वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 5-22
From जैनकोष
वर्तनापरिणामक्रिया: परत्वापरत्वे च कालस्य ।। 5-22 ।।
काल के उपकारभूत वर्तमान उपग्रह का परिचय―वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व ये उपग्रह काल के उपकार हैं, वर्तना शब्द वृतु धातु से युच् प्रत्यय होने पर वर्तना शब्द बना है और इसका प्रयोग कर्मसाधन और भावसाधन में हुआ है, जिससे अर्थ यह निकला कि प्रति समय स्वसत्तानुभूति होना यह काल का उपकार है । प्रत्येक पदार्थ प्रति समय में अपनी सत्ता की अनुभूति करते हैं । तो ऐसी वर्तना मानने में एक क्षण का । परिणमन यह काल द्रव्य का उपकार है । वर्तना शब्द इस तरह भी बन सकता था कि जिसके द्वारा वर्ते सो वर्तना या जिसमें वर्ते सो वर्तना ऐसा विग्रह करके वर्तना शब्द बनाया जा सकता था मगर उस विग्रह में वर्तना शब्द नहीं बनता, वर्तनी शब्द बनता है । नदी की तरह ङीप् प्रत्यय लगाकर । तो यहाँ व्युत्पत्ति के अनुसार वर्तना का अर्थ यह है कि जो सत्ता की अनुभूति है सो वर्तना अथवा जो वर्तनाशील हो उसका नाम है वर्तना । वर्तना का लक्षण क्या है सो सुनो । द्रव्य की पर्याय के प्रति अंतर्नीत मायने भीतर में प्रकट हुई एक समय की जो स्वसत्तानुभूति है उसे वर्तना कहते हैं मायने एक समय का परिणमन । चूंकि परिणमन कोई अलग पदार्थ नहीं है । वह द्रव्य की परिणति है इसलिए एक समय के परिणमन में जो सत्ता की अनुभूति हो रही है, वह उत्पाद व्यय ध्रौव्य की एकता वाली अनुभूति है, जिसका कि विधि से, शब्द से, अनुमान से, हेतु से अस्तित्व जाना जाता है क्योंकि एक समय की परिणति हम आपको प्रत्यक्ष नहीं हो पाती । यद्यपि सत्ता सर्व पदार्थों की एक समान है तो सादृश्य के विचार से सत्ता को एक भी कह दिया जाये लेकिन प्रत्येक पदार्थ भिन्न-भिन्न हैं, जीव अजीव आदिक भेद प्रभेदों से संबंध को पाकर विशिष्ट शक्तियों के साथ अपनी-अपनी सत्ता का संबंध है, उसकी अनुभूति होना वर्तना है । जैसे एक अविभागी समय में धर्मादिक छहों द्रव्य अपनी पर्यायों से उत्पाद व्यय ध्रौव्य विकल्पों से रहते हैं तो ऐसी एक समय में जो स्थिति होती है उसको वर्तना कहते हैं । एक समय इतना सूक्ष्म है कि आंख की पलक जल्दी गिरने में जितना समय लगता है उसमें असंख्यात समय होते हैं । उनमें से एक समय की परिणति रूप सत्ता अनुभूति को वर्तना कहते हैं ।
वर्तना का अनुमान द्वारा ज्ञापन―यह वर्तना अविभागी समय की स्वसत्तानुभूति है । उसका ज्ञान कैसे हो? तो अनुमान द्वारा उसका ज्ञान होगा । जैसे चावल पकाये गये तो वे आधा घंटा में पके तो बताओ क्या वे 29 मिनट तक कुछ भी नहीं पके और 30वें मिनट में ही एकदम से पक गए ऐसा है क्या? प्रति मिनट पके और एक मिनट में होते 60 सेकंड, तो प्रति सेकंड में पके और एक सेकंड में होते हैं असंख्यात समय, तो प्रत्येक समय में पके । अब एक समय का जो पकना है वह वर्तना जैसी स्थिति है, क्योंकि यदि प्रथम समय में नहीं पका तो द्वितीय समय में भी नहीं पका, तो फिर कभी पकेगा ही नहीं । चावल पक रहे हैं तो प्रति समय पक रहे हैं । अब नये-नये समय बढ़ते हैं तो पके के बाद पकना फिर पके के बाद पकना सो बाद में मालूम पड़ता है कि पका, मगर जिस क्षण आग पर रखा उसी क्षण से पकना प्रारंभ हुआ । तो ऐसे ही समस्त द्रव्यों में जो उनकी पर्याय रची हुई है वह प्रति समय उनकी निष्पत्ति हुई है । वह सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष ज्ञान द्वारा जाना कठिन है, पर अनुमान द्वारा भले प्रकार समझा जाता है ।
