वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 1
From जैनकोष
णाणमयं अप्पाणं उवलद्धं जेण झडियकम्मेण ।
चइऊण य परदव्वं णमो णमोतस्स देवस्य ꠰।1꠰꠰
ज्ञानमय आत्मा को उपलब्ध करने वाले देव को नमस्कार―यह कुंदकुंदाचार्य द्वारा रचित मोक्षपाहुड़ नाम का ग्रंथ है । इसकी प्रथम गाथा में मंगलाचरणरूप में कहते हैं कि जिसने कर्मों का क्षय करके और परपदार्थों का त्याग करके ज्ञानमय आत्मा को प्राप्त कर लिया है उन सिद्ध परमेष्ठी देवों को मैं बारंबार नमस्कार करता हूँ । आत्मा का जो अपनी सत्ता के कारण स्वरूप है वही स्वरूप सही प्रकट हो जाना अर्थात् उसके साथ अन्य कोई उपाधि नहीं रहती, इसका नाम है मोक्ष । यह मोक्ष कर्मों के क्षय से प्राप्त होता है । कर्मों के उदय में संसार है तो कर्मों के क्षय में संसार का अभाव है तो संसार के अभाव का ही नाम मोक्ष है । तो जिन भव्य आत्मावों ने अष्टकर्मों का विनाश किया है वे मोक्षपद प्राप्त करते हैं । इन 8 कर्मों में चार तो हैं घातियाकर्म―(1) ज्ञानावरण (2) दर्शनावरण (3) मोहनीय और (4) अंतराय । इन चार घातिया कर्मों का नाश होने पर अरहंत अवस्था प्राप्त होती है । यह भी मुक्त जैसी ही अवस्था है । पर अघातियाकर्मों के रहने से देह का बंधन रहने से इसको मुक्ति नहीं कहते और साथ ही अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंत आनंद, अनंत शक्ति प्रकट हो जानें से इन्हें संसारी भी नहीं कह सकते । तो जैसा दृष्टि से देखा वैसा दृष्टि में आता है, पर एक शब्द से कहा जाये तो इनको जीवनमुक्त कहा जाता है । शेष बचे चार अघातिया कर्मों का नाश होने पर शरीर का भी विछोह हो जाता है सदा के लिए । अब नया शरीर न मिलेगा उस स्थिति में जो आत्मा रह गया, जो था सो ही रह गया उसका नाम है मोक्ष । मुक्त दशा में समस्त परद्रव्यों का त्याग है, परिहार है । शरीर नहीं, कर्म नहीं, रागादिक विभाव नहीं, ज्ञान की अधूरी दशा नहीं । सर्व गुण समृद्ध हो गए, उन सिद्ध भगवान को नमस्कार हो ।
परद्रव्यों के त्यागविषयक योग-प्रयोग―देखो, परद्रव्यों का त्याग, परद्रव्य तो परक्षेत्र में हैं, परद्रव्य तो अलग पड़े ही हैं, जो बाहरी द्रव्य धनवैभव आदिक हैं वे किसी के साथ लिपटे नहीं हैं । अगर कहो कि ये कपड़े तो लिपटे हैं तो ये कपड़े भी इस आत्मा से नहीं लिपटे हैं । देह के ऊपर संयोग है और जितने बाहर में पदार्थ हैं, धन वैभव मकान आदिक के सब इस आत्मा से जुदे हैं । कुटुंब परिजन मित्र ये भी प्रकट जुदे हैं । ये मुझसे चिपके हों तो मैं इनका त्याग करूं, चिपके तो हैं नहीं तो त्याग भी नहीं किया जा सकता । चिपके भी नहीं हैं ये, पर यह बाह्य पदार्थों के बारे में जो लगाव लगा रखा है, मोह बनाया है, इनको आपा माना जा रहा है उन भावों का त्याग करने का नाम बाह्यपदार्थों का त्याग है । साथ ही यह भी जानें कि जिसको यह ज्ञान है कि इन बाह्य पदार्थों पर उपयोग देने से रागमोह बढ़ता है, विकार जगता है इस कारण इनका त्याग कर देना चाहिए अर्थात् उस क्षेत्र को छोड़ देना चाहिए । अपने पास से इन बाह्य वस्तुओं को दूर कर देना या नियम द्वारा, संकल्प द्वारा प्रकट साफ कह देना यह त्याग है, यह भी कुछ सहयोग देता है, क्योंकि बाह्य पदार्थों का आलंबन उपयोग में ग्रहण करना यह विकार का कारण होता है । तो यद्यपि पूर्ण तथा नियम तो नहीं है कि बाह्य पदार्थों का त्यागकर ही दिया तो यहाँ भाव मोह हट ही गया लेकिन प्राय: ऐसा ही एक संबंध है अथवा एक नियोग है कि बाह्य पदार्थों का कोई त्याग कर दे तो वह आसा नहीं करता उस बाह्यपदार्थ की । जैसे जिसने रात्रिजल का त्याग कर दिया तो अब वह उसकी आसा नहीं रखता, और आसा न रखने से तद᳭विषयक उसको व्याकुलता भी नहीं होती । तो चरणानुयोग की प्रक्रिया से बाह्य पदार्थों का त्याग कर देना यह भावों को विशुद्ध बनाने में सहयोग देता है । जब और ऊपर चले जहाँ बाह्य द्रव्यों का त्याग कर ही दिया सब, मुनि अवस्था हुई है, अब वहाँ परद्रव्य और क्या रह गए ? देह, कर्मविकार ये तो अभी चले आ रहे हैं इसके बंधन में । तो इनका परिहार भी साथ चल रहा है । ये परद्रव्य हैं, इनका मेरे स्वरूप में सत्त्व नहीं है । प्रत्येक द्रव्य अपने-अपने सत्त्व से परिणमता है, ऐसा ज्ञान करके उनकी उपेक्षा करके निज अंतरंग में ज्ञानस्वभाव के अभिमुख होना यह उन पर द्रव्यों का त्याग है; और सिद्ध अवस्था में स्पष्ट त्याग है, न विकार है, न लगाव है, न कर्म हैं, न देह है, कुछ उनके साथ है ही नहीं । केवल ज्ञानमात्र चैतन्यमूर्ति, अनंतज्ञानी, अनंत आनंदमय, वह प्रभु का स्वरूप शोभायमान हो रहा है । उस सिद्ध देव को यहाँं नमस्कार किया है ।