वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 91
From जैनकोष
पाऊण णाणसलिलं णिम्महतिसडाहसोसउम्मुक्का ।
होंति सिवालयवासी तिहुवणचूड़ामणी सिद्धा ।।91।।
(278) शाश्वत सत्य आराम पाने के प्रोग्राम की गवेषणा―ज्ञानरूपी जल को पाकर ये भव्य प्राणी दुर्निवार तृषा दाह और शेष से रहित होकर मोक्ष के वासी होते हैं, तीन लोक के चूड़ामणि होते हैं अर्थात् सिद्ध होते हैं । एक विचार करना चाहिए कि मुझे क्या होना चाहिए जिससे कि सदा के लिए मेरे संकट दूर हो जाये । थोड़े समय के लिए माना हुआ कोई संकट दूर हुआ और दूसरा संकट आया यों परंपरा चल रही तो ऐसे सुख और आराम में कोई तथ्य नहीं है, आराम वह मिले जो सदा के लिए हो, और देखिये―आत्मा हैं हम आप सब और अपनी ही बात सोचना है, क्योंकि जितना झमेला है, समागम है, कुटुंब है क्या है यह? जैसे जगत के अन्य जीव हैं वैसे ही ये घर में आये हुए जीव हैं । मुझसे अत्यंत भिन्न हैं, इनके कर्म इनके साथ, इनकी करनी इनके साथ । कोई गुंजाइश नहीं, केवल एक लोक कल्पना से यह बात चलती है । तो बाहर के चेतन अचेतन पदार्थों की गुंजाइश में, लगाव में कोई हित नहीं है, इसलिए बेकार है । हां गृहस्थधर्म का पालन करने वाले लोगों को परिस्थिति के कारण जरूरी है सो इतनी प्रीति, इतना राग उनके चलता है, मगर ज्ञानी गृहस्थ यह बात सही समझता है कि इससे मेरा क्या प्रयोजन चलेगा? इन बातों में तो कोई हित नहीं ।
(279) केवल आत्मज्ञान रहने में ही संकटहीनता―मुझे क्या बनना चाहिए जिससे संसार के संकट सदा के लिए दूर हो जायें? ये घोड़ा, बैल वगैरह तो बनना ठीक नहीं, उनकी तो बड़ी खोटी जिंदगी है । मनुष्य भी बने तो मनुष्य में भी क्या पाया? इसमें भी बचपन, जवानी और बुढ़ापे के दुःख आते हैं, इसमें भी इस आत्मा को क्या लाभ मिला? कोई-कोई सोचते होंगे कि खूब सुख तो मिल रहा, तो वे बतायें कि आज तक कितना सुख वे जोड़ सके? क्या कुछ आज गांठ में है? जैसे गेहूं का बोरा गेहुंवों से भरा जाये तो वह तो भर जायेगा, पर यह तो रीता का ही रीता रहा । तो संसार की किसी भी स्थिति में कुछ तथ्य नहीं है । तब क्या बनना चाहिए । तो बात यहाँ से सोचो कि हम आप जितने लोग हैं वे तीन प्रकार के पदार्थों के पिंड हैं । जीव, कर्म और शरीर । यहाँ केवल अकेला कुछ नहीं है सब तीन चीजों के पिंड हैं । तो जितना यह संसार का नटखट हो रहा वह सब यों समझो कि विडंबना है, विपत्ति है । वह इन तीनों के मेल की करतूत है । तो इस विडंबना को हमें दूर करना है और सीधा भाव देखें कि तीन की मिलावट न रहे, केवल यह आत्मा रह जाये तो सारे संकट दूर होंगे । इन तीन की मिलावट से जो परिणाम बनता है उससे संकट हो रहे हैं । तो यहाँ अंत में यह निष्कर्ष निकला कि मैं