वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 5-1
From जैनकोष
अजीवकाया धर्माधर्माकाश पुद्गला: ........।। 5-1 ।।
अजीवकायों की संज्ञा व अजीवकाय शब्द का वृत्त्यर्थ―धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल ये 4 अजीवकाय हैं । धर्मद्रव्य उसे कहते हैं जो जीव और पुद्गल के चलने में निमित्तभूत हो । अधर्मद्रव्य उसे कहते हैं जो चलते हुए जीव पुद्गल के ठहरने में निमित्त कारण हो । आकाश द्रव्य उसे कहते हैं जो समस्त द्रव्यों का अवगाह देने में कारण हो, और पुद्गल द्रव्य उसे कहते हैं जिसमें रूप, रस, गंध, स्पर्श पाये जायें । तो ये धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल ये 4 अजीवकाय हैं । अजीवकाय का अर्थ हे, अजीव होते हुए काय है अर्थात अजीव है और अस्तिकाय है । यहाँ यह समानाधिकरण वृत्ति है, कर्मधारय समास है । विशेषण विशेष्य के साथ जहाँ समास होता है वहाँ अन्य की व्यावृत्ति होती है । जैसे अजीव तो 5 हैं मगर वे सभी अस्तिकाय नहीं हैं । और अस्तिकाय भी 5 हैं मगर वे सभी अजीव नहीं है । तो अजीव होते हुए काय हो, ऐसे ये 4 पदार्थ ही है । जीव और काल अजीवकाय नहीं हैं । यद्यपि जीव अस्तिकाय है किंतु अजीव नहीं । कालद्रव्य अजीव है किंतु अस्तिकाय नहीं । अजीव होते हुए जो अस्तिकाय है वह ये 4 द्रव्य ही हैं ।
अजीवकाया: पद में भिन्नाधिकरण वृत्ति समास में भी अनापत्ति का सोदाहरण विवरण―यहाँ यह जिज्ञासा होती है कि अजीव काय का समास समानाधिकरणरूप में किया है । यदि भिन्नाधिकरण रूप में समास किया जाये तो क्या हानि है? भिन्नधिकरणपने का अर्थ है जिसमें दोनों भिन्न हों । जैसे राजपुरुष, इसमें समास है राजा का पुरुष । तो ऐसे ही अजीवकाय, यहाँ समास कर दीजिए, जीवों की काय । तो इस प्रकार भिन्नाधिकरण करने से क्या हानि है । तो उत्तर यह हो सकता है कि भिन्नाधिकरण करने पर इसमें भिन्नता आ जायेगी । अजीव के काय, ऐसा बोलने पर अजीव कोई अलग चीज है, अस्तिकाय कुछ अलग चीज है, ऐसा अर्थ हो सकता है । जैसे राजपुरुष राजा अलग मनुष्य है और नौकर आदिक अलग मनुष्य हैं, ऐसी भिन्नता का प्रसंग हो जायेगा । शंकाकार कहता है कि भिन्नाधिकरण करने पर भी भिन्नता का प्रसंग नहीं आता । जैसे कोई कहता है कि स्वर्ण की मुदरी (अंगूठी) तो समास तो है भिन्नाधिकरण करने वाला, तत्पुरुष समास, मगर स्वर्ण और अंगूठी ये जुदी-जुदी चीजें नहीं हैं । तो इसी प्रकार यहाँ भी अजीव की काय ऐसा कह देने पर भी भिन्नता न आयेगी । अब इस शंका का समाधान करते हैं कि यहाँ दृष्टांत में भिन्नाधिकरण वाला जो समास है वह अन्य विशेषों की निवृत्ति के लिये है । जैसे स्वर्ण की अंगूठी अर्थात् यह चांदी की अंगूठी नहीं है । न अन्य धातु की है । तो इसी तरह भिन्नाधिकरण समास भी कर दीजिये, और अर्थ यह लगा कि अजीव के काय, तो इस