काल की वर्तना का निर्देश―वर्तना जिसका लक्षण हो उसे काल कहते हैं । अब समय आदिक जो क्रिया विशेष हैं, जो उन समयों में रचे गए हैं उन पर्यायों का अपने आपकी सत्ता में अनुभव चल रहा है और उनकी इस रचना का बहिरंग कारण समय है और वह समय अन्य पदार्थों में वर्तना रूप है, पर समय नामक पर्याय किसकी है? काल द्रव्य की । काल द्रव्य में प्रति समय स्वतंत्र-स्वतंत्र समय नामक पर्याय चलती रहती है । यहाँ जो घड़ी घंटा आदिक समय कहते हैं वह तो मिलाकर समुच्चय करके एक कल्पना किया हुआ संबंध वाला समय है । वास्तविक समय एक है और वह काल द्रव्य की पर्याय है । तो वर्तना काल द्रव्य में भी हुई और अन्य समस्त द्रव्यों में भी हुई, मगर परिणाम क्रिया आदिक काल द्रव्य में नहीं होते, यह अन्य द्रव्यों में होता है ।
सूर्य गति, आकाश आदि में वर्तना की निमित्त कारणता का प्रतिषेध―यहां कोई यह शंका कर सकता है कि काल द्रव्य से निकला ऐसा कुछ दिखता नहीं है, पर यह बात कुछ सामने दिख रही है कि सूर्य की गति से समय निकला । सूर्य जैसे चलता है उसका निमित्त पाकर पदार्थों में वर्तना होती है । एक समय के परिणमन को वर्तना कहते हैं । सो काल द्रव्य मानने की जरूरत नहीं, सूर्य की गति से समय बना और पदार्थों का परिवर्तन समय गुजरने से हुआ । यह शंका यहाँ यों ठीक नहीं है कि सूर्य की गति से हमने समय तो जाना, पर सूर्य में जो खुद वर्तना हो रही है, खुद परिणमन हो रहा है उसका कौन सा निमित्त है? तो वह निमित्त है काल द्रव्य अर्थात काल द्रव्य की समय-समय की परिणति । कोई शंका कर सकता है कि सूर्य की गति वर्तना में, पदार्थ के परिणमन में कारण न मानो तो आकाश प्रदेश को कारण मान लो । आकाश में पदार्थ है और अपनी योग्यता से परिणमता है तो सब पदार्थों के परिणमने का निमित्त कारण आकाश के प्रदेश हुये । काल नामक कोई हेतु न मानना चाहिये । यह शंका भी यों ठीक नहीं है कि काल द्रव्य तो इन सब पदार्थों की वर्तना के प्रति आधारभूत है । निमित्त कारण तो काल द्रव्य है । जैसे बटलोही में चावल पकाया तो चावल पकने का कारण बटलोही नहीं । बटलोही तो उसका आधार है, पर चावल पकने का कारण तो अग्नि का संयोग है । यद्यपि बटलोही आदिक न होते तो पकना न बनता मगर वे आधारभूत हैं । निमित्तभूत नहीं हैं । तो आकाश सभी पदार्थों की और सूर्य की गति आदिक की वर्तना में आधार है, पर आकाश पदार्थों की वर्तना नहीं बनाता, परिणति नहीं बनाता । परिणति होना तो काल द्रव्य का उपकार है । कोई यह भी शंका कर सकता है कि सर्व पदार्थों में अपनी-अपनी सत्ता बनी हुई है और उस सत्ता के ही कारण वर्तना होती रहती है याने प्रति समय वर्तना चलती रहती है । इस काल द्रव्य के मानने की जरूरत नहीं है । यह शंका यों ठीक नहीं कि सत्ता