आत्मा अकेला रह जाऊं, इसके साथ शरीर का, कर्म का संपर्क न रहे तो मेरे संकट खतम हो सकते हैं । दूसरा कोई उपाय नहीं है कि जिससे मेरे संकट दूर हों, एक ही उपाय है । तो इसके लिए क्या उपाय रमायें? यह उपाय बनाना है कि इस मिलावट के समय भी स्वरूप से तो मिलावट है नहीं, पर बन गई वस्तुओं की मिलावट, इस वक्त भी हम स्वरूपदृष्टि करके अपने को निराला निरखते रहें तो यह उपाय ऐसा है कि जिसके बल से कभी हम आत्मा सिद्ध होंगे, अकेले रह जायेंगे । अकेला आत्मा रहे उसे कहते हैं सिद्ध । अरहंत भी सिद्ध की तरह हैं । थोड़ा अघातिया कर्म और शरीर का संबंध है अरहंत के, मगर वह संबंध कुछ अनर्थ नहीं कर रहा । बिल्कुल साफ स्पष्ट पूर्ण निर्लेप तो सिद्ध भगवान हैं ।
(280) ज्ञानसलिल से तृष्णादाह मिटा कर शिवालयवास की प्राप्ति―वे जीव सिद्ध होते हैं जिन्होंने ज्ञानबल को पाया और ज्ञानरूपी जल से अपने आपको धोया । वह ज्ञानजल यही है कि जो अपने को स्वरूपमात्र दिख रहा । मैं ज्ञानस्वरूपमात्र हूँ, इससे बाहर कुछ नहीं । बाहर से इसमें आता कुछ नहीं, स्वरूप तो स्वरूप ही रहेगा, और जब ऐसा ही ध्यान में लाते हैं तो भय भी तुरंत खत्म हो जाता है । मैं स्वरूपमात्र हूँ । घबड़ाहट किस बात की, बाहर में कुछ भी होता हो, कहीं इष्ट का वियोग हो गया हो तो, धन की हानि हुई हो तो, कैसी ही विपत्ति हुई हो तो वह सब बाहरी चीज हैं, वे सब दूसरे के परिणमन हैं । मुझ पर विपत्ति कहां है? मैं स्वरूपमात्र हूँ, इस मुझ पर कोई विपत्ति नहीं । संसार की मानी हुई कठिन से कठिन विपत्ति हो, मगर जिसने ज्ञानस्वरूप को निरखा है वह जानता है कि मुझको रंच भी विपत्ति नहीं है । किसी बाह्य पदार्थ के परिणमन से मेरा कुछ सुधार बिगाड़ नहीं । और यदि कुछ चारित्रमोह की दुर्बलता है तो यह ध्यान में रहे कि मेरे ही ज्ञान की निर्बलता से मुझ पर विपत्ति है, किसी परपदार्थ के कारण मेरे को रंच भी विपत्ति नहीं । यही बात मिथ्यादृष्टि जीव के लिए भी है, पर वह समझ नहीं पाता । वह तो यही जानता है कि इस परपदार्थ के कारण मेरे को विपत्ति है, ज्ञान की कमजोरी के कारण मिथ्यादृष्टि जीव इस प्रकार से सोचता है । चाहे ज्ञानी हो, चाहे अज्ञानी हो, पर जो जितने संकट मान रहा है वह अपने ज्ञान के विपरिणमन से मान रहा है, बाहरी पदार्थ के कारण सकट नहीं है । तो पहले सम्यग्ज्ञानरूपी जल से अपने आपको शांत करें और इसी ज्ञान को पाने के लिए वस्तु का स्वरूप समझा जाता है । अनंत द्रव्य है, प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र सत् हैं, प्रत्येक द्रव्य में अनंत शक्तियां हैं । प्रत्येक द्रव्य अपने आपके गुणों में परिणमन करता है । एक का दूसरे के साथ कोई संबंध नहीं, सब अपने-अपने में परिणम रहे हैं । ऐसा ज्ञानजल मिले तो तृष्णा, रंज, शोक आदि ये सब दूर हो जायें । किसी को प्यास की दाह लग रही हो तो पानी द्वारा ही तो वह अपनी प्यास बुझाता है । इन संसारी जीवों को तृष्णा की दाह लग रही सो वह ज्ञानजल से ही तो बुझ पायेगी दूसरा कोई उपाय नहीं ।