विशेषण से भी यह अर्थ हो गया कि ये चार अजीव के काय हैं, जीव के काय नहीं हैं, और इस तरह अगर तत्पुरुष समास भी करें तो भी कहीं कुछ विरोध नहीं आता । अब यहाँ भेद, अभेद की बात का विचार किया जाता है । ये चार पदार्थ अजीव भी हैं और अस्तिकाय भी हैं । यों अभेद होने पर भी कथंचित इनमें भेद जाना जाता है । यदि सर्वथा अभेद हो तब कुछ व्यवहार भी न बन सकेगा । तो अजीव और अस्तिकाय इनमें संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन आदिक के द्वारा भेद उत्पन्न होता है । जैसे स्वर्ण की अंगूठी ऐसा कहने पर स्वर्ण तो हुआ एक सामान्य और अंगूठी हुआ स्वर्ण का विशेष तो सामान्य और विशेष में संज्ञा लक्षण आदिक की अपेक्षा से कथन्चित भिन्नता है । जो स्वर्ण सामान्य है वह सब अंगूठी कहाँ है, और जो अंगूठी है वह स्वर्ण सामान्य कहाँ है? यद्यपि स्वर्ण से अंगूठी भिन्न नहीं है, स्वर्ण की रची हुई परिणति है फिर भी संज्ञा और लक्षण की अपेक्षा इनमें भेद है । यदि स्वर्ण और अंगूठी में सर्वथा एकत्व हो जाये, पूर्णतया अभेद हो तो जैसे स्वर्ण सामान्य अंगूठी में हुआ तो अब स्वर्ण सामान्य कुंडल आदिक में नहीं पहुंच सकता, क्योंकि यहाँ अभेद कर दिया । जो अंगूठी है सो ही सारा स्वर्ण है । अब आगे स्वर्ण रहा नहीं, अथवा जैसे स्वर्ण सामान्य सभी गहनों में पाया जाता है इसी तरह अंगूठीपना भी सभी गहनों में पाया जाना चाहिये, क्योंकि शंकाकार तो यहाँ स्वर्ण और अंगूठी को सर्वथा एकत्व बता रहा है इस कारण अन्य की निवृत्ति के लिए ही यह प्रयोग बनता है । यह अंगूठी स्वर्ण की है । चांदी आदिक की नहीं, ऐसी निवृत्ति तब ही की जा सकती है जब इसमें कथंचित भेद माना जाता है । यदि सर्वथा एकत्व हो जाए तब तो नाम भी नहीं लिया जा सकता । क्या लिया जाये?
भिन्नाधिकरण वृत्ति में भी अजीवकाय पद की सार्थकता―उक्त दृष्टांत की तरह अजीवकाय में भी अजीव की काय है, ऐसा कहने पर संज्ञा, लक्षण आदिक के द्वारा कथंचित भिन्नता ज्ञात होती है अन्यथा यदि अजीव और काय इन दो शब्दों के वाच्य सर्वथा एक हो जायें तो जैसे धर्मादिक द्रव्यों में एकपना है ऐसे ही प्रदेशों में भी एकपना हो जायेगा, क्योंकि काय नाम प्रदेश प्रचय का है । उस प्रदेश प्रचयपने को और अजीव को सर्वथा एक मान लें तो प्रदेश भी अनेक न रह सकें । जैसे कि आगे बताया जायेगा कि धर्मादिक द्रव्यों में असंख्यात प्रदेश होते हैं । दूसरा दोष यह है कि अजीव और काय इन दोनों में सर्वथा एकत्व मान लिया जाये तो जैसे प्रदेश बहुत हैं ऐसे ही धर्मादिक भी बहुत हो जायेंगे । इस कारण अन्य की निवृत्ति के लिये यह प्रयोग युक्त है कि धर्म द्रव्य, आकाश द्रव्य, काल द्रव्य, ये अजीव के काय हैं, जीव के काय नहीं हैं । यदि इनमें सर्वथा एकत्व हो जाये तब फिर नाम व्यवहार भी नहीं बन सकता । तो संज्ञा लक्षण