वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 75
From जैनकोष
खयरामरमणुयकरंजलिमालाहिं य संथुया विउला ।
चक्कहररायलच्छी लब्भइ बोही सुभवेण ।꠰75।।
(168) रत्नत्रयलक्ष्मी की प्राप्ति की अत्यंत दुर्लभता―विद्याधरों से आदरणीय, देवों से आदरणीय, मनुष्यों से आदरणीय चक्रवर्ती की लक्ष्मी बड़े-बड़े राजा महाराजाओं की लक्ष्मी तो इस जीव ने अनेक बार प्राप्त की है, पर भव्य जीवों के द्वारा, ज्ञानी संतों के द्वारा पूजनीय रत्नत्रयरूप लक्ष्मी इस जीव ने प्राप्त नहीं की । रत्नत्रय की प्राप्ति इस जीव को अत्यंत दुर्लभ है । मन ऐसा स्वच्छंद है कि पंचेंद्रिय के विषयों में मन बड़ी उमंग से लगता है, पर आत्मा की चर्चा में, आत्मा की दृष्टि में मन नहीं लगता है । संसारी जीवों की प्राय: ऐसी रीति ही है । तो यह रत्नत्रयरूप लक्ष्मी प्राप्त नहीं हुई अब तक । यदि यह प्राप्त हो गई होती तो फिर संसार में रुलने का क्या काम था? तो यहाँं यह समझना कि तीनलोक में जो भी वैभव है, वह मिलना तो सुगम है किंतु सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक᳭चारित्र की प्राप्ति दुर्लभ है । ऐसे-ऐसे वैभव हैं लोक में कि जिनका आदर बड़े-बड़े विद्याधर करते हैं । वे विद्याधर विजयार्द्ध पर्वत पर दक्षिण और उत्तर श्रेणियों पर होते हैं । बड़ी उनकी विद्यायें हैं । बड़े-बड़े राजा महाराजा भी जिनका भोग करते, ऐसी ऊंची लक्ष्मी भी प्राप्त हो सकती है संसार में, पर रत्नत्रय की प्राप्ति होना सरल नहीं है । देव लोग, जिन्हें अमर कहते हैं याने मरते नहीं सो अमर, सर्वथा मरते नहीं यह बात नहीं, किंतु उनकी लंबी आयु होती है और वे आयु से पहले मरते नहीं हैं इस कारण उन्हें अमर कहते हैं, वे भी जिनका आदर करें ऐसे वैभव की प्राप्ति इस जीव को सुगम है, पर सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र की प्राप्ति अत्यंत दुर्लभ है ।
(169) सहज स्वाधीन रत्नत्रयलक्ष्मी की दुर्लभता पर आश्चर्य―छह खंड के स्वामी चक्रवर्ती जिनके लाखों करोड़ों घोड़े, हाथी, सेना, सब छह खंड पर पूरे तौर से राज्य है, ऐसी लक्ष्मी भी इस जीव का क्या हित करेगी । लौकिक लक्ष्मी प्राप्त तो हो जाती है, सुलभ है, थोड़े से ही पुण्यभाव से ऐसे पुण्य कर्म अर्जित होते हैं कि प्राप्त होना सुगम है, पर सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र के उपाय इस जीव को कभी न मिले । यह रत्नत्रय लक्ष्मी भव्य जीवों के द्वारा आदरणीय है, इसकी भक्ति की जाती है, वह भाव इस जीव को अब तक प्राप्त नहीं हुआ, और आश्चर्य तो यह है कि जैसे तालाब में रहने वाली मछली प्यासी रहे, यह एक आश्चर्य की बात है ऐसे ही सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक᳭चारित्र के स्वभाव वाले अपने आत्मा में ही यह आत्मा इस रत्नत्रय से दूर रहे और इन जड़ वैभवों की आशा से ज्ञानकंठ सूख-सूखकर प्यासा बना रहे तो यह एक बड़े आश्चर्य की बात है । तो यह रत्नत्रय लक्ष्मी अत्यंत दुर्लभ है । हाँं, कभी भी मिले, रत्नत्रय के अवलंबन से ही जीव मोक्ष को प्राप्त होता है ।
