वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 142
From जैनकोष
जह तारयाण चंदो मयराओ मयउलाण सव्वाणं ꠰
अहिओ तह सममत्तो रिसिसावयदुविहधम्माणं ꠰꠰142꠰꠰
(545) मुनिधर्म व श्रावकधर्म दोनों में सम्यक्त्व की महनीयता―जैसे समस्त ताराओं में चंद्रमा मुख्य है ऐसे ही सब धर्मों में सम्यक्त्व प्रधान है ꠰ सम्यक्त्व तो मूल है और चारित्र उसके ऊपर की शाखायें जैसी हैं ꠰ जैसे जड़ के बिना वृक्ष नहीं ठहर सकता ऐसे ही सम्यक्त्व के बिना चारित्र नहीं ठहर सकता ꠰ सम्यक्त्व में तो मार्ग दिख गया और चारित्र में वह उस मार्ग पर चल रहा ꠰ इसलिए सम्यक्त्व उपादेय है और सम्यक्त्व के बाद ज तक चारित्र धारण न करे तब तक मुक्ति नहीं प्राप्त होती ꠰ अतएव चारित्र अत्यंत उपादेय है ꠰ तो जैसे समस्त ताराओं में चंद्रमा प्रधान है ऐसे ही सम्यग्दर्शन प्रधान है ꠰ जैसे वन के पशुओं में सिंह प्रधान है ऐसे ही मुनिधर्म श्रावक धर्म इन दोनों धर्मों में सम्यक्त्व प्रधान है ꠰ सम्यग्दृष्टि मुनि मोक्ष का पात्र है, सम्यग्दृष्टि श्रावक भी मोक्षमार्ग में चल रहा है, इस कारण सम्यक्त्व को सर्व प्रथम प्राप्त करना चाहिए ꠰