आदिक की दृष्टियों से इनमें भेद बनता है इस कारण भिन्नाधिकरण वृत्ति वाला समास भी युक्त है । अब यहाँ शंकाकार कहता है कि अभेद होने पर भी तो लोक में व्यवहार देखा जाता है । जैसे कोई कहता कि यह केतु का शरीर है, यह राहु का सिर है । तो शरीर मात्र ही तो केतु है या सिर मात्र ही राहु है, कुछ भेद नहीं है । जो धड़ है वही केतु है, फिर भी उसमें भेद व्यवहार देखा गया या नाम भेद देखा । गया कि केतु का शरीर राहु का सिर । उत्तर देते हैं कि भाई सर्वथा अभेद वहाँ भी नहीं है, वहाँ पर भी भेद है । वह किस प्रकार? शक्तियों से देखिये―जो अनेक क्रियायों को बनावे ऐसे शक्ति भेद से सर्वथा भिन्न तो केतु है और उसका यह शरीर एक क्रिया विषयक है । ऐसा शब्द कल्पना से या बुद्धि भेद से इनमें भी कथंचित् भेद समझ में आता है । भेद कुछ जाने बिना व्यपदेश व्यवहार नहीं बन सकता, तो यहाँ पर भी अन्य की निवृत्ति के लिये विशेषण है कि यह शरीर केतु का है, मनुष्यादिक का नहीं । जैसे कहा कि यह सिर राहु का है तो अन्य निवृत्ति यहाँ भी है, किसी दूसरे मनुष्यादिक का नहीं । सो मात्र चित्त भेद समझे बिना व्यवहार नहीं बन सकता, तीर्थ प्रवृत्ति नहीं बन सकती । यदि सर्वथा एकांत मान लिया जाये―अभेद, तो अन्य की निवृत्ति नहीं हो सकती । जैसे कोई प्रयोग करे―स्वर्ण का स्वर्ण, सोने का सोना है, तो इसमें अन्य की निवृत्ति नहीं कही जाती कि अन्य का सोना नहीं है । वह तो एक वचन मात्र की बात है ।
अजीव शब्द का पर्युदास अर्थ―अब अजीव शब्द के अर्थ पर एक शंकाकार कहता है कि अजीव का यह अर्थ किया जाना चाहिये कि अजीव, जीव नहीं और ऐसा अर्थ करने पर अभाव मात्र ही समझा जायेगा । कोई वस्तु न जानने में आयेगी । उत्तर कहते हैं कि भेद मात्र अर्थ न लेना, जीव नहीं, इतना ही अर्थ न लेना किंतु जीवन क्रिया से भिन्न क्रिया वाले ये पदार्थ हैं । पुद्गल द्रव्य सद्भूत पदार्थ हैं । सब सामने दिख रहे हैं और ये अजीव कहलाते हैं, और ये दिख रहे हैं तो इनको सिर्फ इतना न समझना कि जीव का अभाव मात्र है यह किंतु रूप, रस, गंध स्पर्श के पिंडभूत ये पदार्थ हैं । जैसे अनश्व याने अश्व नहीं अघड़ा, घड़ा नहीं, ऐसा कहा जाये तो यह अर्थ होगा कि यह अश्व नहीं हैं, किंतु और कोई जानवर है । कहीं अभाव मात्र का बोध नहीं होता । कुछ है ही नहीं, अभाव का जहाँ प्रयोग होता है वहाँ अन्य है, यह ध्वनित होता है, आवांतर में अभाव की प्रत्पत्ति होती है । जैसे गधा और घोड़ा दोनों करीब-करीब एक शकल के होते हैं । खच्चर, गधा तो प्राय: बहुत कुछ मिलते-जुलते हैं । फर्क उनमें थोड़ा होता है । तो वहाँ खड़ा तो था गधा और किसी ने कहा घोड़ा तो दूसरा समझाता है कि यह घोड़ा नहीं है । अनश्व है, तो उसका अर्थ यह नहीं है कि कुछ है ही नहीं । अर्थ उसका यह है कि घोड़े से अतिरिक्त कोई है । इसी