(170) सिद्ध भगवंत होने की दृढ़तम भावना में सर्वोत्कृष्ट लाभ―एक बार सामान्यरूप से सोचे अपने लिए कि मैं क्या बनूं जिससे सब झगड़ा सदा के लिए खतम हो जाये ? तो कोई झंझट विकल्प विपत्ति शल्य कुछ ने होवे, ऐसा क्या बनना चाहिए सो सोचें? अगर राजा महाराजा बन गए तो संकट खतम हो जायेंगे क्या? बहुत बड़े लक्षाधीश, करोड़ाधीश बन गए तो उससे संकट मिट जायेंगे क्या? न मिटेंगे? जो संसार में जितना बड़ा हो जाता है उसको उतने बड़े संकट उसके ढंग के आते रहते हैं । संसार की कोई भी स्थिति ऐसी नहीं है कि जो संकटों को दूर रखे, सिर्फ अरहंत और सिद्ध भगवंत हैं ऐसे कि जहाँ संकट का नाम नहीं बाकी जो जगत में कीड़ा मकोड़े की तरह नाना प्रकार के जीव बिलबिला रहे हैं वे सब दुःखी हैं । तो अपने लिए यह भावना रखें कि इस जीवन में मुझे सिर्फ (केवल) होना है, अन्य कुछ नहीं होना है, बाकी तो जो हो रहा है वह होना पड़ रहा है । कहां जाये? सो भैया भीतर में यह ध्वनि निकले, यह मन में बात आये कि मुझे तो अरहंत सिद्ध होना है, इससे पहले की कोई बात मंजूर नहीं है । अरहंत भगवान भी सिद्ध ही हैं, फर्क एक चार अघातिया कर्म का है, जो कि बाहरी बात है । सर्वज्ञता और वीतरागता में कोई अंतर नहीं है, सो वे भी अरहंत आयु के क्षय होने पर सिद्ध ही होंगे, दूसरा कुछ न होंगे । तो अपने लिए भीतर में यह भावना बनायें कि मुझे सिद्धभगवंत होना है, और कुछ न चाहिए । अगर यह भावना अब भी बन जाये और यही निरंतर धुन रहे तो शीघ्र ही वह समय निकट आयेगा जब कि उत्तम मनुष्य भव मिलेगा । वहाँ मुनिव्रत की साधना होगी, आत्मा का आत्मा में अवस्थान होगा, मुक्ति प्राप्त होगी, मगर यह ध्येय तो अभी इसी क्षण बना लें इसी भव में कि मेरे को तो सिर्फ सिद्धभगवंत होना है, अन्य कुछ न चाहिए ।
(172) सिद्धालय में सर्वत्र सिद्ध भगवंतों की राजमानता―इस लोके के चारों तरफ 3 वातवलय हैं―(1) घनवातवलय (2) घनोदधिवातवलय और (3) तनुवातवलय ꠰ उनमें से तनुवातवलय में बहुतसा तनुवातवलय विस्तार निकलने के बाद ऊपर के 525 धनुष की मोटाई में तनुवातवलय में सिद्ध भगवान विराजे हैं ꠰ जो खड᳭गासन से मोक्ष गए वे उस रूप में वहाँ विराजे और पद्मासन से मोक्ष गए वे उस रूप में वहाँ विराजे ꠰ सबका सिर भाग एक समान है ꠰ नीचे जिसका जितना विस्तार है उतने प्रमाण हैं ꠰ यह बात एक बाहरी कही गई है ꠰ वास्तव में तो वह अमूर्त पदार्थ है ꠰ हम भी अमूर्त हैं, पर नामकर्म के उदय से हमारा यह सूक्ष्मपना आवृत हो गया है और हम कुछ स्थूल से मालूम पड़ते हैं, पर वहाँ अष्ट कर्म न होने से वे भगवान अमूर्त, अत्यंत सूक्ष्म, जैसे हैं वैसे विराजे हैं ꠰ तो ढाई द्वीप से जीव मोक्ष गए, उसकी सीध में वे विराजे हैं ꠰ कोई समुद्र से ही मोक्ष चले गए, कोई पर्वत से मोक्ष गए कोई जमीन से ही मोक्ष गए ꠰ सब जगह से मोक्ष गए हुए जीव हैं और इसी कारण सिद्धालय में सर्वत्र सिद्ध जीव हैं ꠰