का भी अनुग्रह काल द्रव्य करता है क्योंकि सत्ता मायने क्या? काल के द्वारा सत्ता की वर्तना बनने में कोई अन्य ही निमित्तभूत होना चाहिये । वह है काल द्रव्य । अनेक जगह ऐसा बोला जाता है कि काल द्रव्य का वर्तना लक्षण है । सो यह यों कहा गया कि काल द्रव्य में परिणाम आदिक नहीं हैं, वर्तना ही मात्र है और वह एक समय की परिणति है, सो पर्याय मुखेन काल द्रव्य का परिचय कराया गया है । जिसकी प्रति समय वर्तना परिणति हो उससे जाना जाता है काल द्रव्य । तो वर्तना एक काल द्रव्य के निमित्त का उपग्रह है ।
कालद्रव्य के उपकारभूत परिणाम उपग्रह का परिचय―अब वर्तना के बाद आया है परिणाम । परिणाम का अर्थ है कि द्रव्य में अपनी-अपनी जाति का उल्लंघन न करके कोई उपयोग आ जाना, कोई बदल आ जाना इसको परिणाम कहते हैं यह परिणाम एक समय में नहीं होता । एक समय की तो वर्तना है । अब यह था, अब यह बदल गया । ऐसा जो एक व्यक्त परिणमन है वह तो अनेक समय में होगा । ऐसे विकार परिणाम कहीं तो प्रायोगिक होते हैं । किसी दूसरे की प्रेरणा से होते हैं और कहीं पदार्थ में स्वभाव से ही होते हैं । तो परिणाम हुआ, बदल हुई । जीव अजीव द्रव्यों में बदल होती । चेतन द्रव्य हो या अचेतन द्रव्य हो, उसमें जब हम द्रव्यार्थिकनय की विवक्षा से देखते हैं तो यह विदित होता है कि द्रव्यों की जाति को नहीं छोड़ता । और, पर्यायार्थिकनय से देखते हैं तो वहां यह जाहिर होता कि किसी पर्यायरूप से तो उत्पन्न हुआ है सो पूर्व पर्याय की अनुभूति पूर्वक विकार हुआ है । कहीं किसी पदार्थ की प्रेरणा से हुआ है तो कहीं पर की प्रेरणा बिना हुआ है । प्रत्येक पदार्थ में परिणमन होता है, पर जो व्यक्त होवे, समझ में आये परिणमन तो वह परिणमन विषम होगा । एक सा परिणमन अपनी बुद्धि में न आयेगा । जैसे प्रभु में केवलज्ञान केवलज्ञानरूप परिणमन प्रति समय होता रहता है तो वह विषम नहीं होता । संसारी जीवों में रागद्वेष क्रोधादिक भाव परिणमन होते हैं । ये विषम होते हैं । परिणमन दो प्रकार के होते हैं । कोई तो अनादि परिणमन और कोई सादि परिणमन । यद्यपि परिणमन कोई भी अनादि नहीं होता मगर ऐसा ही परिणमन चलता रहे ऐसी परंपरा देखकर अनादि परिणमन कहा जाता है जैसे लोक का आकार, मेरु का आकार, अकृत्रिम चैत्यालय अकृत्रिम प्रतिबिंब ये अनादि परिणमन हैं और आदि परिणमन दो प्रकार के होते हैं―(1) कोई प्रायोगिक और कोई (2) वैश्रसिक । जैसे चेतन द्रव्यों में औपशमिक आदिक भाव हुए वे कर्म के उपशम आदिक के निमित्त से हुए । सो हुए तो नैमित्तिक, मगर वे परिश्रम से नहीं हुए, प्रयत्न से नहीं हुए इसलिए वैश्रसिक कहलाते हैं । और अध्ययन करना, ध्यान करना, भावना करना ये पुरुष के प्रयोग से होते हैं इसलिए ये प्रायोगिक हैं, अर्थात अन्य गुरु आदिक के उपदेशों से प्रेरित होकर जीव करता है सो वह प्रायोगिक हैं । अचेतन में देखिये―घड़ा, सकोरा आदिक परिणमन तो प्रायोगिक हैं । कुम्हार आदिक पुरुष के प्रयोग के निमित्त से बनते हैं और आकाश में । कभी इंद्र धनुष हो गया आदिक जो नाना परिणमन हैं वे वैश्रसिक हैं याने किसी पुरुष ने वहाँ कोई प्रयत्न नहीं किया ।