प्रकार यहाँ जीव शब्द कहा है । धर्मादिक पदार्थ अजीव हैं । तो जीव का प्रतिबंध करने से तुच्छाभाव अर्थ न लेना कि कुछ भी नहीं है, जिसका उपयोग लक्षण नहीं किंतु अन्य लक्षण हैं, ऐसे धर्मादिक द्रव्य हैं, यह अजीव का अर्थ है । यहाँ शंकाकार कहता है कि गधे में अनश्व कहा तो कुछ सदृशता थी, उस सदृशता से भ्रम तो था । जब कहा कि यह घोड़ा नहीं । अगर जीव की और धर्मादिक द्रव्यों में कुछ सदृशता ही नहीं है तो वहाँ कैसे अजीव शब्द से उसका बोध हो जायेगा । समाधान यह है कि जीव में और धर्मादिक अजीव पदार्थों में सदृशता है किसी दृष्टि से । जैसे सत्त्व जीव में है, सत्त्व उन धर्मादिक द्रव्यों में भी है । द्रव्यपना जीव में है तो द्रव्यपना उन अजीव पदार्थों में भी है । ऐसी सदृशता पायी जाती है । सो अभाव शब्द कहने से जीव का अभाव याने शून्य अर्थ नहीं है, किंतु जीव न होकर अन्य लक्षण वाले पदार्थ हैं, यह अर्थ है ।
काय शब्द का प्रकाश―यहाँ काय शब्द का अर्थ है―काय की तरह जो हो वह काय । काय मायने शरीर । जैसे―शरीर में अनेक प्रदेश हैं, परमाणु हैं उसकी तरह जो बहुत प्रदेश हों उसे काय कहते हैं । जैसे औदारिक आदिक शरीर नामकर्म के उदय से पुद्गल के द्वारा जो इकट्ठे होते हैं वे काय हैं ऐसे ही धर्मादिक पदार्थों में अनादि पारिणामिक भावत: असंख्यात प्रदेश का प्रचय है इसलिये उन्हें काय कहते हैं । इस सूत्र में काय शब्द का ग्रहण प्रदेश रूप अवयवों की अनेकता जतलाने के लिये है । याने धर्मादिक द्रव्यों में अनेक प्रदेश हैं । यद्यपि प्रदेश नाम स्थान की इकाई का है याने आकाश का सबसे छोटा अविभागी एक हिस्सा प्रदेश कहलाता है लेकिन वह प्रदेश एक नाप में आया, बुद्धि में तो उस बुद्धि के द्वारा उस आकाश प्रदेश की नाप से उनमें असंख्यात आदिक प्रदेश स्वीकार किये जाते हैं और प्रदेशों की बहुतायत बताने के लिये इस सूत्र में काय शब्द को ग्रहण किया गया है ।
सूत्र में काम शब्द के ग्रहण की अनर्थकता का प्रश्न―यहाँ एक जिज्ञासु प्रश्न करता है कि जब आगे एक सूत्र आयेगा―असंख्येया: प्रदेशा: धर्माधर्मैक जीवानां....? तो उस सूत्र से ही बहुप्रदेशपना सिद्ध हो जाता है, फिर इस सूत्र में काय शब्द का ग्रहणकरना निरर्थक है । कदाचित कोई यह कहे कि प्रदेश की संख्या का निश्चय हो जाये इसके लिये उस सूत्र की उपयोगिता होगी, सो भी बात नहीं, क्योंकि उस सूत्र से भी पदार्थों का समूह है, इतनी मात्र प्रतीत होती है । कोई यहाँ यह दलील देवें कि इस सूत्र में कहीं तीनों का मिलकर असंख्यात प्रदेश न समझ लेवें इस कारण कि एक-एक में असंख्यात प्रदेश होते हैं । इस प्रसिद्धि के लिये यहाँ काय का ग्रहण किया है । यहाँ काय का ग्रहण करने पर भी निश्चय नहीं बनता है । काय कहा तो उससे भी इतनी ही सिद्धि होगी कि बहुत प्रदेश हैं, फिर किस तरह निश्चय होगा । और