वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 52
From जैनकोष
केवलिजिणपण्णत्तं एयादसअंग सयलसुयरणाणं ।
पढिओ अभव्वसेणो ण भावसवणत्तणं पत्तो ।।52।।
(92) आत्मप्रतीतिरहित पुरुष के भावश्रमणता का अलाभ―इस गाथा में यह बतला रहे हैं कि कोई पुरुष कितने ही शास्त्र पढ़ ले, किंतु सम्यग्दर्शनरूप विशुद्ध परिणाम न हो, आत्मा की स्वच्छ दृष्टि न बने तो वह मोक्ष को नहीं पा सकता । इसके लिए उदाहरण दिया गया है भव्यसेन का । भव्यसेन मुनि थे और उन्होंने केवली भगवान के प्ररूपे हुए 11 अंगों को पढ़ डाला, इतने महान श्रुत का ज्ञान कर लिया, फिर भी भव्यसेन परमज्ञानभाव को प्राप्त न कर सका । भावलिंगी न हो सका । कोई ऐसा अगर जाने कि बाह्य आचरण करने मात्र से सिद्धि होगी सो यह भी बात नहीं, और कोई यह समझे कि बाह्य क्रियामात्र से तो सिद्धि नहीं है, किंतु शास्त्र के पढ़ लेने से ही सिद्धि है तो यह भी सत्य नहीं । भव्यसेन द्रव्यमुनि ने कितने ही शास्त्रों का अध्ययन कर लिया, 11 अंग भी पढ़ लिया, परंतु जिन वचन में प्रतीति न हुई, आत्मस्वरूप में श्रद्धा न जगी, उसने भावलिंग नहीं पाया । तो भाव पाये बिना, अविकार ज्ञान स्वरूप का अर्थ समझे बिना शास्त्र भी कोई पढ़ ले, क्रियायें भी कितनी ही कर डाले तो भी उसको सिद्धि नहीं होती ।