वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 74
From जैनकोष
सम्मत्तणाणरहिओ अभव्यजीवो हु मोक्खपरिमुक्को ।
संसारसुहे सुरदो ण हु कालो भणइ झाणस्स ꠰꠰74꠰।
सम्यक्त्वज्ञानरहित मोक्षपरिमुक्त संसारसुखसुरत अभव्यजीवों का स्वच्छंद वचन―वे कैसे जीव हैं जो यह कहते हैं कि आज का समय ध्यान का नहीं है, वे सम्यग्दर्शन,सम्यग्ज्ञान से रहित हैं ꠰ ध्यान किसका किया जाना चाहिए, यही जिसको मालूम नहीं है,आत्मा की सुध नहीं है, आत्मा का अनुभव नहीं बना । तो जिनको सम्यग्दर्शन नहीं,सम्यग्ज्ञान नहीं, ऐसे ही पुरुष ध्यान का काल नहीं है यों कहा करते हैं । वे अभव्य जीव हैं, उनका होनहार भला नहीं है । अभव्यों को तो कभी भी ध्यान का काल नहीं आता । मोक्ष की श्रद्धा से युक्त मोक्ष किसे कहते, यह जिसकी समक्ष में आ जाये उसकी समझ में आत्मस्वभाव भी आ जायेगा । मोक्ष कहते हैं शरीर, कर्म, विकार से रहित होकर केवलज्ञान स्वभावमात्र रहना, ज्ञान का शुद्ध परिणमन होते रहना, ऐसी स्थिति को मोक्ष कहते हैं । उनको अपने में यह भी भान हो जाता कि यह मैं आत्मा वास्तव में अपने ही स्वरूपमात्र हूँ और सत्त्व के कारण मैं अपने में परिणमता रहता हूँ । मैं अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव स्वरूप हूँ, अन्य पदार्थों से अत्यंत निराला हूँ । ऐसा अपने स्वरूप का बोध होता है, और यहीं अपने इस स्वरूप में उपयोग बनाये रहने से उनको आनंद की अनुभूति होती है । उनके कर्म का क्षय होता है, पर जिनको मोक्षतत्त्व की श्रद्धा नहीं, मोक्ष से विमुख हैं वे जीव कहते हैं कि आज ध्यान का समय नहीं है । जो संसार के सुखों में लीन हैं वे ही तो ऐसा कहेंगे क्योंकि उन्हें आत्मस्वरूप की सुध ही नहीं है । वे ज्ञान ध्यान की बात ही क्या करेंगे? सभी मनुष्य सुख चाहते हैं, सुख के मायने मोक्षसुख नहीं, किंतु संसार में दिखने वाला यह लौकिक वैभव वाला सुख । और यह सुख जिन्हें मिला है उस सुख में जो लीन हो रहे हैं उन लीन हो रहे पुरुषों को आत्मा का, भगवान का, ध्यान का, ज्ञान का कुछ पता नहीं, और न वे पता करना चाहते हैं । तो जो जीव संसार-सुखों में लीन हैं वे ही पुरुष कहा करते हैं कि ध्यान का समय नहीं है ।