सुनो―एक सूत्र आगे आयेगा―लोकाकाशेवगाह: उस सूत्र से निश्चय हो जायेगा, कैसे? जब यह मालूम पड़ गया कि धर्म, अधर्म द्रव्य का लोकाकाश में अवगाह है और वह भी ‘‘धर्माधर्मयो:कृत्सने’’ इस सूत्र से धर्म, अधर्म द्रव्यों के प्रदेशों के परिमाण का निश्चय भी हो जाता है । कोई कहे कि सूत्र में काय ग्रहण न करने से अप्रदेशी एकपने का प्रसंग आ जायेगा, सो भी नहीं आ सकता, क्योंकि आगे के असंख्येया: आदिक सूत्र से बहुप्रदेशपना सूचित हो ही जाता हे । एक बात और भी विशेष यह है कि 5 अस्तिकाय हैं, ऐसा आगम उपदेश प्रसिद्ध हे । इसके लिये काय शब्द का ग्रहण सार्थक हो जायेगा । कोई ऐसा कहे तो भी ठीक नहीं, क्योंकि असंख्येया: सूत्र से ही बहुप्रदेशपना सिद्ध हो जाता है । कोई कहे कि कहीं कोई यह न समझ ले कि बहुप्रदेशीपना का स्वभाव छूट जायेगा इसलिये काय शब्द का ग्रहण किया है, तो यह भी सोचना ठीक नहीं है क्योंकि अभी ही सूत्र आयेगा कि यह नित्य अवस्थित है । इससे ही यह सिद्ध हो जायेगा कि यह अपना स्वभाव कभी छोड़ता नहीं है ।
सूत्र में काय शब्द के ग्रहण की सार्थकता का कथन―अब उक्त पूर्व पक्ष का समाधान करते हैं । तब इस सूत्र में काय शब्द का ग्रहण किया है और उससे यह सिद्ध हो गया कि इन अस्तिकायों में अथवा पांचों ही अस्तिकायों में बहुप्रदेशपना है, अर्थात् जब बहुप्रदेशपना सिद्ध हो गया तब ही तो असंख्या आदिक सूत्र से उसके प्रदेशों का अवधारण बन सकेगा । इन पदार्थों में असंख्यात ही प्रदेश हैं । न संख्यात है और न अनंत हैं, क्योंकि पहले सामान्यतया विधिपूर्वक अवधारण तो बन जाये कि यह द्रव्य बहुप्रदेशी है, अस्तिकाय है, फिर तो आगे के सूत्र उनकी गणना बतायेंगे । साथ ही फिर यह जानना कि काल द्रव्य बहुप्रदेशी नहीं है । सो काल द्रव्य के अस्तिकायपना का निषेध करने के लिये इस सूत्र में काय का ग्रहण करना बिल्कुल उपयुक्त है, क्योंकि काल द्रव्य एक प्रदेशी है और इसीलिए द्वितीय आदिक प्रदेश न होने के कारण अप्रदेशी भी कहते हैं । तो सामान्यतया सर्वप्रथम अस्तिकाय के द्रव्यों को कायपना सिद्ध करने के लिये इस सूत्र में काय शब्द का ग्रहण किया गया है । आगे अभी तीसरा सूत्र आयेगा―जीवाश्च, सो वह भी अस्तिकाय है । यह सिद्ध हो ही जायेगा ।
सूत्रोक्त धर्म, अधर्म आदिक शब्दों के वाच्य का निर्णय―अब यहाँ धर्मादिक द्रव्यों के विषय में यह जानना कि वे जो नाम धरे गये हैं सो वे रूढ़ शब्द हैं । आगम में दो शब्दों से उन द्रव्यों का बोध कराया गया है, अथवा यदि व्युत्पत्ति पूर्वक देखें तो इन संज्ञाओं का अर्थ भी ठीक बैठता है । जैसे धर्म का अर्थ है जो धारण करे सो धर्म । क्या धारण करे? स्वयं क्रिया परिणत जीव और पुद्गल को जो साचित्य धारण करे अर्थात् सहायक हो वह धर्म है । तो इसी प्रकार स्थिति में जो साचित्य धारण करे सो धर्म द्रव्य