वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 30
From जैनकोष
सव्वासवणिरोहेण कम्मं खवदि संचिद ।
जोयत्थो जाणए जोई जिणदेवेण भासियं ।।30।।
आस्रव की निष्पत्ति का विधान―समस्त आस्रव भावों के निरोध से संचित कर्म क्षीण हो जाते हैं । और यों परमयोग में स्थित योगीमात्र जानता है और केवलज्ञान प्राप्त करता है । किसी भी पदार्थ में विकार होते हैं तो यह समझना चाहिए कि कोई दूसरा पदार्थ सन्निधान में है, अन्य पदार्थों का संपर्क हुए बिना पदार्थ में विकार हो ही नहीं सकते, क्योंकि किसी भी पदार्थ का स्वभाव विकार के लिए नहीं होता । सो यद्यपि विकार हुआ है, विकार परिणमते उपादान की परिणति से, पर वह उपादान अपने में इस योग्यता के अनुसार कार्य कर पाया तो निमित्त-सन्निधान में । निमित्त कहते किसे हैं ? जो पदार्थ अत्यंत भिन्न हो किंतु जिसका विकार के साथ अन्वय-व्यतिरेक संबंध हो उसे निमित्त कहते हैं । तो क्रोधादिक कषायकर्म के होने पर ही जीव में कषायभाव बनते हैं और क्रोधादिक कर्म के न होने पर जीव में कषायभाव नहीं बनते । ऐसा अन्वयव्यतिरेक संबंध है और जीव से वे कर्म अत्यंत जुदे हैं, कर्म अचेतन है जीव चेतन है इसलिए अत्यंताभाव है । तो जो अत्यंताभाव वाले पदार्थ हों और जिनका विकार के साथ अन्वय-व्यतिरेक संबंध हो वे निमित्त कहलाते हैं ।
आश्रयभूत कारण बनने पर विकार की व्यक्तरूपता―अब यहाँ एक बात और जानने की है कि जो यह कहा करते हैं कि धन परिग्रह स्त्री पुत्रादिक में पंचेंद्रिय के विषयभूत साधन ये विकार के कारण हैं, सो इसका अर्थ क्या ? इसका अन्वयव्यतिरेक संबंध तो है नहीं कि स्त्री के सामने होने पर विकार हो और स्त्री के न होने पर विकार न हो ऐसा कोई संबंध तो है नहीं । अनेक पुरुषों के स्त्री पुत्रादिक नहीं हैं सामने तो भी विकार किया करते हैं और किसी के पुरुष स्त्री पुत्रादिक सामने हों तो भी विकार नहीं आता । तो जब अन्वयव्यतिरेक संबंध नहीं इन दृश्य पदार्थों के साथ तो ये विकार के कारण कैसे हो गए ? यह एक आशंका होती है । तो उसका समाधान यह है कि दिखने वाले ये समस्त पदार्थ, ये समागम में आये हुए समस्त भौतिक पदार्थ मेरे विकार होने के लिए निमित्त कारण नहीं हैं किंतु आश्रयभूत कारण हैं । इनका अंतर समझना बहुत लाभदायक है । आश्रयभूत कारण के मायने यह है कि मैं इनमें उपयोग लगाऊं तो ये कारण बनते हैं, इनमें उपयोग न लगाऊँ तो ये कारण नहीं हो पाते । तो उपयोग के जो विषयभूत बने ऐसे ये बाह्यपदार्थ विकार के आश्रयभूत कारण हैं और निमित्तकारण क्या है ? रागद्वेषादिक कर्मप्रकृतियां, इस तथ्य को जब तक नहीं जाना जाता तब तक एक भ्रम रहता है । आश्रयभूत कारण वास्तविक कारण नहीं है, और उनको निमित्त कहने की प्रथा भी है । तो यहाँ तक बुद्धि पहुंच जाती है कि देखो ! निमित्त जोड़ा पर कुछ विकार तो नहीं आया इसलिए निमित्त कारण व्यर्थ है, होता ही नहीं है । मात्र कह देते हैं पर यह नहीं जाना कि जिनका उदाहरण दे रहे हैं वे निमित्तकारण हैं ही नहीं । पंचेंद्रिय के विषयभूत पदार्थ ये मेरे विकार के निमित्त कारण नहीं, किंतु आश्रयभूत कारण हैं ।
