वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 70
From जैनकोष
पयडहिं जिणवरलिंगं अब्भिंतरभावदोसपरिसुद्धो ।
भावमलेण य जीवो वाहिरसंगम्मि मयलियइ ।।70।।
(141) सही उद्देश्यसहित त्यागधर्मधारण का महत्त्व―कोई प्रमाणित कर दे कि तेरे सम्यग्दर्शन हो गया, फिर मुनि बने, ऐसा कोई प्रक्रिया का नियम नहीं है । सामान्यतया आत्मकल्याण का भाव जगे, विषयो से विरक्ति बने, मुनि हो जाये, न भी निश्चय सम्यक्त्व हुआ हो, तो भी कुछ कल्याण भावना तो हुई, हो गया मुनि, पश्चाद् आत्मसाधना के भाव में रहा करे, सम्यक्त्व न छूटे, विषय से विरक्ति की बुद्धि रहे, परपदार्थों का त्याग कर दे तो अब यह भाव तो बना कि मुझे अंतरंग से समस्त परिग्रहों का त्यागी रहना है, मुझे अपने आपको अकेला ही अनुभव करना है तो वह मोक्षमार्ग में चलेगा । मगर जिसकी प्रवृत्ति ऐसी ही है कि लोगों से अधिक परिचय बढ़ाये, लोगों में बैठकर खूब हर्ष मौज करे, कथा वार्ता में गप्पों ने अपना समय लगाये, दूसरों को खुश रखने का प्रयत्न करे, दूसरों से प्रशंसा सुनकर अपने को मस्त बनाये तो यह तो मोक्षमार्ग के विरुद्ध रीति है । सब कुछ छोड़ा तो उसने अपने आपके स्वरूप में रमने की धुन तो रखी । मेरे को यह करना है । आत्मस्वरूप में मग्न होने के लिए मैंने त्याग किया है, दुनिया से पूज्यता बढ़ाने के लिए मैंने त्याग नहीं किया ।
(142) भावश्रमण का साम्यभाव―बाह्य वैभव तो मुनि की दृष्टि में न कुछ चीज है । जो भाव मुनि है, सम्यग्दृष्टि साधु है उसकी वृत्ति सबमें समता की रहती है । शत्रु और मित्र दोनों उसकी दृष्टि में बराबर हैं, इसका कारण क्या है कि उसे अपने आत्मा के बारे में स्पष्ट निर्णय है कि मेरा कोई सुधार बिगाड़ नहीं कर सकता, इसलिये ये दोनों एक समान हैं, बाह्य में स्थित हैं, दूसरे जीव हैं, और फिर जो सुधार करने वाला अथवा बिगाड़ करने वाला मित्र या शत्रु बन रहा वह आत्मा न मित्र है न शत्रु । उस पर कर्म का उदय छाया है, उस प्रकार का विकार झलक रहा है और यह अज्ञानवश विकार से लिपट रहा है इसलिए इसकी ऐसी परिणति हो रही है, जो आत्मा है वह तो इसका भी सिद्ध समान स्वरूप वाला ज्ञानस्वरूप है । जो मित्र है वह भी मेरा कुछ नहीं कर रहा है, किंतु उस पर भी कर्म का उदय है, उसको और जाति का उदय है । उस झलक में वह लिपट रहा है और इस तरह की परिणति कर रहा है । ज्ञानीसंत के लिए दोनों बराबर हैं । जिसके शत्रु और मित्र में समता बुद्धि ही, महल और श्मशान में समता बुद्धि हो ऐसा वह पुरुष इन लौकिक गप्पों में क्यों रमेगा? श्मशान में रह रहा तो बड़ा खुश, क्योंकि उसको अपना आत्मारूप महल प्राप्त है और उसी में वह आराम पा रहा है, ज्ञानानुभूति का आनंद एक अलौकिक आनंद होता है । जहाँ किसी परपदार्थ का ख्याल नहीं, विकल्प नहीं, और ज्ञान में ज्ञानस्वरूप ही समा रहा हो उससे बढ़कर कोई वैभव नहीं हो सकता । इसको छोड़कर जिन्होंने बाह्य पदार्थों को वैभव माना वे इस जीवन में भी दुःखी रहते हैं और मरकर भी परभव में दुःखी रहेंगे । भावमुनि के तो सर्वत्र समताभाव रहता है, चाहे स्वर्ण हो, चाहे कांच हो, उसके लिए दोनों में समता है, यह स्वर्ण है सो भी