शंकाकार द्वारा परिणाम उपग्रह का प्रतिषेध―अब यहाँ एक शंकाकार शंका करता है कि परिणाम तो हो ही नहीं सकता । किसी का भी परिणमन नहीं है । कैसे जाना कि यह बतलाओ कि परिणमन जो आप मान रहे हो, बीज का अंकुर हो गया, यही तो परिणमन है, सो बतलाओ अंकुर में बीज है या नहीं । जो परिणमन हुआ है, बीज बोया, अंकुर हुआ तो अंकुर में बीज है कि नहीं? यदि कहो कि अंकुर में बीज है तो बीज है तो अंकुर का अभाव हो गया । दो में कोई एक ही तो रहना चाहिये । यदि कहो कि अंकुर में बीज नहीं है तो बीज अंकुररूप से परिणमा नहीं, यह अर्थ हुआ उसका । एक मोटे रूप में समझिये । जैसे कहा कि दूध खट्टा हो गया तो खट्टा होने में दूध है कि नहीं? है, तब कहते हैं कि दूध खट्टे रूप में परिणम गया । तो ऐसे ही बीज तो है नहीं, फिर कैसे कहा कि बीज अंकुर रूप परिणम गया? क्योंकि जब अंकुर है तो उसमें बीज का स्वभाव न रहा इसलिए परिणमन कोई चीज नहीं सिद्ध होती । जो परिणमन बना याने अगली परिणति बनी उस परिणति में यह पूछा जाये कि पहली परिणति मौजूद है या नहीं । अगर मौजूद है तो परिणमन न हुआ, पूर्व परिणाम वही परिणाम वहाँ मौजूद है, अगर कहो कि मौजूद नहीं हैं तो कैसे कहा जाये कि अमुक इस रूप परिणम गया ।
परिणाम की सिद्धि करते हुए उक्त शंका का समाधान―उक्त शंका के उत्तर में कहते हैं कि यह शंका युक्त यों नहीं है कि हम अंकुर में बीज को न तो सत् मानते हैं और न असत् मानते हैं किंतु एक तीसरी ही बात है । यदि सर्वथा सत् हो तो सत् वाला दोष आवे, सर्वथा असत् हो तो असत् वाला दोष आवे । लेकिन किसी एकांत पक्ष को नहीं छू रही है वह घटना इसलिये सत् के एकांत का भी दोष नहीं, असत् के एकांत का भी दोष नहीं । वह तो एक तीसरी बात है और दोनों ही एकांत पक्ष भी नहीं । तो यहाँ शंकाकार कहता कि अगर न सत् है न असत् है याने सत् भी है और असत् भी है तो इसमें तो दोनों दोष आ गये । कोई अगर केवल सत् ही माने परिणाम में पूर्व की बात का तो एक ही दोष आता और असत् ही माने तो एक दोष आता, मगर जो दोनों रूप मान रहा, सत् असत् दोनों मान रहा उसके यहाँ तो दोनों ही दोष लग जायेंगे । उत्तर में कहते हैं कि नहीं, दोनों भी नहीं मान रहे, किंतु वे जात्यंतर हैं । जैसे नरसिंह का रूप । शायद प्रह्लाद के समय की एक घटना में आया है कि देवता ने नरसिंह का रूप धारण किया था । तो वह नरसिंह क्या था? याने न तो नर (मनुष्य) ही और न सिंह (पशु) ही । कोई तीसरी ही जाति का कुछ था । अब समझिये―जो धान्य का बीज है सो उस द्रव्यार्थिक दृष्टि से देखें तो अंकुर में बीज है क्योंकि वही पुद्गल तो अब अंकुर रूप परिणमा है । बीज में जो पुद्गल था वह ही पुद्गल अंकुर रूप परिणम कर कुछ नये पुद्गल को ग्रहण कर अंकुर बना है । तो द्रव्यार्थिक दृष्टि से अंकुर में बीज है । क्योंकि यदि उस अन्वय का उच्छेद कर दिया जाये याने जो पिंड बीज है, द्रव्य है, स्कंध है सो वह यदि बिल्कुल ही न रहा, किसी भी रूप से उसकी धारा ही मिट गई तो न वह अंकुर बनेगा न उसमें कोई फल भी लग सकेंगे । तो चूंकि उस धान्य के बीज से अंकुर बनकर धान्य के ही फल लगते हैं तो उस अन्वय परंपरा से देखें तो अंकुर में बीज