आश्रयभूत कारण के परिचय से उसके परिहारपूर्वक कर्मक्षपण में प्रगति का मार्ग―विकार के लिए दो स्थितियां बनती हैं (1) एक तो निमित्त कारण और एक आश्रयभूत कारण ꠰ एक तो दोनों ही हों उस समय की विकार, और एक आश्रयभूत कारण न बने सिर्फ निमित्तकारण हो उस समय का विकार । ये दो तरह के विकार हुए आत्मा में । इनको व्यक्त और अव्यक्त विकार के नाम से कहा गया है । यदि आश्रयभूत कारण भी बन जाये तो वह विकार व्यक्त विकार कहलाता है और आश्रयभूत कारण न बन सके तो निमित्त का उदय होने पर प्रतिफलन तो हुआ मगर वह विकार अव्यक्त रहा । जैसे कोई पुरुष आत्मा के स्वरूप के ध्यान में लगा है, उसका उपयोग तो आत्मस्वरूप पर लगा है मगर कर्मोदय तो दनादन चल ही रहे । जब उनका संबंध है तो उदय चल रहा पर उदय चल रहा तो उनका प्रतिफलन भी चल रहा, मगर आश्रयभूत कारण नहीं बन सक रहा क्योंकि उसका उपयोग अपने आत्मा के ध्यान में है । इन विषयभूत पदार्थों में उपयोग नहीं गया, तो वे विकार व्यक्त न हो पाये, व्यक्त विकार न बन पाये, ऐसा पुरुषार्थ करने का उपदेश आचार्यों ने किया है । और इसीलिए चरणानुयोग में बताया है कि चरणानुयोग के अनुसार तुम इन विषयभूत पदार्थों का परिहार करो, त्याग करो । यह उद्यम विकार को जीतने का है, यद्यपि ऐसा करने पर भी, बाह्य पदार्थों को दूर करने पर भी ये विकार न हों यह नियम नहीं बना किंतु कुछ सहयोग मिला । न हो आश्रयभूत कारण सामने तो उस पर कुछ नियंत्रण रहता है, तो यहाँ यह बात कही गई है कि आश्रयभूत कारण का परिहार करें, मन से भी भुला दें तो व्यक्त विकार न होगा और ऐसी स्थिति में इस सहज कारण-समयसार का आश्रय करेंगे तो अव्यक्त विकार का निदान भी खतम हो जायेगा, और इस प्रकार समस्त आस्रवों के विरोध से कर्म का क्षय होता है ।
क्षोभरहित होने का एकमात्र उपाय सहज चित्स्वभाव का आश्रयण―एक बात तुरंत की यह ध्यान में लायें, कर्म की बात अभी जाने दो, बाह्य पदार्थ हैं, हैं नहीं क्या कैसे क्या-क्या, यह ख्याल भी न लायें, पर अपने में इतना अनुभव तो जगता कि जब मैं अनात्मपदार्थों पर इन बाहरी विषयों पर दृष्टि लगाता हूँ तो नियम से मेरे में क्षोभ होता हूँ और जब मैं अविकार स्वभाव इस सहज चैतन्यस्वरूप में आत्मत्व की भावना रखता हूँ तो क्षोभ नहीं होता । तो जो क्षोभ होने के विकल्प साधन हैं तो उन क्षोभों से क्षोभ की संतान बढ़ती है, और एक बार सहज शांति का अनुभव बने तो उससे फिर इस सहज शांति की