पर द्रव्य है, यह कांच है सो भी परद्रव्य है । इस ज्ञानस्वरूप आत्मा का भला न स्वर्ण कर सकता है और न भला बुरा कांच कर सकता है, मेरी भलाई बुराई मैं ही कर सकता हूँ । जैसी दृष्टि बनाऊं वैसी मैं अपनी सृष्टि करता रहता हूँ । ज्ञानदृष्टि हो तो आनंद है, जहाँ अज्ञानदृष्टि बनी, वहाँं कष्ट ही कष्ट है । तो जो भावश्रमण मुनि है उसके निरंतर साम्यभाव है । उसकी कोई निंदा कर रहा, कोई स्तुति कर रहा, उसके लिए दोनों बराबर हैं, क्योंकि उसकी तो धुन ज्ञानस्वरूप आत्मतत्त्व को निरखकर उस ही में बसे रहने की है । इसी कारण उसे आकुलता नहीं होती है ।
(143) निर्ग्रंथ रहकर ज्ञानस्वभाव अंतस्तत्त्व की अभेद उपासना से मुक्तिलाभ―यहाँं यह बात जानना कि द्रव्यलिंग धारण करना आवश्यक है और भाव सुधारना यह परम आवश्यक है । यहाँ कोई ऐसा एकांत नहीं है कि अपने भाव सुधारों और घर में ही रहो, मोक्ष मिल जायेगा । यहाँ ऐसा एकांत नहीं है कि द्रव्यलिंगी मुनि बन जावो, मोक्ष मिल जायेगा । दोनों ही आवश्यक हैं, एक को छोड़कर एक से सिद्धि नहीं होती । इसी तरह जैसे कि वस्तुस्वरूप बताने में स्याद्वाद की प्रक्रिया है ऐसे ही यहाँ भी स्याद्वाद है । जब यह कहा जाये कि भावों से मोक्ष होता है तब यह बात जरूर चित्त में रखना चाहिए कि मुनिभेष में रहकर भावों से मोक्ष होता है, जब यह कहा जाये कि मुनि पद से मोक्ष होता है तब यह भाव रखना चाहिए कि शरीर से मुनि बनकर यदि भाव सही है तो उसके द्वारा मोक्ष होता है । दोनों से मोक्ष होता है । वहाँ भी यह अर्थ आता है कि मुनि भेष में रहकर एक अवसर मिलता कि अपने ज्ञानस्वरूप आत्मा में खुद रमता रहे, उस रमण से मोक्ष होता है इस तरह ये तीन बातें समझना, फिर इन तीन के और फैलाव से और भी बातें जानना । कोई पूछे कि फिर एक बात तो बतलाओ―मोक्ष कैसे होता है? तो एक साथ यह बात नहीं बतायी जा सकती है, क्योंकि द्रव्यलिंग बिना वह मोक्ष नहीं होता । भावलिंग बिना भी मोक्ष नहीं होता । जहाँ दोनों ही चलते हैं वहाँ दोनों को एक साथ कैसे बोला जायेगा? क्रम से ही तो बोला जायेगा इसलिए अवक्तव्य है, यह बात । अवक्तव्य रहते हुए भी द्रव्यलिंग से मोक्ष हैं, अवक्तव्य रहते हुए भी दोनों से मोक्ष है । उसमें भाव यह रखना कि सर्वपरिग्रहों को त्यागकर मुनिभेष में आत्मतत्त्व की साधना करना चाहिए और इस विधि से ही इस मिलावट में से यह आत्मा अकेला निकल सकेगा और यही एकमात्र कर्तव्य है, इसके लिए सिद्धस्वरूप का ध्यान करें कि सर्वोत्कृष्ट स्थिति आत्मा की यह है, उत्कृष्ट आनंद आत्मा का यह है । मैं ऐसा ही स्वरूप रखती हूँ, मुझे ऐसा ही बनना है । ऐसा बने बिना इसके पहले के जितने भी स्थान हैं वे सब दुख: पूर्ण हैं । ऐसा बनूं कैसे ? अकेला आत्मा कैसे रह जाऊं? तो इस समय इस मिलावट के अंदर ऐसा अकेला आत्मतत्त्व का ध्यान कि मैं यह हूँ । मात्र ज्ञानस्वरूप में ही अपना उपयोग रमाओ । यह भीतर में तपश्चरण चलता रहेगा तो नियम से मोक्ष मिलेगा और एक अपने आत्मस्वरूप का परिचय छोड़कर कुछ भी करते रहे चाहे धर्म के नाम पर, लेकिन वह रास्ता न मिलेगा कि जिससे कर्म कटते हैं और जिस रास्ते से आत्मा को शांति मिलती है ।