वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 23
From जैनकोष
तिहुयणसलिलं सयलं पीयं तिण्हाइ पीडिएण तुमे ।
तो वि ण तण्हाछेओ जाओ चिंतेह भवमहणं ।।23।।
(35) त्रिभुवनसलिलपान से भी संसारी के तृषाच्छेद का अभाव―हे जीव संसार में तू कभी तृप्त न हो सका । जहाँ भोग मिले वहाँ तृष्णा के कारण तू तृप्त न हो सका और जहाँ भोग न मिले वहाँ भी तू तड़फ-तड़फ कर अतृप्त रहा, और की तो बात क्या है । बाहर में पानी मिलने से तृप्ति मानी जाती है मगर नरकों में इतनी तेज प्यास लगी कि तीनों लोकों का सारा पानी भी पी लेवें तो भी प्यास नहीं बुझ सकती । इतनी तेज तृषा के होने पर भी एक बूंद भी प्राप्त नहीं हुआ अथवा अन्य-अन्य भवों में भी तृषा तृष्णा करके तू व्याकुल रहा । किसी भी प्रकार शांत न रहा । तो अब तू इन बाह्यपदार्थ विषयक विकल्पों को छोड़ दे, किसी भी प्रकार बाह्य समागमों में तृप्ति नहीं हो सकती । तो तेरा जैसा संसार का भव होवे वैसा ही तू चिंतन कर याने निश्चय सम्यग्दर्शन, निश्चय सम्यग्ज्ञान और निश्चय सम्यक्चारित्र ये परमार्थ रत्नत्रयभाव संसार का मंथन करने वाले हैं अर्थात् जन्ममरणरूप संसार दूर हो जाता है इस कारण अब बाह्य पदार्थों में तू तृप्ति की बात मत ढूंढ, किंतु अपने आपके स्वरूप में परम आनंददायक जो परमार्थ रत्नत्रय भाव है उसकी ही उपासना कर ।