प्राप्ति का एक सिलसिला बन जाता है । तो संकटों से दूर होने के लिए मात्र एक ही उपाय है । जैसे कोई समझदार वैद्य एक ऐसी औषधि तैयार करता है कि जो करीब 100 रोगों पर काम करे । दवा एक है और वह 100 प्रकार के रोगों को दूर करती है, वहाँ तो भेद हो भी सकता मगर आत्मकल्याण के उपायों में चाहे मुनि हो, चाहे श्रावक हो, सबकी एक ही प्रक्रिया है अंतरंग की । यह क्या है कि अपने सहजस्वरूप का आलंबन रखना, यह मैं हूँ इस प्रकार का दृढ़ प्रत्यय रहना, यही बात श्रावक के होती है जितने अंश में होती है उतने अंश में कर्म का क्षय होता है और यही बात मुनिराज के होती है, जितने अंश में होती है, वहाँ कर्मक्षय होता है, उपाय एक ही है कर्म के दूर करने का । दूसरा उपाय नहीं है ।
ज्ञानी के परिस्थितिवश व्यवहारधर्मों की विविधता―व्यवहारधर्म में जो अनेक उपाय नजर आ रहे हैं ये परिस्थितिवश नजर आ रहे । जैसे घर की परिस्थिति है कुटुंब में रहना, घर में रहना, व्यापार करना, अनेक सम्मान-अपमान की बातें देखना, ये अनेक परिस्थितियां हैं तो इन परिस्थितियों में रहने वाला ज्ञानी श्रावक अपने मात्र इस ध्येय को सीधा नहीं निभा पाता । कुछ स्थितियां होती हैं तो उन पर अनेक विकल्प लगते हैं, व्यसन में भी लग सकता । अनेक वासनायें लगती हैं तो उनका आक्रमण तत्काल निवारण करने का उपाय गृहस्थ के 6 आवश्यक बताये गए है―(1) देवपूजा, (2) गुरूपासना, (3) स्वाध्याय, (4) संयम, (5) तप और (6) दान । इन सद्भावों के होने पर वे व्यसन विकार दुर्भाव दूर हो जाते हैं, और जब व्यसन विकार ये पापभाव दूर हुए तो वहाँ ऐसी सुरक्षा है कि यह आत्मा अपने स्वरूप पर ध्यान बना सकता है । मुनिराज के आरंभ नहीं, परिग्रह नहीं, कुटुंब नहीं, कमाना नहीं, कुछ अपने स्वरूप की सुध का लक्ष्य है इस कारण उनके अधिक विकल्प नहीं चलते, फिर भी कर्मविपाकवश या जितना भी शिष्यादिक का समागम हैं उतने रूप में विकल्प चलते हैं । तो इस आक्रमण का उपाय उनके यहाँ अन्य प्रकार के 6 आवश्यक बताये गए हैं―(1) समता (2) वंदना, (3) स्तुति, (4) प्रतिक्रमण, (5) स्वाध्याय और (6) कायोत्सर्ग । तो ये जो व्यवहार में कर्तव्यों के भेद पड़े हैं ये परिस्थितिवश भेद हो गए । पर जिस उपाय से कर्म कटते, दूर होते हैं, वह उपाय सबमें एक ही है । वह उपाय है अपने को सहजचैतन्यस्वरूप अनुभवना । इन उपायों से कर्म बनना भी रुकता है और संचित कर्म का भी क्षय होता है ।
