लगा रहेगा तो अटपट भाव तो न बनेंगे ꠰ जैसे मंदिर में आते तो यद्यपि मंदिर में आने मात्र से मोक्ष नहीं मिलता, मोक्ष मिलता है ज्ञान से, मगर वह ज्ञान की साधना हमको मंदिर में बैठकर मिलती है, घर के बाहर की अटपट बातें यहाँ नहीं कर पाते हैं इसलिए मंदिर आना कर्तव्य है, पर मंदिर में बैठने से ही मोक्ष मिलता है इतना ही जानकर कोई आलस्य करे, संतुष्ट हो, बस हमने तो सब कुछ कर लिया तो यों मोक्ष नहीं मिलेगा ꠰ मोक्ष मिलता है ज्ञान से और ज्ञान की साधना होती मंदिर में व अन्यत्र सामायिक से, ध्यान से, भक्ति से, स्वाध्याय से, सत्संग से ꠰ तो जो क्रियाओं का एकांत करता है, अपने ज्ञानस्वरूप को भूला है वह पुरुष क्रियावादी कहलाता है ꠰ इन क्रियावादियों के 180 भेद हैं ꠰
(532) अक्रियावादियों के भेद―कोई किस ही ढंग से मोक्ष माने कोई किस ही ढंग से, आचरण पौरुष कुछ न माने वे अक्रियावादी कहलाते हैं ꠰ जिनकी क्रिया शुद्ध नहीं और कहते कि क्रियाओं से क्या लाभ ? जैसा चाहो खाओ, पियो, रहो और जैसा संन्यास में बताया वैसी प्रवृत्ति करो तो मोक्ष मिलेगा ऐसा कहने वाले कहलाते हैं अक्रियावादी ꠰ जैसे जैन श्वेतांबर संप्रदाय में उद्दिष्ट भोजन के त्यागों को हुत महत्त्व देते हैं और इतना महत्त्व देते कि कहीं से भी खा लो, सभी लोग बनाते हैं, हलवाई की दुकान हो, किसी धोबी आदिक का घर हो, कहीं से भी भोजन ले लो हमारे लिए तो कुछ बात नहीं ꠰ मगर वे यह नहीं देखते कि वह भोजन हिंसायुक्त भोजन है, अमर्यादित भोजन है ꠰ सो ऐसा जो अध:कर्म नाम का मूल दोष है उस दोष को तो कुछ नहीं गिनते और एक जैसा चल गया रिवाज उसे महत्त्व देते, ये सब अक्रियावादी की ही बातें होती हैं, यहाँ क्रिया का भी महत्त्व थोड़ा देना चाहिए, क्योंकि अशुद्धता से बना हुआ भोजन खाने पर बड़ा दोष आता है ꠰ तो ऐसे अनेक पुरुष होते हैं जो अक्रियावाद में विश्वास रखते हैं ꠰ उनके मत हैं 84 ꠰
(533) अज्ञानवादी और वैनयिक के भेद―कुछ लोग हैं ऐसे जो अज्ञान से मोक्ष मानते हैं ꠰ वे कहते हैं कि ज्ञान से क्या लाभ ? जो जानता है उसे अधिक पाप है, जो नहीं जानता उसे क्या पाप ? इसलिए कुछ जानना ही न चाहिए, अज्ञानी बने रहना चाहिए ꠰ उससे कल्याण हो जायेगा, भला हो जायेगा, ऐसा सिद्धांत है अज्ञानवादियों का और ऐसे ही अज्ञान से मोक्ष होना मानते हैं, ये अज्ञानवादी 67 प्रकार के होते हैं ꠰ वैनयिक मिथ्यादृष्टि―जिनका इतना ही सिद्धांत है कि माता पिता की आज्ञा में रहो तो मोक्ष मिल जायेगा या जो विनय-विनय से ही काम चल जायेगा, ज्ञान की आवश्यकता नहीं, ज्ञानमार्ग पर चलने की आवश्यकता नहीं, विनय करें, उस विनय से ही मोक्ष मिलेगा, ऐसे वैनयिकवादी 32 प्रकार के हैं ꠰ ये 363 भेद मिथ्यादृष्टि के हैं इनसे दूर होकर अपने आत्मा के अंत:स्वरूप में आपा अनुभव करते हुए तृप्त रहना चाहिए ꠰