वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 84
From जैनकोष
पुरिसायारो अप्पा जोई वरणाणदसणसमग्गो ।
जो झायदि सो जो जोई पावहरो भवदि णिद᳭दंदो ।।84।।
आत्मा की पुष्पाकारता व दर्शनज्ञानसमग्रता―पुरुषाकार याने अपने देह में निरंतर आत्मा का अनुभव होना, यह जीव अमूर्त हैं, इसमें रूप, रस, गंध, स्पर्श नहीं है और अखंड है, फिर भी जितना देह है उतने प्रमाण इसका विस्तार है । देह भी उतना बड़ा है मगर देह अखंड द्रव्य नहीं है । इसका छेदन-भेदन हो जाता है, हिस्से हो जाते हैं, अलग-अलग दिख भी रहे हैं, और कितने इसमें द्रव्य हैं? देह में जितने परमाणु हैं उतने द्रव्य हैं । अनंतानंत द्रव्यों का समूह है यह शरीर, मगर जीव है एक-एक अखंड, वह एक द्रव्य मिलकर नहीं बना है, सबको अपने आपमें मैं का अनुभव हो रहा । अहंप्रत्ययवेद्य मैं हूँ, सुखी हूँ, दुखी हूँ, किसी भी प्रकार का अनुभव हर एक को चल रहा । वह मैं एक अखंड चैतन्य पिंड हूँ और इस देह बराबर फैला हुआ हूँ । दर्शन-ज्ञानस्वरूप हूँ, स्वभाव है यह जीव का । खुद में जगमग और अन्य पदार्थों की फोटो आना ꠰ ये दो बातें जैसे दर्पण में देखी जाती हैं, ऐसे ही मैं आत्मा अपनी खुद की झलक वाला हूँ, इसे कहते हैं दर्शन और अनेक बाह्य पदार्थों का फोटो वाला हूँ अर्थात् अनेक पदार्थों का जानने वाला हूँ, इसे कहते हैं ज्ञान । मैं दर्शन-ज्ञानस्वरूपी हूँ । खूब परख लो, इस आत्मा का किसी दूसरे जीव के साथ संबंध है क्या कुछ? भले ही लग रहा गृहस्थ को घर में रहकर कि मेरा यह पुत्र हे, यह अमुक है, यह तमुक है, पर इस जीव का किसी दूसरे जीव के साथ कोई संबंध भी है क्या? कुछ भी संबंध नहीं, सर्व स्वतंत्र-स्वतंत्र सत्ता वाले जीव हैं, फिर कौन-सी गुंजाइश है ऐसी कि जो किसी को माना जाये कि यह मेरा है? जरा भी गुंजाइश नहीं है, पर जिनके अज्ञान छाया है वे मानते हैं कि मेरे हैं । मेरा तो मेरा स्वरूप है, अन्य कुछ नहीं है, यह मानता है ज्ञानी, वह स्वरूप है दर्शन-ज्ञानस्वरूप, चैतन्यस्वरूप, इसका बाहर से कुछ मतलब नहीं । अतएव ज्ञानी पुरुष बाहर में लोगों से अपने लिए कुछ नहीं चाहता । और दूसरों की लौकिक बढ़वारी देखकर, यश देखकर, श्रीमंतपना देखकर ज्ञानी जीव कभी झुरता नहीं है, बल्कि उसके चित्त में तो यह बात है कि ये लोग बड़े संकट में पड़े हैं । जो नामवरी के चक्र में हैं, नामवरी की धुन में हैं वे पुरुष तो बड़े चक्कर में फंसे हुए हैं, यों निरखता है ज्ञानी । झुरना या ईर्ष्या करना यह बात तो होती ही नहीं ज्ञानी की, क्योंकि वह जानता है कि बाहरी बातें, समागम, इस जीव के लिए असार हैं । मेरे को सार तो मेरा स्वरूपदर्शन है, वह स्वरूप है दर्शन-ज्ञानस्वरूप ।
दर्शनज्ञानसमग्र योगियों की पापहरता व निर्द्वंदता―दर्शनज्ञानसमग्र ये योगी पुरुष पाप को हरने वाले हैं । कैसे पाप को हरते हैं योगी? जैसे एक म्यान में दो तलवार नहीं समाती ऐसे ही एक उपयोग में शुद्धस्वरूप और पाप की बात―ये दो नहीं समा सकते । जहाँ शुद्ध स्वरूप समाया हुआ है वहाँ पाप-परिणाम होता ही नहीं है और जो संस्कार बना है वह भी नष्ट हो जाता है । सो पाप को हरने की जरूरत नहीं है, किंतु अपने स्वरूप में उपयोग जमाने की जरूरत है, पाप स्वयं दूर हो जाता है । कर्मों का क्षय करने के लिए कर्मों को कुछ देखना नहीं है, कर्मों को कुछ कहना नहीं है, किंतु अपने स्वरूप में अपनी दृष्टि होने से ही वे कर्म स्वयं अपने आप क्षीण हो जाते हैं, सो ये योगी पाप के हरने वाले हैं और निर्द्वंद्व हैं, द्वंद्व रहित हैं । सीधा अर्थ है कि इसके उपयोग में सिवाय आत्मस्वरूप के दूसरी कोई बात संभव होती नहीं है, कोई द्वंद्व न रहा, द्वंद्व क्या चीज होती? द्वंद्व का कोई स्वरूप तो बताये कि द्वंद्व इसका नाम है । दूसरी चीज में चित्त देना इसका नाम द्वंद्व है । द्वंद्व में दूर होना है तो दूसरी चीजें ही चित्त में न आयें, केवल एक निजसहज चैतन्यस्वरूप अंतस्तत्त्व, यही ध्यान में रहे तो उसके द्वंद्व न रहा । तो ऐसे योगीपुरुष इस परमात्मस्वरूप का ध्यान करते हैं ।