(173) समुद्रस्थान व मेरुमध्यभागस्थान से मुनिराजों को मोक्षलाभ होने की विधि का दिग्दर्शन―यहाँ यह जिज्ञासा हो सकती है कि समुद्र से कैसे मोक्ष गए, पृथ्वी पर तो, पर्वत पर तो तपश्चरण करते हैं और वहाँ से मोक्ष गए, पर समुद्र की जगह से कैसे मोक्ष गए ꠰ तो वहाँ इस तरह से मुनि मोक्ष जाते हैं कि जिन मुनियों को कोई देव या शत्रु उठाकर उपसर्ग करता है और वहाँ समुद्र में पटकता है ꠰ समुद्र में गिरे उसी समय उनके भावों की निर्मलता बहुत बढ़ी ꠰ शरीर जहां है सो रहो, मगर भावों में विशुद्धि गढ़ी तो वहाँ से मोक्ष चले गए ꠰ एक बात और जानने की इच्छा होती कि चलो समुद्र की जगह से भी मोक्ष गए, मगर मेरुपर्वत का जो भीतरी भाग है, बीच का भाग है वहाँ से कोई कैसे मोक्ष जायेगा ? पर्वत पर से मोक्ष चले जायेंगे किंतु मेरुपर्वत पर एक चूलिका है और चूलिका के ऊपर सौधर्म स्वर्ग का ऋजु नाम का विमान है, जिसका सिर्फ एक बाल की मोटाई का अंतर है, मानो चोटी पर रखा है, उससे कैसे मोक्ष जायेगा ? फिर तो उसकी सीध में जो सिद्धालय का स्थान है वह तो खाली होगा, वहाँ सिद्ध न होना चाहिए ꠰ तो समाधान यह है कि जो मुनि ऋद्धिधारी हैं, ऋद्धियां भी अनेक तरह की होती हैं ꠰ विक्रिया आदिक ऋद्धि तो प्रसिद्ध हैं, पर एक अप्रतिघात ऋद्धि होती है, जिसके प्रताप से पर्वत आदिक में चलें विराजें तो उनका छिड़ाव नहीं होता है ꠰ ऐसी ऋद्धि वाले कोई मुनि मेरु पर्वत में चले जा रहे हैं, बीच के स्थान में पहुंचे और वहाँ ही उनके शुक्लध्यान बन गया, वहाँ ही उनका निर्वाण हो गया तो वहाँं से ये सधे मोक्ष चले गए ꠰ सो उसकी सीध का भी स्थान सिद्धालय भरा हुआ है ꠰
(174) सिद्धालय में सिद्ध एक में एक, एक में अनेक, न एक, न अनेक के तथ्य का वर्णन―वहाँ सिद्धालय में एक मांही एक राजे, एक मांहि अनेकनो ꠰ जहां एक सिद्ध भगवान विराजे हैं, जिस स्वरूप में वे हैं, जिस आत्मस्वरूप में केवलज्ञान स्थित है ꠰ एक सिद्ध भगवान का उसमें तो वे एक ही है ꠰ एक में दूसरा नहीं होता ꠰ यों एक सिद्ध में एक सिद्ध विराजा है, मगर बाहरी क्षेत्र से देखें तो जहां एक सिद्ध भगवान विराजे हैं वहाँ अनंत सिद्ध भगवान विराजे हैं ꠰ तो सिद्ध भगवान एक में एक हैं, एक में अनेक हैं ꠰ तो फिर कहां एक हैं, कहां अनेक हैं, कितने हैं ? अरे एक अनेक की नहीं संख्या ꠰ अगर सिद्ध भगवान के सही स्वरूप में दृष्टि दें तो उस स्वरूपदृष्टि के करने पर न तो आपको एक का ख्याल रहेगा और न आपको अनेक का ध्यान रहेगा ꠰ एक शुद्ध ज्ञानज्योति, इसी बात को सुनकर अन्य लोगों ने यह कहना शुरू कर दिया कि भगवान तो एक है और उसमें आत्मा निर्वाण पाते हैं सो विलीन हो जाते हैं ꠰ वह विलीन होना क्या है ? विलीन होने की बात सत्य तो है, मायने जहां एक विराजा है वहाँ दूसरा भी आ गया, स्वरूप उनका एक समान है ? इसलिए कह देते हैं कि विलीन हो गया ꠰ दृष्टांत भी दिया करते हैं जैसे तालाब में से कुछ पानी निकाला या एक-एक बूंद निकाल-निकालकर अलग-अलग रख ली तो वह बूंद है ꠰ यदि उस बूंद को तालाब में डाल दिया जाये तो वह बूंद विलीन हो जाती है और इस दृष्टांत को देखकर यह सिद्ध करना चाहते हैं कि ऐसे ही एक आत्मा भी बूंद की तरह है और एक ईश्वर, परमात्मा तालाब की तरह है ꠰ यह आत्मा भी वहाँ जाकर विलीन हो जाता है, पर विलीन होने का यह अर्थ नहीं है कि उसकी सत्ता मिट गई और यह कुछ न रहा ꠰ जितने भी सिद्ध भगवान है, सब अपने-अपने केवलज्ञान से