कर्मबंधन का मूल कारण मोहविचेष्ठितता―उक्त उपाय के विरुद्ध यदि चेष्टायें हों तो उनसे कर्म बंधते हैं और उदय में आये हुए कर्म खिरते तो हैं पर वह निर्जरा नहीं कहलाती, क्योंकि कर्म खिरे और बंध गए, यदि कर्म बंधे नहीं, तो निर्जरा कहलाये । तो वह भाव क्या है ? उन भावों का मुखिया तो है मिथ्यात्व । मैं अमुक लाल हूँ, अमुक प्रसाद हूँ, अमुक चंद हूँ, अमुक जाति का हूँ, अमुक जगह का रहने वाला हूँ, मैं श्रावक हूँ, मुनि हूँ, समझदार हूँ आदिक किसी भी प्रकार का जो अनात्मत्व में स्व का अध्यवसाय है, भ्रम है वह कर्मबंध का हेतुभूत है । मुनि होकर भी तो यदि यह भाव रहे कि मैं मुनि हूँ तो उसके मोह नहीं गला, क्योंकि वह इस देह को, नग्न देखकर कह रहा कि मैं मुनि हूँ । तो देह को निरखकर बहिरात्मा भी कहता है कि मैं मनुष्य हूँ, तिर्यंच हूँ आदिक । तो यह नग्न देह को देखकर एक ने यह माना कि मैं मनुष्य हूँ तो भले ही थोड़ा व्यवहार में अंतर दिखता हो, मगर जो ढंग है उसकी अपेक्षा अंतर नहीं । वहाँ भी मोह मिथ्यात्व है और यहाँ भी मोह मिथ्यात्व रहा ।
ज्ञानी का तत्त्वमनन―मुनि को अपने बारे में कैसा श्रद्धान रहता है कि मैं चैतन्यमात्र हूँ और इस ही की धुनि रखता मुनि कि मैं सहज चैतन्यस्वरूप का ही ज्ञान बनाये रहूं और उसी में ही आत्मत्व का अनुभव करता रहूं और इसी के लिए मैं व्रत तप समिति आदिक का पालन करता हूँ । कितना विरक्त है श्रावक ज्ञानी सम्यग्दृष्टि और कितना विरक्त है मुनि, इन दोनों की विरक्ति पर ध्यान दें तो आंतरिक जो मूल विरक्ति है, जो ढंग है, जो शैली है उसमें कुछ अंतर नहीं, हां, जो विरक्ति की मुद्रा बनती है उसमें अंतर है । सो वह भी अन्य परिस्थितिवश है । ज्ञानी श्रावक भी समस्त बाह्य पदार्थों से विरक्त है अर्थात् उनमें लगाव नहीं रखता और उनके राग से राग नहीं चलता और मुनि उसका परिग्रह त्याग होने पर जितना समागम है वह उससे विरक्त रहता है । श्रावक के समागम अधिक है सो उसे सर्व समागमों से विरक्त रहना पड़ता है और मुनि के समागम कम है, सो वह उनसे विरक्त रहता है । इस प्रकार का अंतर तो दोनों में है मगर ज्ञान का काम है कि अपने ही आत्मा में आत्मत्व मना देना और समस्त पर से विरक्ति लाना ꠰ यह श्रावक के भी हुआ और मुनि के भी हुआ, पर परिस्थितिवश अंतर यह है कि श्रावक आत्मानुभव कदाचित् कभी-कभी अल्प समय को कर पाता है और मुनि विशेषतया जब चाहे क्षण-क्षण में आत्मानुभव के प्रकरण लाता रहता है । तो कार्य एक ही करना है हम आपको मोक्षमार्ग में बढ़ने के लिए कि निज सहज चैतन्यस्वरूप में यह मैं हूँ ऐसा सत्याग्रह रखना और जो अनात्मभाव हैं उनसे असहयोग रखना । तो अनात्मतत्त्व से असहयोग और सहज आत्मस्वरूप का सत्याग्रह, ये दोनों उपाय परस्पर एक दूसरे को बढ़ाते हुए मोक्षमार्ग में ले जाते हैं । अब इसके लिए चाहिए कुछ थोड़ा तत्त्वज्ञान । इतनी तो समझ होनी ही चाहिए कि ये बाह्यपदार्थ क्या पदार्थ हैं और इनके गुण क्या हैं और इनका परिणमन क्या है और किस प्रकार से होते रहते हैं, मैं द्रव्य क्या हूँ, मेरे में गुण (शक्ति) क्या हैं और मेरे परिणमन किस ढंग से क्या-क्या होते रहते हैं, इस प्रकार स्व और पर का स्वरूप जानने में आये तो “निज को निज पर को पर जान, फिर दुःख का नाहिं लेश निदान ।” निशान चाहे रहा आये, पर निदान नहीं रह सकता । वह निशान ही नीचे से हटा दिया गया तो तत्त्वज्ञान का हमारे ज्ञान में प्रभाव बनेगा और हम वह संस्कार बना पायेंगे कि इस भव के गुजरने के बाद भी हम धर्म से संस्कृत रह सकेंगे ।