(281) आत्मशौर्य―भैया, इतना साहस तो बनाना ही चाहिए कि उदयानुसार जो हो सो हो, हमें वांछा कुछ नहीं है । जो परिस्थिति मिले उसी में गुजारा करने की मुझमें कला है । मेरा मुख्य कर्तव्य तो अपने को स्वरूप मात्र लखते रहना है, मैं ज्ञानमात्र हूँ । मेरे स्वरूप के बाहर मेरी कोई बात नहीं है, मेरे स्वरूप में किसी अन्य का प्रवेश नहीं है । मैं ज्ञान स्वरूपमात्र हूँ । मेरे में मेरा परिणमन चल रहा है । मेरे में किसी परपदार्थ का कोई दखल नहीं । मैं हूँ ज्ञानस्वरूप, तो मेरा परिणमन क्या हो रहा कि उस ज्ञान की वृत्तियां चलती रहती हैं । इससे बाहर मेरी ओर से मेरा कोई कार्य नहीं हो रहा, पर हो रहा है जो बिगाड़ का काम, सो सब कर्मउपाधि के संपर्क में हो रहा है ।
(282) परमार्थ अमृतपान―लोग तो यों कहते हैं कि अमृत का पान करो और अमर हो जावो । तो वह अमृत किसी ने देखा है क्या कि पानी की तरह है या डले की तरह, फल की तरह है? बताओ किसी ने अमृत देखा है क्या? यों तो इसके संबंध में अनेक लोग अनेक तरह की कथायें भी कहते हैं कि उसने उसको अमृत फल दिया, पर वह अमृत क्या चीज है उसकी कल्पना तो बनाओ । देखने की तो दूर बात रही । अगर कहो कि वह एक फल जैसा है तो ठीक है उसे खा लो, पर जो फल खाया जाने पर स्वयं मर गया, चटनी बन गया वह दूसरों को क्या अमर करेगा? अब यह जिज्ञासा होगी कि फिर अमृत नाम पड़ा क्यों, और अमृत चीज वास्तव में है क्या? तो ठीक है, अमृत है, और उस अमृत का पान अगर कोई कर लेवे तो अमर हो जाये यह भी बात है, पर वह अमृत बाहर कहीं नहीं है । रस, फल आदिरूप नहीं है, किंतु आत्मा के स्वरूप का जो सच्चा ज्ञान है वह अमृत है उसका नाम अमृत क्यों रखा गया? अमृत का अर्थ है न मृतं इति अमृतं । जो मरेगा नहीं, जो मरता नहीं, जो मरा नहीं उसका नाम अमृत है । तो आत्मा का जो ज्ञानस्वरूप है वह कभी मरता है क्या? कभी मरेगा क्या? नहीं, वह शाश्वत तो अमर है । वह है अमृत । उसका पान करना अर्थात् उसको ज्ञान में लेना और ज्ञान को, ज्ञानस्वरूप को ज्ञान में रखना यह ही अमृतपान है । सो यह कोई कर सकता है तो वह अमर हो गया । कैसे अमर हो गया? क्या यह शरीर छूटेगा नहीं? छूटने दो शरीर, वह शरीर वियोग को मरना मानता था इसलिए डरता था । अमर तो प्रत्येक जीव है । जीव कभी नष्ट नहीं होता, मगर मानता तो नहीं था कि यह मैं अमर हूं, मैं यह ज्ञानस्वरूप हूँ । देह को ही निरखकर पर्यायबुद्धि से जन्मना