है, पर पर्यार्थिक दृष्टि से देखें तो बीज तो बीज ही रूप होता है । वह अंकुर में नहीं है, क्योंकि बीज बीज ही है । बीज के परिणमन नहीं होते । तो पर्यायार्थिक दृष्टि से अंकुर में बीज नहीं है और इस तरह परिणमन सिद्ध हुआ याने द्रव्य वही रहा पर उसकी शकल बदल गई इसलिये उस द्रव्य का परिणाम कहलायेगा, और यह परिणाम कालद्रव्य का उपकार है, जैसे कोई चावल आधा घन्टे तक पके तो आधे घन्टे का समय गुजरे बिना पक नहीं सकते थे । तो यही तो काल का उपकार है । सो समय बीत रहा और परिणमन चल रहे हैं ।
परिणाम प्रतिषेध का प्रतिषेध सिद्ध करते हुए शंका का समाधान―यहां सत्त्व और असत्त्व ऐसे दो विकल्प करके परिणाम का निषेध कर रहा था शंका का कि अंकुर में बीज है तो परिणमन क्या । अंकुर में बीज नही तो परिणमन किसका? सो परिणमन नहीं है । ऐसे सत्त्व असत्त्व के विकल्प से परिणाम का निषेध करने वाला शंकाकार पूछने योग्य है कि तुम जो निषेध कर रहे हो परिणमन का सो सत् परिणाम का निषेध कर रहे हो या असत् परिणाम का निषेध कर रहे? यदि सत् मौजूद परिणमन का निषेध करते हो तो वह मौजूद है । निषेध कैसे कर सकते? और अगर असत् परिणमन का निषेध कर रहे तो जो है ही नहीं तो निषेध किसका करते? यदि सत् परिणाम का निषेध किया जा सकता होता तो परिणाम प्रतिषेध भी प्रतिषेध हो जाता, क्योंकि सत् का तो निषेध करते तो शंकाकार का परिणाम प्रतिषेध भी सत् है तो वह भी खतम हो गया इसलिए परिणाम का निषेध नहीं किया जा सकता । यदि असत् परिणाम का निषेध करते तो खरविषाण की तरह जब वह है ही नहीं तो प्रतिषेध हो ही नहीं सकता ।
कालद्रव्य के उपकारभूत परिणाम उपग्रह का साधक उपसंहार―वास्तविकता यह है कि जिसके परिणमन नहीं है वह वक्तापने रूप से भी प्रकट नहीं होता । उसके वाच्य रूप से भी परिणमन न होगा । उस शब्द का वाचक रूप से भी परिणमन न होगा, तो आप कुछ बोल ही नहीं सकते । वक्ता, वाच्य और वचन इन सबका अभाव होने का प्रतिषेध भी नहीं किया जा सकता और परिणाम तो पदार्थों में स्पष्ट नजर आ रहा है कि यह बदलता गया है, तो ऐसा यह परिणाम रूप उपग्रह काल द्रव्य का उपकार है मायने कालद्रव्य का निमित्त पाकर हुआ है ।
बीज और अंकुर में भेद व अभेद का प्रश्न करके शंकाकार द्वारा परिणाम का अभाव सिद्ध करने का प्रयास व उसका समाधान―वस्तु के परिणाम के विषय में यहाँ चर्चा चल रही है । शंकाकार कहता है कि वस्तु का परिणमन होता ही नहीं है । परिणाम (परिणमन) कोई चीज नहीं है, क्योंकि अगर परिणाम कोई चीज हो तो बतलाओ जैसे कहते कि बीज से अंकुर का परिणमन हुआ तो वह अंकुर परिणमन बीज से भिन्न है या अभिन्न? यदि कहो कि बीज से अंकुर भिन्न है तो बीज का परिणाम तो न कहलाया इसका । क्योंकि बीज से अंकुर भिन्न ही है जैसे भींट और किवाड़ ये भिन्न हैं तो भींट का परिणाम किवाड़ तो नहीं कहलाया । दोनों ही स्वतंत्र हैं । तो ऐसे ही यदि अंकुर बीज से भिन्न है तो बस बीज का परिमाण न कहलायेगा । यदि कहो कि अंकुर बीज से अभिन्न है तो मायने बीज ही कहलाया, फिर अंकुर ही कुछ न रहा, क्योंकि अंकुर को बीज से अनन्य बतलाया, याने अन्य नहीं है, इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि यह शंका युक्त नहीं है कारण कि अंकुर से बीज न तो भिन्न है, न अभिन्न है, किंतु एक तीसरी ही बात है । क्या है वह निर्णय कि कथन्चित अंकुर बीज से भिन्न है, कथंचित अंकुर बीज से अभिन्न है । जैसे अंकुर उत्पन्न होने से पहले बीज में अंकुर पर्याय न थी । पीछे हुई है तो इस पर्यायार्थिक दृष्टि से अंकुर बीज से अन्य हो गया । धान्य के बीज की जाति से विशिष्ट ही है वह अंकुर, उससे कहीं अन्य नहीं है अंकुर, तो धान्य के बीज की जाति स्वरूप द्रव्यार्थिक दृष्टि से अंकुर बीज से अनन्य है । और ऐसा विकल्प करके तो कोई कुछ भी सिद्ध नहीं कर सकता । कोई पूछ डाले कि बताओ प्राण जीव से अन्य है या अनन्य है? अब यदि प्राण का जीव से अन्य बताये, याने भिन्न हैं, अलग हैं तो प्राण का नाश कर डाले कोई जीव का तो कुछ नहीं बिगड़ता क्योंकि जीव जुदा है, प्राण जुदे हैं और यदि कहो कि प्राण जीव से अनन्य हैं, एकमेक हैं तो भी मार डाले कोई क्योंकि जीव तो अमर है, प्राण भी अमर रहेंगे । तो उसके बाद यह ही बनेगा कि प्राण जीव से कथंचित अनन्य हैं, कथंचित अन्य हैं और उसकी दृष्टि है द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक । तो ऐसे ही बीज से अंकुर पर्यायदृष्टि से अन्य है और द्रव्यार्थिक दृष्टि से अनन्य है ।
बीज में अंकुर की व्यवस्थितता व अव्यवस्थितता का प्रश्न करके शंकाकार द्वारा परिणाम का अभाव सिद्ध करने का प्रयास व उसका समाधान―अब शंकाकार कहता है कि अच्छा यह बताओ कि बीज अंकुर रूप से परिणम गया तो अंकुरत्व रूप से परिणमे हुये अंकुर में बीज व्यवस्थित है या नहीं? यदि अंकुरत्वरूप से परिणमे हुए अंकुर में बीज व्यवस्थित है तो जब बीज वहाँ व्यवस्थित है, पक्का है, सही है । तो बीज का और अंकुर का विरोध है, वह पूर्वापर चीज है, तो वहाँ अंकुर नहीं रह सकता । यदि कहो कि अंकुरपने से परिणमे हुए अंकुर में बीज अव्यवस्थित है, नहीं है, कोई व्यवस्था नहीं है तो इसके मायने यह हुआ कि बीज अंकुर रूप से परिणमा नहीं, तो दोनों हो बातों में जब दोष आ रहे हैं तो परिणाम, परिणमन, पर्याय कोई चीज न रही । इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि यह शंका भी संगत नहीं है, क्योंकि यहाँ, भी अनेकांत से निर्णय है । जैसे एक मनुष्य का उदाहरण लीजिये । जब मनुष्य आयु कर्म का और नामकर्म का उदय है और अंगोपांग पर्याय को वह प्राप्त है तो उस समय एक अंगुली जो उपांग है उस रूप आत्मा परिणमा ना? अचेतन की दृष्टि से देखें तो पुद्गल परिणमे, पर प्रदेश रचना की दृष्टि से देखें तो आत्मा के प्रदेश सर्व अंगोपांग में है, अब उस प्रदेश की दृष्टि से देखें तो अंगुली जीव है । इससे क्या समझा कि वीर्यांतराय कर्म के क्षयोपशम से यह अंगुली आत्मा संकोच और विस्तार पर्याय को पाता हुआ जैसे बचपन में अंगुली छोटी थी, अब बढ़ती जा रही तो अंगुली संकोच विस्तार को प्राप्त होता हुआ वह अंगुली जीव है उस समय वह अनादि पारिणामिक चैतन्यद्रव्य की दृष्टि से सत् है और पुद्गल पर्याय की दृष्टि से देखें तो पौद्गलिक जो धान्य है उस रूप से अवस्थित जो अंगुली उपांग है उस पर्याय की दृष्टि