वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 158
From जैनकोष
गुणगणमणिमालाए जिणमययणे णिसायरमुणिंदो ।
तारावलिपरियरिओ पुण्णिमइंदुव्व पवणपहे ।।158।।
(582) गुणपूरित मुनिवर की शोभायमानता―जिस मुनि का ध्यान ऐसे निज सहज चैतन्यस्वरूप में लगा है, इस रूप ही अपने को अनुभव करता हुआ आनंद पा रहा, उसकी ऐसी शोभा है कि जैसे गगन में चंद्र की शोभा हो । ऐसे ही इस गगन में हम आपकी इस उपासना में ऐसे मुनिराज मिले, उनका दर्शन प्राप्त हो तो वे कैसा जन-जन के हृदय में शोभित होते हैं । मुनि का खास वैभव है अपने सहजज्ञानस्वरूप की आराधना में रहना । प्रत्येक वस्तु की किसी खासियत के कारण कदर है । तो मुनि की कीर्ति और मुनि का महत्त्व आत्मस्वभाव की आराधना में है । सो जैसे आकाश में तारों की पंक्ति से सहित पूर्णचंद्रमा शोभायमान होता है ऐसे ही जैन सिद्धांत के आकाश में गुण समूहरूप मणियों की माला से युक्त यह मुनिरूपी चंद्रमा शोभित होता है । जैन शासन का परिणाम क्या है? किस बात के लक्ष्य में जैन शासन का उपदेश सफल होता है, वह है अविकार ज्ञानस्वभाव की श्रद्धा । विकार मेरे स्वरूप में नहीं । मेरे स्वरूप में केवल शुद्ध ज्ञानस्वभाव है । जो मैं सत् हूँ तो अपने ही सत्त्व के कारण ज्ञानमात्र हूँ । जानन, इतनी ही मेरे में तरंग चलती है, मुझमें अन्य दोष नहीं हैं । अन्य दोष विकार ये उपाधि का सान्निध्य पाकर हुए है । उपाधि का सान्निध्य पाकर हुए फिर भी उपाधि की परिणति से नहीं हुए । देखना यहाँ बात दोनों हैं, उसमें किसको कमजोर बताया जाये? एकांतवाद का निर्णय न ठीक बनेगा ।
(583) आत्मा में विकार आने का विधान―आत्मा में विकार आत्मा की परिणति से चल रहा है । यह एक द्रव्य को देखकर समझ में आ रहा, इसे कहते हैं निश्चयनय । जैसे सामने एक दर्पण है और पीछे मानो दो चार लड़के खेल रहे हैं तो वह सारा खेल उस दर्पण में दिख रहा फोटो रूप में आकर । तो वह खेल जो दर्पण में झलक रहा वह दर्पण के प्रदेशो में झलक रहा, उस दर्पण की उस-उस परिणति से झलक रहा । यह केवल एक दर्पण को देखकर हम कह रहे हैं । यह झलक, यह परिणमन बच्चों की परिणति से नही हो रहा । यह एक द्रव्य को देखकर जाना । यह कहलायी निश्चय की दृष्टि । पर साथ में यदि यह निर्णय नहीं है कि यह उन 4-5 बच्चों की उपस्थिति के सान्निध्य में खेल बन रहा तो पहले सोची हुई बात गलत हो जाती है । यदि इतना प्रत्यय रखें चित्त में कि उस उपाधि के सान्निध्य में इस दर्पण में यह प्रतिबिंब चल रहा है, चल रहा है दर्पण की परिणति से और बच्चों में चल रहा है बच्चों की परिणति से । दोनों जगह दोनों की परिणति से चल रहा, पर कोई श्रद्धा रखे यह कि दर्पण का काम है दर्पण में अपने समय में अपनी योग्यता से यहाँ आ गया, इसमें कोई एकांत करे, जिसमें यह बात मिटा दी जावे कि उन चार लड़कों के सामने होने पर यह दर्पण में चित्र आया है, यह बात मिट जाने पर पहली बात एकांत में मिथ्या हो जाती है । और, यह दर्पण की परिणति से यह चित्र चल रहा है, इसको न मानकर और यह माना जाये कि वे 4 लड़के इस दर्पण की फोटो बना रहे हैं तो उसने दर्पण की शक्ति नहीं समझी । तो उनकी बात गलत हो जाती है । इस स्याद्वाद शासन में द्रव्यदृष्टि की बात मना करने पर पर्याय की कोई बात कहें तो गलत हो जाती है । पर्यायदृष्टि की बात मना करने पर द्रव्यदृष्टि की कोई बात कहें तो गलत हो जाती है । क्योंकि पदार्थ ध्रुव है और उत्पादव्ययमय है । इस कारण वस्तु का पूरा स्वरूप सर्व दृष्टियों से ज्ञात होता है । तो इसी तरह आत्मा में रागद्वेष बनना, यह एक ज्ञान की कोई परिणति है । ज्ञान में ऐसा जानें कि यह बड़ा अच्छा है, मेरा मित्र है, मेरा सब कुछ है, इस तरह की ज्ञान में जो कल्पना की धारा चल रही है वही तो राग है । तो रागद्वेष जीव की परिणति है कर्म की परिणति नहीं । जीव ने किया, जीव में हुआ, जीव की परिणति से हुआ, किंतु साथ में यह विश्वास हो कि कर्मविपाक के सान्निध्य में ही जीव में ये रागद्वेष हो सके तो वह बात सत्य कहलायेगी ।
