वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 139
From जैनकोष
इय मिच्छत्तावासे कुणयकुसत्थेहिं मोहिओ जीवो ꠰
भमिओ अणाइकालं संसारे धीर चिंतेहि ꠰꠰139꠰꠰
(540) कुनय कुशास्त्रों से मोहित जीव का अनंत संसारभ्रमण―गृहीत मिथ्यात्व और अगृहीत मिथ्यात्व दोनों तरह के मिथ्यात्व के स्थानभूत इस संसार में कुनय और कुशास्त्र से मोहित होकर यह जीव अनादिकाल से भ्रमण कर रहा ꠰ सो हे धीर ! इसका विचार कर ꠰ यह काल यहाँ पर उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के रूप में घूमता ही रहता है ꠰ इस समय यह अवसर्पिणी काल चल रहा है, मायने घटता समय, यह पंचम काल है, इसके बाद छठा काल आयेगा ꠰ छठे काल के अंत में प्रलय मचेगा सो जो जीव बचे रहेंगे उनसे फिर सृष्टि चलेगी ꠰ फिर छठा काल आयेगा, फिर 5वां फिर चौथा, प्रत्येक चौथे काल में तीर्थंकर हुआ करते हैं, फिर तीसरा, दूसरा, पहला इनमें भोगभूमि चलती है, फिर घटती होगी, फिर बढ़ती होगी, ऐसे कालों में यह जीव अनंतकाल तक भ्रमण करता रहा ꠰ सो हे धीर वीर ! तू विचार कर कि मुझे मिथ्यात्व में ही पगना है या संसार के संकटों से छूटना है ꠰ गृहीत मिथ्यात्व तो कहलाया कुदेव, कुशास्त्र, कुगुरु, कुधर्म इनकी सेवा करना और अगृहीत मिथ्यात्व कहलाया देह में आपाबुद्धि करना कि यह देह मैं हूं, कषाय ही तो मैं हूं, उनमें एकत्व बुद्धि करना, यह अगृहीत मिथ्यात्व है ꠰ तो दोनों मिथ्यात्व के वश होकर इस जीव ने अनंतकाल तक संसार में भ्रमण किया ꠰ अ भवभ्रमण मत कर, ऐसी इसमें शिक्षा दी गई है ꠰