दुर्लभ सुमानवभव का सदुपयोग करने का अनुरोध―एक मोटी-सी बात है कि हम आपको जो कुछ भी आज बाह्यवस्तुओं के समागम मिले हैं सो सब जानते हैं कि मरण के बाद रंचमात्र परमाणु मात्र भी कुछ साथ जाता नहीं । तो जो कुछ दिन बाद ऐसी स्थिति बनेगी कि मैं अकेला ही जाऊंगा और ये समागम परमाणुमात्र भी मेरा साथ न देंगे तो यह बात अभी से ज्ञान में बनाये रहें तो फिर उन समागमों में आसक्ति न रहेगी । फिर दूसरी बात यह भी देखिये कि जितने काल बाह्य पदार्थों का समागम बना हुआ है उतने काल भी हम क्या शांति का लाभ पाते हैं या क्षोभ की बात पाते हैं ? ये वैषयिक सुख जो पंचेंद्रिय द्वारों से उत्पन्न होते हैं । ये वैषयिक सुख क्षोभ हुआ था तब विषयसुखों में प्रवृत्ति हुई । क्षोभ हो रहा है वैषयिक सुखों की प्रवृत्ति में और उन वैषयिक सुखों को भोगने के बाद भी उसको क्षोभ रहेगा । तो जिसको जगत् के मोही प्राणी सुख मानते हैं उस सुख के आदि में क्षोभ, उस सुख में वर्त रहे में क्षोभ और उस सुख के बाद में भी क्षोभ । और इसके अतिरिक्त इन प्रसंगों में जो कर्मबंध कर लिया गया है उनके उदयकाल में आगे भी क्षोभ । तो इन बाह्य वस्तुओं का समागम मेरे हित के लिए नहीं है । मुझे अपना ही स्वरूप जानना होगा और अपने ज्ञानमात्र अंतस्तत्त्व में ही गुप्त और संतुष्ट होना होगा अन्यथा जैसे अब तक संसार में जन्म-मरण करते हुए भ्रमते आये हैं यही परंपरा हमारी रहेगी । अब कुछ अपनी वर्तमान सुविधा पर भी दृष्टि करें, यह जीव अनंतकाल निगोद में रहा । निगोद होता है साधारण वनस्पति का जीव, जहाँ एक श्वास में 18 बार जन्म-मरण होता है, और श्वास भी सुख वाली नहीं किंतु निरोग पुरुष के हाथ की नाड़ी एक बार में जितने समय को उचकती है उतने से श्वास में 18 बार जन्ममरण होता है, जिसका प्रमाण एक सेकेंड में करीब 22-23 बार जन्ममरण हो जाता है । ऐसी जहाँ दुर्दशा है उसमें हम आपने अनंतकाल खोया, वहाँं से निकले तो पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु वनस्पति आदिक एकेंद्रिय में जन्म लिया । सो वह भी कैसी दुर्दशा है सो तो देख ही रहे हो ? इससे कुछ आगे बड़े तो दोइंद्रिय, तीनइंद्रिय, चारइंद्रिय आदिक में जन्म लिया, सो उन कीड़ा-मकोड़ों की हालत को भी देख लो, कैसी उनकी दयनीय दशा है । पंचेंद्रिय हुए तो मानो पशु-पक्षी खोटे नारकी कुदेव भी हुए तो वहाँ भी इस जीव ने कभी शांति का मार्ग