अपना-अपना ज्ञान करते जा रहे ꠰ सब अपने-अपने आनंद से अपने में आनंद का अनुभव करते जा रहे हैं, उनकी सत्ता न्यारी है और उनका परिणमन भी न्यारा है मगर एक समान परिणमन है इसलिए लोगों की दृष्टि विलय पर जल्दी पहुंच जाती है, जैसे बूंद तालाब में गिर गया तो बूंद नष्ट नहीं होता है, वह एक बूंद पड़ा है और भी बूंद हैं ꠰ वहाँ सब बूंदों का एक समान स्वरूप है ꠰ वह बूंद तालाब में ऐसी मिल गई कि वहाँ सब बूंदों का एक समान स्वरूप है ꠰ वह बूंद तालाब में ऐसी मिल गई कि वहाँ बूंद हो ही नहीं ꠰ भैया, यहाँ सिद्ध एक है या अनेक यह चर्चा छोड़ दो, तुम तो सिद्ध भगवान के स्वरूप पर ध्यान दो ꠰ सिद्ध का स्वरूप कैसा है? पवित्र ज्ञान ज्योति ꠰ जो सहज आनंदमय है ऐसा पवित्र अनंत ज्ञानानंदमय भगवान आत्मा का स्वरूप है । ऐसा सिद्ध का स्मरण करें तो आत्मा पवित्र होगा और अपने आपमें ज्ञानज्योति पवित्र जगेगी । और उस ध्यान के प्रताप से आत्मा में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र प्रकट होगा ।
(175) सांसारिकसुख से विरक्त होकर उत्कृष्ट सहजानंदमय सिद्ध प्रभु के प्रभुत्व की भावना का कर्तव्य―देखो यहाँ उत्पन्न हुए हैं, घर में हैं, इस समय कुछ पुण्य का उदय है, सो अगर मन में स्वच्छंदता आती है तो जो चाहे स्वच्छंद काम कर लो जैसे चाहे आचरण से रह लो, क्योंकि उदय अच्छा है । मोह रागद्वेष कुछ भी करो, चाहे लड़ाई करो, अशांति रखे । दूसरे का बुरा विचारो, कुछ भी करलो, आखिर इसका फल अच्छा नहीं है, क्योंकि यह पुण्य कब तक मदद देगा । ये कर्म उदय में आते और झड़ जाते हैं । पुण्यकर्म उदय में आ रहे तब यह वैभव मिला है । उदय में आ रहा मायने झड़ रहा, पुण्यकर्म निकल रहा तब यह वैभव मिल रहा । पुण्यकर्म के रहने से संसार का सुख नहीं मिलता, किंतु पुण्यकर्म के अलग होने से संसार का सुख मिलता है । मायने लोग कह तो देते हैं कि संसार का सुख पुण्य कर्म के उदय से मिलता है, मगर उदय का अर्थ क्या है सो बताओ? उस उदय का अर्थ यह है कि वह पुण्य कर्म अब आत्मा से निकल रहा है । उदय होने पर कर्म आत्मा में रह सकते हैं क्या? उदय आने के मायने निकल गया । सूर्य का उदय हुआ मायने सूर्य निकल गया, सूर्य अपनी उस जगह से अलग हो गया । उदय होने का अर्थ है कि उस जगह से अलग होना । तो जब पुण्यकर्म आत्मा से अलग होता है उस काल संसार का सुख मिलता है, तो आप पूछेंगे कि ये सुख वर्षों तक क्यों रहते हैं । तो वर्षों तक बराबर पुण्यकर्म निकल रहे हैं इसलिए वैभव वर्षों तक रहता है । सो पुण्य कर्म तो निकलते रहें और पुण्यकर्म की आमदनी न करें तो क्या हालत होगी? यह सब पुण्य खतम होगा । और खतम होगा ही । सदा पुण्य की आमदनी कोई नहीं कर सकता पुण्य आता है, पाप आता है और इस तरह से सुख दुःख आते हैं । तो संसार दुःखमय है? । सिद्ध भगवान ही शुद्ध अनंत आनंदमय हैं । तो अपने आपके बारे में यह ध्यान बनावें कि मुझे तो सिद्ध भगवान होना है । हम यहाँ कुछ नहीं चाहते । सिद्ध के स्वरूप का ध्यान रखें तो अपने आप सहज ही ज्ञानस्वरूप का अनुभव जगेगा, जिसके प्रताप से भव-भव के बांधे हुए कर्म भी नष्ट हो जाया करते हैं ।