से भी सत् है और इससे ही सिद्ध है कि वह अनन्य है, अलग नहीं है । अब दूसरे पक्ष की बात देखिये―कि किस ढंग से यह अंगुली आत्मा से अलग है? जो इसमें संकोच विस्तार की पर्याय की दृष्टि से जचा उस दृष्टि से यह असत् है इससे सिद्ध हुआ कि कथन्चित भिन्न है । इसी प्रकार बीज और अंकुर में देखिये एकेंद्रिय वनस्पति नाम कर्म का उदय है और उस ही प्रकार के तिर्यंच आयु का उदय है उससे बीज पर्याय से जो परिणाम हुआ है वह जीव ही तो है । कंकड़ तो नही । सो वह बीज परिणाम से याने उस अंकुर से भिन्न है और वहाँ देखा जा रहा है अनादि पारिणामिक चैतन्य द्रव्य और इस प्रकार पौद्गलिक दृष्टि से भी देखें तो पौद्गलिक जो धान्य का बीज है सो उसमें जो एक इंद्रिय का रूप, रस, गंध, स्पर्श पर्याय की दृष्टि से देखें तो वह? थी दोनों अभिन्न हैं । वही बात बीज में है वही अंकुर में, इसलिए तो अनन्य हो गया और जब केवल पर्यायदृष्टि से देखें तो धान्य का जो बीज है वह उसी पर्यायरूप है और अंकुर है वह अन्य पर्यायरूप है इस कारण से वह भिन्न हो गया । इस कारण यह दोष नहीं दे सकते कि बीज से अंकुर भिन्न है तो परिणाम नही, अभिन्न है तो परिणाम नहीं । अनेकांत कथंचित व्यवस्थित है और कथंचित अव्यवस्थित है ।
अंकुर में वृद्धि होने से उसे बीज का परिणाम कहने की अशक्यता की एक शंका―अब शंकाकार कहता है कि परिणाम कोई चीज नही है । वस्तु की बदल पर्याय कोई चीज नही है, क्योंकि अगर परिणाम है बीज का वह, तो उसकी वृद्धि न होना चाहिये । जैसे कि दूध का परिणाम दही है तो दही कहीं चौगुना अठ गुना बढ़ तो नहीं जाता । तो ऐसे ही बीज अगर अंकुर रूप से परिणमे तो अंकुर बीज मात्र ही रहेगा । उसी वृद्धि न होना चाहिए । अनेक दृष्टांत हैं ऐसे चीज परिणमती है तो उसका रूप रंग बदलता है । वस्तु उतना ही रहता है । यदि कहा जाये कि पृथ्वी पानी के, रस के संबंध से वह अंकुर बढ़ जाता है तो अगर अंकुर बढ़ गया तो वह बीज का परिणमन तो न रहा । बीज का परिणमन तो वह कहलाया कि जो बीज बराबर हो और ढंग दूसरा हो जाये । जैसे बीज सड़ गया तो वह है बीज का परिणमन, पर अंकुर बन जाये तो वह तो बीज का परिणमन नहीं है । इसलिए परिणाम कोई चीज नही । यदि कोई कहे कि जब खाद और पृथ्वी और जल रस आदिक अन्य द्रव्य का संचय हो गया तो उस संचय होने से बढ़ना ही चाहिये । तो यह शंका भो युक्त नहीं है, क्योंकि अगर अन्य द्रव्य के संयोग होने पर बढ़ा तो उन द्रव्यों का संयोग कहलाया, किंतु बीज का परिणाम तो न कहलाया । जो बढ़े, जो चीज मिले वह उनका संचय कहलाया । यदि कहो कि बाहरी पदार्थों में संयोग से बढ़-बढ़कर वे सब बढ़ जाते हैं तो यह हो तो उल्टी बात है । अगर अन्य द्रव्यों का संयोग हो जाये तो वह चीज तो मिट जायेगी । बढ़ने की बात तो दूर रही । जैसे पेड़ में अगर लाख का संयोग हो गया तो पेड़ सूख जायेगा । ठूठ रह जायेगा, दुर्बल रह जायेगा । तो अन्य द्रव्यों के संयोग से बढ़ना नहीं होता बल्कि घटना होती है । अब अंकुर बीज परिणाम न रहा, पर्याय न रहा ।