मरना मानता रहा । जिस क्षण इसे आत्मस्वरूप का बोध हुआ, यह सम्यग्ज्ञान प्रकट हुआ उसी क्षण उसका निर्णय कि मैं हूँ । अपने में हूँ, यही मेरा सर्वस्व है, इतनी ही मेरी दुनिया है, यह जहाँ रमेगा, जहाँ जायेगा वहाँ पूरा का पूरा है, इसका मरना कहां होता । तो जो इस सम्यग्ज्ञान जल को पी लेता है वह अमर हो जाता है और मिथ्यात्व संबंधी तृष्णा की दाह शांत हो जाती है ।
(283) देहमुक्त आत्मा का सर्वोपरि निवास―इस ज्ञानस्वरूप का अभ्यास बनाये रहने का फल क्या होता है, देह दूर होता है, कर्म दूर होते हैं, आत्मा अकेला रह जाता है, फिर वह आत्मा कहां रहता है? इसमें है ऊर्ध्वगमन स्वभाव । जैसे तूमड़ी में राख का वजन हो और पानी में डाल दिया तो नीचे डूबी रहती है जब उसकी राख धुल जाती है, केवल तूमी रह जाती है तो ऊपर पहुंचती है, ऐसे ही इस जीव के साथ कर्म का जब तक बंध है तब तक यहाँ वहाँ कहीं भी रहता है, कर्मबंध जब मिटता है, कर्मरज जब धुल जाती है, अकेला आत्मा रहता है तो ये एक ही क्षण में, एक ही समय में लोक के अंत में विराजमान हो जाते हैं, उसे कहते हैं शिवालय मायने मोक्ष का स्थान, तो ऐसे जीव शिवालय के वासी होते हैं और तीन लोक के वे सिरताज है । एक तो 3 लोक में ऊपर रह रहे यों ही सिरताज हैं, दूसरे―तीन लोक के सबके त्रिकाल के ज्ञाता बन गए हैं, सर्वज्ञ हुए है, इसलिए भी सिरताज । तो ऐसे ये जीव सिद्ध हो जाते हैं ।
(284) सहज परम ब्रह्मस्वरूप के आश्रय से सिद्धि की सिद्धि―सिद्ध जितने भी अब तक हुए वे इस ज्ञानस्वरूप (ब्रह्मस्वरूप) के आश्रय से ही हुए । तो हम आप भी अपने इस ब्रह्म स्वरूप का आश्रय लें, आत्मा के सहज स्वरूप को देखें । अहा, अपनी सत्ता के कारण वह ब्रह्म सहज ज्ञानानंदमय है, इसका जिन्होंने अभ्यास क्रिया, यह ही जिनके ज्ञान में रहा उन्होंने सिद्धि पायी, मुक्ति पायी । तो सर्वस्व कल्याण पाने की तो हम मूर्ति हैं, धर्मस्वरूप हैं, दृष्टि मात्र से वह काम बनता है, फिर भी वह काम न बनाया जाये तो यह मनुष्यभव पाना बेकार रहेगा, क्योंकि मरे के बाद तो न जाने कहां जन्में, कैसा जन्मे? जैसे गधे, घोड़े, सूकर, ये विह्वल विकल नजर आते हैं, ऐसे ही यदि हो गए तो फिर वहां क्या स्थिति बनेगी? आज मनुष्य हैं, श्रेष्ठ मन मिला है तो ऐसी सद्बुद्धि करें कि अपने आपके ब्रह्मस्वरूप का परिचय पा लें और इस ही में तृप्त रहने का अपना परिणाम बनायें । किसी अन्य बात में मुझको संतोष नहीं । मुझको तो सिद्ध होना है । चाहे कितने ही काल लग जाये, दूसरा कोई कर्त्तव्य ही नहीं मेरा कि जो अंतिम बात रहे । ऐसा पुरुष भाव संयुक्त होकर याने आत्मा के स्वरूप की दृष्टि करके तृप्त रहने की स्थिति पाकर सहज परमानंदमय शिवालय का वासी होता है ।