वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 4-25
From जैनकोष
सारस्वतादित्यवह्नयरुणगर्दत्तोयतुषिताव्यावाधारिष्टाश्च ।। 4-25 ।।
ब्रह्मलोकांत के दिशा विदिशा में आवासी लौकांतिक देवों का परिचय―ब्रह्मलोक के आठों ही दिशाओं विदिशाओं में ये 8 प्रकार के लौकांतिक देव रहते हैं जिनका नाम हैं―सारस्वत, आदित्य, वह्नि, अरुण, गर्दतोय, तुषित, अव्यावाध और अरिष्ट । उत्तर व पूर्व दिशा के बीच सारस्वत रहते हैं पूर्व में आदित्य, पूर्व दक्षिण कोण में वह्नि, दक्षिण में अरुण । इसके बाद प्रत्येक विदिशा और दिशा में क्रम से शेष प्रकार के लौकांतिक देव रहते हैं, यह लगा लेना । इनका यह निवास स्थान कहाँ पर है, सो इसे इस तरह समझना कि मध्यलोक में जहाँ अरुण समुद्र है वहाँ से गोल चूड़ी के आकार में ही ऊपर अंधकार चला गया है । सो जैसे-जैसे ऊँचा उठता गया वैसे ही वैसे क्रम से उसका विस्तार बढ़ घट कर मध्य और अंत में संख्यात योजन मोटा रह गया । यह अंधकार जहाँ तक ब्रह्मलोक के करीब अंत तक गया है उसके ऊपर भाग में चारों दिशाओं में 2-2 राशियाँ निकली हैं उनके मध्य ये सब लौकांतिक देव रहते हैं ।
अन्य सोलह प्रकार के वर्ग के लौकांतिक देवों का परिचय―इस सूत्र में दो पद हैं । एक में तो 8 ही प्रकार के लौकांतिक देवों का नाम रखकर द्वंद्व समास आ गया है, और दूसरा पद है च । च का अर्थ है और । इस च शब्द से यह बात भी ध्वनित होती है कि इन 8 प्रकार के लौकांतिक देवों के अतिरिक्त और भी लौकांतिक देव होते हैं, याने दिशा विदिशाओं में ये 8 प्रकार के लौकांतिक देव तो हैं ही, मगर एक लौकांतिक से दूसरे लौकांतिक देव के आवास के बीच में जो स्थान है वहाँ भी लौकांतिक देव रहते हैं । और वह इस प्रकार है कि सारस्वत एवं आदित्य के अंतराल में अग्न्याभ व सूर्याभ नाम के वर्ग के लौकांतिक देव रहते हैं । आगे आदित्य और वह्नि नाम के लौकांतिक देवों के अंतराल में चंद्राभ और सत्याभ वर्ग के देव रहते हैं । फिर वह्नि और अरुण लौकांतिक देवों के अंतराल में श्रेयस्कर क्षेमंकर वर्ग के देव रहते हैं । इससे आगे अरुण और गर्दतोय जाति के लौकांतिक देवों के अंतराल में वृषभेष्ठ कामचार वर्ग के लौकांतिक देव रहते हैं । इसके बाद गर्दतोय और तुषित जाति के लौकांतिक देवों के अंतराल में निर्माणरज और दिगंत रक्षित वर्ग के लौकांतिक देव रहते है । इसके बाद तुषित और अव्यावाध लौकांतिक देवों के अंतराल में आत्मरक्षित और सर्वरक्षित वर्ग के देव रहते हैं । इसके बाद अव्यावाध और अरिष्ट जाति के लौकांतिक देवों के अंतराल में मरुत और वसु वर्ग के लौकांतिक देव रहते हैं । इसके बाद अरिष्ट और सारस्वत के अंतराल में अश्व और विश्व वर्ग के लौकांतिक देव रहते हैं । ये जितने नाम बताये गए हैं ये नाम सब विमानों के हैं और विमानों में रहने वाले देवों के भी साहचर्य के कारण ये ही नाम होते हैं ।