न पाया । आज हम आप उत्तम मनुष्य हुए, भले ही यह पंचमकाल है, भले ही हीन संहनन है, पर आज जैसे समागम पाये वे सब दुर्लभ समागम हैं । मनुष्यभव पाया, अच्छे कुल में जन्म पाया और गुजारा करने की सब सुविधा भी पायी, इतना सब कुछ पाने के बाद और जैनशासन पाने के बाद जैन, तत्त्वों को समझने की योग्यता पाने के बाद यदि हम तत्त्वज्ञान के रुचिया न बन सके और यथार्थ तत्त्व में उपयोग नहीं लगाते और अपने परमार्थस्वरूप में अपना अनुभव नहीं करते तो यह मनुष्यभव पाना बिल्कुल बेकार है । इससे हमने कोई लाभ नहीं उठा पाया ।
प्रभुभक्ति, सत्संग व स्वाध्याय के उपायों से विशुद्धि में बढ़कर सहज चित्स्वभाव के अनुभवन का अनुरोध―प्राप्त सुमानभव का लाभ पाने के लिए तीन बातें करनी होंगी । (1) स्वाध्याय (2) सत्संग और (3) प्रभुभक्ति और प्रभुभक्ति का ही निकट का रूप है गुरुभक्ति । तो भक्ति, सत्संग और स्वाध्याय अब इन तीन बातों में अपनी बात तो सोचिये कि हम इसको कर पाते हैं या नहीं करते । यदि नहीं करते तो यह बहुत बड़ा प्रमाद है और इस प्रमाद में जैसे इतनी उमर खोयी, ऐसे ही प्रमाद चलता रहे तो यह सब खो दिया । इस कारण जितनी उम्र में जिस समय कुछ अपने आत्मतत्त्व का बोध जगे, आत्महित की भावना बने तो उसको उसी समय से यथाशक्ति उसका प्रायोगिक रूप दे देना चाहिए । वह महाभाग है, धन्य है जिसके चिरकाल बहुत समय ऐसी प्रतीति रहे कि मैं देह कर्मादिक सब जग से न्यारा हूँ, अखंड एक चैतन्यमात्र हूँ, ऐसा अपना अनुभव बनायें तो यह है वास्तविक धर्मपालन, यह तो खुद के सोचने की बात है । कोई भी प्राणी दूसरे को धर्मपालन नहीं करा सकता । खुद का ही सम्यक्त्व हो, खुद का ही ज्ञान हो,खुद का ही रमण बने, तो धर्मपालन होगा । धर्मपालन यह खरीद से भी नहीं होता, अन्य के प्रयोग से भी नहीं होता है, यह तो स्वयं समझना होगा । तो ऐसे अंतस्तत्त्व में उपयोग रहे तो सर्व आस्रवों का निरोध हो जाता है । फिर कार्माणवर्गणाओं में कर्मत्व नहीं आता । जो आया उसकी गिनती नहीं, वह अति अल्प और पहले बंधे हुए कर्म उसके अधिक-अधिक रूप से खिरते रहते हैं । यह सब है केवल आत्मश्रद्धान का प्रताप । बार-बार इस ध्यान में आना है कि मैं केवल चैतन्यमात्र पदार्थ हूँ, इस मुझसे बाहर मेरा कहीं कुछ नहीं है । बाहर का कोई पदार्थ मुझ से विकार नहीं कराता, मैं ही अपने स्वरूप को भूलकर बाह्य पदार्थों में लगता हूँ तो विकार जगते हैं । तो जितना अधिक दृष्टि अपने आत्मतत्त्व पर रहेगी हम उतना ही जागरूक रहेंगे अपने अंतस्तत्त्व में और निर्वाध निर्विघ्न हम मोक्षमार्ग में बढ़ सकेंगे । बात एक ही सोचना है कि मैं सहजचैतन्यमात्र हूँ, अन्य कुछ नहीं हूँ, मामा, मामी, नाना, नानी, दादा, दादी आदि ये कुछ नहीं हूँ । मैं तो निज सहज चैतन्यमात्र हूँ ।