है । आकाश का शब्दार्थ है कि जहाँ पर जीवादिक द्रव्य अपनी-अपनी पर्यायों के साथ प्रकाशमान हो जो खुद भी अपने को प्रकाशित करे वह आकाश है । या यह अर्थ कर लिया जाये कि जो अन्य सब द्रव्यों को अवकाश दान दे वह आकाश है । यहाँ कोई यह जिज्ञासा कर सकता हे कि लोकाकाश में तो अन्य द्रव्यों का अवगाह है नहीं फिर वहाँ आकाश का लक्षण कैसे घटित होगा, तो उसका उत्तर दो तरह से समझें । एक तो शक्ति की दृष्टि से उस आकाश में भी अवकाश दान की योग्यता है, भले ही धर्म द्रव्य के वहाँ न होने से जीव और पुद्गल का गमन नहीं है और काल द्रव्य भी नहीं है, पर आकाश तो आकाश ही है, उनमें जो शक्ति है सो तो वह है ही । दूसरी बात यह समझें कि आकाश द्रव्य अखंड द्रव्य है जब अवगाह हो रहा है लोकाकाश में तो वह आकाश है और अखंड द्रव्य होने से वे सभी हैं । पुद्गल का अर्थ है पूरण गलन को प्राप्त हो वह पुद्गल है । पूरण का अर्थ है मिलकर, गलन का अर्थ है घटकर कम हो जाये उसे पुद्गल कहते हैं । सो जो स्कंध दिखते हैं उनमें यह बात स्पष्ट पायी जाती है कि अनेक परमाणुओं का बंध होकर वह परिणाम में बढ़ जाता है और परमाणुओं का विच्छेद होकर वह घट जाता है । यह पूरण गलन स्वभाव स्कंधों में तो स्पष्ट है, अब शक्ति अपेक्षा परमाणुओं में भी पूरण गलन स्वभाव है । परमाणुओं में भी गुणों का परिणमन होता रहता है, गुण वृद्धि और गुण हानि होती रहती है, सो वहाँ भी पूरण गलन व्यवहार मानने में कोई बाधा नहीं है । अथवा पुद्गल का यह भी अर्थ कर सकते―पु मायने पुरुष अर्थात् जीव उसके द्वारा जो निगले जायें सो पुद्गल हैं । जीव, शरीर, आहार, विषय आदिक के रूप में पुद्गल को निगलते ही हैं, और जब स्कंध दशा में वे निगले गये तो परमाणु भी निगले गये समझिये । तो व्युत्पत्ति अर्थ की अपेक्षा भी ये सब नाम अन्वर्थक हैं ।
धर्मादिक द्रव्यों की स्वतंत्रता व सूत्र में नामक्रम के कारणों का प्रकाश―इस सूत्र में धर्माधर्माकाश पुद्गला: यह बहुवचन का पद है जिसमें सबका स्वातंत्र्य जाना जाता है, अर्थात् ये सभी द्रव्य अपने आपमें स्वयं परिणत होते हैं अथवा धर्माधर्म आदिक द्रव्य जीव पुद्गल की गति आदिक में स्वयं निमित्त होते हैं । जीव का पुद्गल उन द्रव्यों को प्रेरणा नहीं देते । इस सूत्र में चार द्रव्यों के नाम दिये गये हैं । तो पहले-पीछे जैसे नाम दिये गये हैं उनका कारण है । तो सबसे पहले धर्म का नाम दिया है । तो धर्म शब्द की लोक में बहुत बड़ी प्रतिष्ठा है, इस कारण सूत्र में धर्म का पहले नाम दिया, इसके बाद अधर्म का नाम लिया । सो एक तो धर्म का प्रतिपक्षी शब्द हैं इस कारण बाद में नाम दिया, दूसरा दोष यह है कि धर्म द्रव्य के कारण इस लोक में पुरुषाकार आकृति व्यवस्थित रहती है इस कारण अधर्म का उसके बाद नाम दिया है । यदि अधर्म द्रव्य न माना जाता तो जीव और