वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 21
From जैनकोष
जो जाइ जोयणसयं दियहेणेक्केण लेवि गुरुभार ।
सो किं कोसद्धं पि हु ण सक्कए जाउ भुवणयले ।।21।।
अंतस्तत्त्व के ध्यान का सामर्थ्य―ऊपर की गाथा में बताया था कि जो शुद्ध आत्मा का ध्यान करता है तो जिस शुद्ध आत्मा के ध्यान से निर्वाण प्राप्त हो जाये उससे स्वर्ग की प्राप्ति हो जाये तो इसमें कौनसी कठिनाई है ? इसी का दृष्टांतपूर्वक यहाँ समर्थन किया है । जैसे कोई मनुष्य बहुत बड़ा बोझ लेकर भी 100 योजन चला जाता है तो वह पुरुष बोझ आधा योजन लेकर चला जाये तो इसमें कौनसी कठिनाई है ? ऐसे ही जो निकट भव्य शुद्ध आत्मा के ध्यान से निर्वाण को प्राप्त हो सकता है वह स्वर्गादिक को प्राप्त हो ले तो इसमें कौनसी कठिनाई होती है ? कितनी सुविधा है, कितनी सुगमता है कि समस्त सुखों का मूल उपाय एक ही है, कुछ अन्य सोचना ही नहीं । वह उपाय है शुद्ध आत्मा का ध्यान ।