(584) वस्तुस्वातंत्र्य व निमित्तनैमित्तिक भाव इनमें से एक को असत्य मानने पर दूसरे का भी असत्यपना―वस्तुस्वातंत्र्य व निमित्तनैमित्तिक भाव इनमें किसी को मना कर दिया जाये कि कर्म क्या करता? कर्म की क्या जरूरत? इस कर्म का तो केवल नाम ही ले लिया जाता । जो सामने पड़ा सो निमित्त का नाम कर देते । उसकी यहाँ कुछ सान्निध्य की बात नहीं तो पहली बात भी गलत हो जाती है । और यदि कोई ऐसा माने कि कर्म ही रागद्वेष कराता है, जीव का वहाँ कुछ परिणमन नहीं तो जो कर्म पर कर्मत्व थोपते हैं वह बात गलत हो जाती है । तो स्याद्वाद शासन में यह समझिये कि कर्म के सान्निध्य में कर्म के विकार का फोटो यहाँ झलकता है और उसे यह ज्ञान अपनाता है और रागद्वेष बनता है तो निश्चय से तो जीव ने ही रागद्वेष बनाया, पर व्यवहारनय से कर्म का निमित्त पाकर जीव में रागद्वेष परिणमन बना । अब इन दोनों में किसको मना करेंगे? एक को मना करेंगे तो दूसरा गलत । अब कल्याण के लिए मुख्यतया क्या देखना चाहिए? यहाँ दो बातें सामने आयीं―जीव के परिणमन से जीव में राग हुआ, कर्म का निमित्त पाकर जीव में राग हुआ, इन दो बातों में से कौन सा चिंतन ठीक है कि जिससे हम निर्विकल्पसमाधि में पहुंच सकें? तो साक्षात् और परंपरया इन दो का भेद है । साक्षात् दृष्टि से देखे तो ये दोनों ही बातें छोड़ने योग्य हैं । न तो यह निश्चय की बात चित्त में रखनी चाहिए कि जीव की परिणति से राग हुआ है और न यह व्यवहार की बात चित्त में रखनी चाहिए कि कर्म का निमित्त पाकर जीव में राग हुआ है । तो साक्षात् के लिए कौनसी बात चित्त में रखना? शुद्धनय अवक्तव्य, अखंड चैतन्यमात्र स्वरूप । पर यह शुद्धनय पायें कैसे? तो आप निश्चयनय के मार्ग से चलकर शुद्धनय पा सकेंगे और व्यवहारनय के मार्ग से भी बढ़कर शुद्धनय पा सकेंगे ।
(585) शुद्धनय तक पहुंचने से पहिले के प्रयास―निश्चय के मार्ग से कैसे शुद्धनय मिला ? जहाँ यह ही दिख रहा कि जीव में जीव की परिणति से राग हो रहा वहाँ अन्य का ध्यान न रहा । निमित्त का ध्यान नहीं है वहाँ । राग हो रहा और जीव में हो रहा । दो दृष्टियों में आयी बात । तो जब मुकाबला करते हैं, रागपरिणमन इस जीव से निकल रहा तो ऐसा देखने पर रागपरिणमन तो लुप्त हो जाता और जीवद्रव्य की दृष्टि मुख्य हो जाती है और इस मुख्यता होने से वह शुद्धनय प्राप्त होता है जिससे कि आत्महित हुआ । अब व्यवहार की बात देखिये―जब यह राग निरखा गया कि जीव में यह राग कर्म का निमित्त पाकर हुआ है, जीव के स्वभाव में नहीं है तो वह विकार से उपेक्षा करेगा । यह मेरी चीज ही नहीं । यह तो कर्मोपाधि का निमित्त पाकर हुआ है, तो उसको निज अविकारस्वभाव की दृष्टि जग जायेगी, शुद्धनय में पहुंच गया, आत्महित हो गया । एक दृष्टांत से समझिये । इस मंदिर में आने के आपके दो तीन रास्ते हैं, दक्षिण से भी आने का रास्ता है, उत्तर से भी आने का रास्ता है । तो मंदिर में आने के ये सब रास्ते हुए, मगर साक्षात् रास्ता एक है । चाहे पूरब दिशा से आवे, चाहे उत्तर दिशा से और चाहे दक्षिण दिशा से, मगर इस मंदिर का दरवाजा तो एक ही है जिससे मंदिर के अंदर प्रदेश करते हैं । तो साक्षात् मार्ग एक है, मगर उस साक्षात् मार्ग में लगने के लिए दो तीन मार्ग हो गए । ऐसे ही मुक्ति का साक्षात् मार्ग तो शुद्धनय का आलंबन है, मगर उस मार्ग तक पहुंचने के लिए आपको निश्चयनय से भी जानना, व्यवहार से भी जानना, अनेक प्रकार से जानना, कथा पुराणों से भी जानना, सब प्रकार से आपको प्रयोग उपयोग करना पड़ता है । तो ऐसा ही ज्ञान सब करना है और एक आदत बनाना है कि हम कुछ भी ज्ञान करें, हमें उस ज्ञान से अपने ज्ञानस्वभाव की दृष्टि करनी है, यह शिक्षा लेनी है । जिन्होंने एक यह निर्णय बनाया कि मुझे तो अविकार ज्ञानस्वभाव की दृष्टि बनाना है, तो न व्यवहारनय से घृणा होगी, न निश्चयनय से घृणा होगी, न कथा कहानी से घृणा होगी, न संयम से घृणा होगी और जिसने यह लक्ष्य नहीं बनाया उसको सर्वत्र दोष ही दिखेंगे । चरणानुयोग में दोष दिखेंगे, व्यवहारनय में दोष दिखेंगे, निश्चयनय में दोष दिखेंगे । सर्वत्र दोष ही दोष नजर आयेंगे ।
(590) आत्मस्वभावदृष्टि का प्रताप―भैया ! अपना यह लक्ष्य बनावें कि मुझे अविकार ज्ञानस्वभाव तक पहुंचना है । मैं अपने को यह समझ लूं कि मैं अविकारस्वभावी हूँ । ज्ञान मेरा सर्वस्व स्वरूप है । और इसको समझने के लिए प्रेक्टिकल और अधिकाधिक सहायक आपको यह निमित्तनैमित्तिक योग का परिचय मिलता है । एकदम जल्दी स्वभाव में पहुंच जायेंगे इस परिचय से । जैसे जहाँ यह जाना कि रागद्वेष सुख दुःख ये कर्म उपाधि के प्रभाव से हुए, ये मेरे स्वरूप नहीं हैं । इनसे मेरा मतलब नहीं, ये तो झलकते भर हैं, इनको मैं क्यों देखूं, ये मेरे स्वरूप नहीं, मैं अविकार स्वरूप हूँ, ये नैमित्तिक हैं । इस ज्ञान में वह स्फूर्ति है कि हम जल्दी ही स्वभाव तक पहुंच जाते हैं और यह बड़ा आसान काम रहता है । तो जिनको आत्महित की भावना नहीं उन्हें तो विवाद है और जिन्हें आत्महित की भावना है वे जिनवाणी के प्रत्येक कथन से अपने स्वभाव की दृष्टि कर लेते हैं । उसके लिए व्यवहारनय से भी सहयोग मिला, निश्चयनय से भी सहयोग मिला, कथा पुराणों से भी सहयोग मिला और स्वभावदृष्टि से भी, क्योंकि उसने एक लक्ष्य बनाया है कि आखिर सबका निष्कर्ष यह है, प्रयोजन यह है, अपने को यह मान लूं, समझ लूं, अनुभव लूं कि मैं तो अविकार ज्ञानमात्र हूँ । ज्ञान में एक ऐसी दृष्टि होती है कि विकारभाव निरंतर चलता रहे हम आपमें । जिस समय हम अविकार ज्ञानस्वरूप की दृष्टि कर रहे हैं उस समय भी विकार चल रहे हैं । ये विकार एक क्षण को भी खतम नहीं होते । फर्क रहता है अव्यक्त और व्यक्त का जब हम ज्ञानस्वभाव की आराधना में चलते हैं तो विकार अव्यक्त रहते हैं, जब हम स्वभाव की आराधना का ध्यान देते हैं तो विकार व्यक्त हो जाते हैं । तो निरंतर विकार चलते रहने पर भी ज्ञान में ऐसी कला है कि वह विकार से न छिड़कर अपने आपके स्वभाव में पहुंचा देता है । जैसे हड्डी का फोटो लेने वाला यंत्र होता है । उस यंत्र के सामने रोम, चमड़ी, खून, मांस, मज्जा आदिक सब चीजें आती हैं मगर इनमें से किसी को भी न छूकर केवल हड्डी का फोटो ले लेता है, ऐसे ही यह ज्ञान दृष्टि वाला है । इस समय शरीर के साथ कर्म भी हैं, विकार भी हैं, विकार भी निरंतर चल रहे हैं, पर इन सबसे न छिड़कर अपने ध्रुव ज्ञानस्वभाव तक पहुंचा देता है । तो बात दोनों समझनी हैं―1. वस्तुस्वातंत्र्य और 2. निमित्तनैमित्तिक भाव और दोनों की समझ बनने पर हम विकल्प से रहित होकर अविकारस्वभाव में आ सकते हैं । तो वे मुनि जो इस अविकारस्वरूप की धुन में रहा करते हैं वे पूर्ण चंद्र की तरह इस जैन सिद्धांतरूप आकाश में शोभायमान होते हैं ।