लौकांतिक देवों की संख्या―यहाँ इनकी संख्या इस प्रकार जानना कि सारस्वत तो 700 हैं और आदित्य 700, वह्नि 7007 हैं, अरुण भी उतने ही हैं । गर्दतोय 9009 हैं, तुषित भी उतने ही हैं । अव्यावाध 11011 हैं । अरिष्ट भी उतने ही हैं । इसके अतिरिक्त जिन लौकांतिक देवों को च शब्द से बताया गया था उनकी संख्या इस प्रकार है । अग्न्याभ के देव 7007 हैं, सूर्याभ देव 9009 हैं, चंद्राभ ये देव 11011 है, सत्याभ में 13013 हैं, श्रेयष्कर में 15015 हैं, क्षेमंकर में 17017 हैं, वृषभेष्ठ में 19019 हैं, कामचर में 21021 हैं निर्माणरज में 23023 हैं, दिगंतरक्षित में 25025 हैं, आत्मरक्षित में 27027 हैं, सर्वरक्षित में 29029 हैं, मरुत में 31031 हैं वसु में 33033 हैं अश्व में 35035 हैं, विश्व में 37037 हैं, ये सभी 24 प्रकार के लौकांतिक संघ सब मिलकर 407806 है ।
लौकांतिक देवों की देवर्षिता, विषयविरतता श्रुतज्ञता व एकभवावतारिता―ये सभी लौकांतिक देव स्वतंत्र हैं । इनमें न कोई हीन है, न कोई अधिक है । ये सभी विरक्त देव हैं । विषयों में इनको रंच भी प्रेम नहीं है, इसी कारण ये देवर्षि कहलाते हैं और अन्य देवों के लिये ये पूज्यनीय हैं । 14 पूर्व के धारी हैं, निरंतर ज्ञानभावना में ही मन लगाते रहते हैं, संसार से उद्विग्न रहते हैं, अनित्यभावना, अशरणभावना आदिक बारह भावनाओं में इनका चित्त लगा रहता है । ये अपनी साधना को छोड़कर कहीं विहार नहीं किया करते । केवल तीर्थंकर जब विरक्त होते हैं, उनका तपकल्याणक होता है उस समा तीर्थंकर की विरक्ति का समर्थन करने के लिये और उस विरक्ति पर प्रसन्नता दर्शाने के लिये ये मध्य लोक में आते हैं । इन देवों के ऐसा ही उत्कृष्ट भाव है जो मनुष्य ब्रह्मचर्य की भावना संसार से उद्वेग व केवल आत्ममनन की दृढ़ भावना वाले होते हैं ऐसे ही लोग इन लौकांतिक देवों में उत्पन्न होते हैं । इनका नाम लौकांतिक है । ये एक भवावतारी हैं । जैसे कि दक्षिण इंद्र, लोककाल सर्वार्थसिद्धि के देव आदिक ये एकभवावतारी हैं । इसी तरह ये भी एक भवावतारी हैं । लौकांतिक देव समस्त श्रुत के जानकार होकर भी याने 11 अंग 14 पूर्व के जानकार होकर भी श्रुतकेवली नहीं कहलाते । जैसे कि इंद्र इतना वृहस्पति होकर भी श्रुतकेवली नहीं कहलाता, इसका कारण यह है कि अंग बाह्य और अन्य भेद के श्रुत इनके नहीं है और संयम भी नहीं है । ये लौकांतिक पवित्र देव हैं, सभी सम्यग्दृष्टि होते हैं । संयम न होने पर भी संयम की निरंतर भावना रहती है । संयमी अंतरात्माओ के प्रति इनका आदर रहता है और ये निरंतर आत्मानुभव, आत्मचर्चा के प्रति ही इच्छुक रहते हैं । इनका उपयोग इतना विशुद्ध है कि इनके व्यर्थ के मायाजाल के विकल्प होते ही नहीं हैं । ऐसा इन लौकांतिक देवों का प्रसंग पाकर वर्णन किया गया है ।