पुद्गल अलोकाकाश में भी पहुँचता, तब लोक का कोई आकार न रहता । इस कारण जो कि लोकालोक के विभाग का कारण अधर्म द्रव्य का रहना है इससे अधर्म द्रव्य को धर्म के बाद कहा है फिर आकाश द्रव्य को कहा, क्योंकि धर्म-अधर्म के द्वारा ही आकाश का विभाग बनता है । यह लोकाकाश है और यह अलोकाकाश है और यह अलोकाकाश है । जहाँ तक धर्म अधर्म द्रव्य है वह लोक है, और इसके बाद अलोक है, और फिर अमूर्त होने से आकाश में धर्म अधर्म के साथ सजातीयपना है, इसके अंत में पुदगल का ग्रहण पारिशेष व्यापक है और फिर आकाश में पुद्गल अवकाश पाते हैं जो कि स्पष्ट है इसलिए आकाश के पास पुद्गल का नाम रखा ।
आधार होने के कारण आकाश शब्द को सूत्र में नामों में सर्वप्रथम कहने की आरेका का समाधान―यहाँ शंकाकार कहता है कि सूत्र में नामों में सर्वप्रथम आकाश का ग्रहणकरना चाहिये, क्योंकि धर्म-अधर्म और पुद्गल ये सभी आकाश में ही तो रहते हैं, सबका आधार आकाश है । अत: आकाश का ही प्रथम ग्रहण उचित था । इसका समाधान करते हैं कि निश्चय से देखा जाये तो किसी भी द्रव्य का आधार कोई दूसरा द्रव्य नहीं होता । समस्त लोक के अतिरिक्त समस्त द्रव्यों की रचना अनादि से है । प्रत्येक पदार्थ अपने आप सत् है । इसमें आधार आधेय भाव या कुछ पहले, कुछ बाद यह रंच भी नहीं है, क्योंकि जब किसी द्रव्य की आदि नहीं तो यह कैसे कहा जा सकेगा कि यह आधार है यह आधेय है? जिनकी आदि होती है उनका ही आधार आधेय पहले ये बातें उसमें सिद्ध होती हैं । जैसे बर्तन और दूध । तो दूध की आदि है, अब निकलता है तो कहेंगे कि वर्तन तो आधार है और दूध आधेय है । बर्तन पहले है, दूध बाद में है । तो वहाँ तो यह बात संभव होती है मगर जहाँ सभी पदार्थ अनादि से हैं वहाँ कैसे बताया जा सकता कि यह तो आधार है और यह आधेय है? भले ही आगम में लिखा है कि धनोदधि वातवलय तनुवातवलय के आधार हैं, तनुवातवलय आकाश के आधार है, और आकाश अपने आपके आधार है । ऐसा इसी मोक्ष शास्त्र के तृतीय अध्याय में सर्वप्रथम सूत्र में कहा गया है । सो इसका भी विरोध नहीं है, और प्रत्येक द्रव्य अपने आपके आधार है इसका भी विरोध नहीं, उसका कारण यह है कि आधार आधेय भाव का सर्वथा निषेध नहीं है और सर्वथा विधान नहीं है, किंतु जब द्रव्यार्थिकनय की प्रधानता से देखते हैं तो वहाँ सभी द्रव्य अपने-अपने आधार विदित होते हैं । सो द्रव्यार्थिकनय की दृष्टि में आधार आधेय भाव नहीं है, फिर भी पर्यायार्थिकनय की प्रधानता में आधार आधेय भाव है । इस प्रकार व्यवहारनय से आकाश को आधार कहते, अन्य द्रव्य को आधेय कहते ।
वस्तुत: प्रत्येक द्रव्य का स्वयं स्वयं में ही आधाराधेय भाव―द्रव्यार्थिकनय की प्रधानता किस तरह है? छहों द्रव्यों में पर्याय दृष्टि से आदि विदित होता है क्योंकि पर्यायें नई-नई अपने समय में उत्पन्न होती रहती हैं । तो पर्याय की दृष्टि में तो जब आदि हो गई और आकाश को देखा कि यह तो है ही पहले से तो अब यहाँ आधार आधेय की कल्पना हो गई । तब एवं भूतनय से देखा तो यह लोकरचना अनादि से पारिणामिक है, स्वयं है, किसी के द्वारा की गई नहीं है, वहाँ आधार आधेय भाव नहीं है, व्यवहार में तनु वातवलय का आधार आकाश को माना है और आकाश को स्वप्रतिष्ठित माना है । वहाँ यह शंका नहीं की जाना चाहिये कि फिर तो आकाश का आधार भी अन्य बताया जाना चाहिये । फिर उस आकाश का जो आधार हो उसका भी आधार कोई अन्य आकाश होना चाहिये । और इस तरह आधार आधेय भाव के निरखने में सर्वथा दोष हो जायेगा । सो यह शंका यों ठीक नहीं कि आकाश तो सर्वव्यापी है और अनंत है, उसमें अन्य आधार की कल्पना नहीं बनती । जो सर्वगत न हो, जो अत्यंत सत् हो, जो मूर्तिमान हो, जिसमें अवयव हो, ऐसे पदार्थ में ही अन्य आधार की कल्पना हो सकती है । तो द्रव्यार्थिक दृष्टि से देखा जाए तो सभी द्रव्य अपने-अपने आधार में है । अनादि से ही आकाश है, अनादि से ही सब द्रव्य हैं, और सब द्रव्यों के समूह का नाम लोक है इसलिए वहाँ आधार आधेय की कल्पना नहीं बनती, पर पर्याय दृष्टि में व्यवहार में आधार आधेय भाव है । तो व्यवहार से भी आकाश अन्य आकाश के आधार हो, यह बात नहीं है, क्योंकि आकाश सर्वव्यापी है, इस कारण से उसका आधार नहीं कहा जा सकता ।
जीवद्रव्य व कालद्रव्य की वक्ष्यमाणता का संकेत―इस सूत्र में काल द्रव्य का नाम नहीं लिया गया । काल अजीव पदार्थ है और अजीव का इसमें वर्णन चल रहा, पर काल का नाम यहाँ इस कारण नहीं दिया कि वह अस्तिकाय नहीं है । छह द्रव्य बताये गये हैं―जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म आकाश और काल । इस सूत्र में जीव का भी नाम नहीं है क्योंकि अजीवकाय के ही नाम इस सूत्र में लिये गये हैं । जीव तो अजीव नहीं है और काल का भी नाम नहीं है, क्योंकि काल अस्तिकाय नहीं है । इसका लक्षण आगे बताया जायेगा और वहाँ ही यह भी दिखाया जायेगा कि काल द्रव्य एक प्रदेशी है, इस कारण अस्तिकाय नहीं है । इस तरह इस प्रथम सूत्र में अजीव होते हुए जो अस्तिकाय हैं उनका वर्णन किया । इस अध्याय में वर्णन तो किया जाना है सभी द्रव्यों का, पर सूत्र विधि के अनुसार इस तरह वर्णन चल रहा है कि सूत्र में शब्द अधिक न बोले जायें और कम शब्दों से सूत्र बनकर सबका अर्थ आ जावे, उस नीति के अनुसार यहाँ अजीव कायों का वर्णन किया है । अब जो जीव और काल शेष रह गये उनका वर्णन समय पाकर होगा । अब इस समय यह एक जिज्ञासा होती है कि पहले अध्याय में एक सूत्र आया था―‘‘सर्व द्रव्य पर्यायेषु केवलस्य ।’’ अर्थात केवल ज्ञान का विषय समस्त द्रव्य और समस्त पर्याय है । तो उसमें द्रव्य शब्द बताया गया तो वह द्रव्य चीज क्या कहलाती है? इस जिज्ञासा के समाधान में सूत्र कहते हैं―