अनंतर क्षण की परिणति को पूर्व की बदल सिद्ध करते हुए उक्त शंका का समाधान―अब उक्त शंका के उत्तर में कहते हैं कि परिणाम है और उसमें जो वृद्धि है वह अन्य कारण से है । इतना तो शंकाकार ने मान लिया यह कह कर कि अंकुर बीज मात्र होना चाहिये । तो परिणाम तो मान लिया दृष्टांत देकर भी मान लिया कि जैसे दूध का परिणाम दही हो, तो बढ़ा तो नहीं तो परिणाम तो मान लिया, सो परिणाम का निषेध तो न कर सके । रही वृद्धि के अभाव के प्रसंग की बात सो उसकी वृद्धि अन्य कारणों से है । जैसे मनुष्य को ही देख लो । जो छोटा बालक उत्पन्न हुआ तो मनुष्यायु कर्म के उदय से और मनुष्य गति आदिक नाम कर्म के उदय से बालक उत्पन्न हुआ तो बालक कितना सा छोटा, अब उसको बाह्य कारण मिलते हे दुग्धपान आदिक अच्छे मक्खन आदिक के आहार और भीतर में वीर्यांतराय कर्म का क्षयोपशम चल रहा जिससे जठराग्नि उसकी युक्त चल रही है और निर्माण नामक कर्म का उदय साथ ही तो उससे वह बच्चा बढ़ता जाता है । बड़ा हो जाता है । तो परिणाम बना कि नहीं बना । तो यही बात बीज और अंकुर में है । वनस्पति नामक आयु कर्म का या नाम कर्म का उदय है तो वह बीज रूप बना । वह जीव अंकुर हो गया आयु कर्म यद्यपि चार कहा पर चार ही न जानें । जैसे तिर्यंचायु कहा तो मूल तो हो गई तिर्यंचायु, पर जितनी तरह के तिर्यंच हैं उतनी तरह के आयु कर्म हैं । ऐसी ही नाम कर्म की बात है, तो वह एक जीव बीज बन गया बीज के आधार से जीव अंकुर पर्याय में उस भव वाला बन गया । अब अंकुर बना तो उस समय जो बीज का परिणाम हुआ वह तो छोटी शकल में हुआ मगर उसे पानी, हवा, पृथ्वी, रस, खाद आदिक मिलने से और भीतर में उसके जीव के वीर्यांतराय का क्षयोपशम होने से और अपने अनुरूप निर्माण नाम कर्म का उदय होने से अब वह अंकुर बढ़ जाता है । तो बढ़ने का तो यह कारण है, पर अंकुर परिणाम है बीज का, यह तो मान ही लिया । यहाँ काल द्रव्य के उपकार में वर्तना का वर्णन किया गया था । अब परिणाम का वर्णन चल रहा है । तो शंकाकार यह सिद्ध कर रहा कि परिणाम तो कुछ है ही नहीं, उसी के उत्तर में यह बात कही जा रही है कि शंकाकार का जो यह कहना है दूध का परिणाम दही हुआ तो वह कहीं वह डाल की तरह तो नहीं बढ़ जाता । परिणाम हो गया तो बीज का परिणाम अंकुर हुआ है तो उसे भी बढ़ना न चाहिए । तो उत्तर यह दिया कि परिणाम तो उस समय की बात है जब बीज में अंकुर रूप बात हुई । अब उसकी बढ़वारी का कारण अन्य चीज है ।
सर्वथा क्षणिकैकांतवाद में बदल की असंभवता―प्रकृत बात यह है कि जो शंकाकार स्याद्वादियों पर दोष मढ़ रहे थे कि यदि अंकुर बीज का परिणाम है तो उसे बढ़ना न चाहिये, और चूँकि वह बढ़ता है इसलिये वह परिणाम नहीं है । तो यह दोष तो एकांतवादियों को लगेगा, स्याद्वादियों को नहीं लगता । कैसे कि अगर नित्यता का एकांत कर लिया तो वहाँ तो परिणमन होता ही नहीं क्योंकि कुछ विकार नहीं हुआ । कुछ परिणमन न होना, ज्यों का त्यों कूटस्थ रहना यह ही तो नित्य एकांत है । तो जो नित्य एकांत मानते उनके यहाँ वृद्धि नहीं हो सकती, और जो क्षणिक एकांत मानते उनके यहाँ भी वृद्धि नहीं हो सकती । वह पदार्थ तो क्षण भर भी न रहा और जन्मा ही जन्मा और नष्ट हा गया । जब अनेक समय रहे तब तो कहा जायेगा कि यह वृद्धि को प्राप्त हुआ और फिर क्षणिक एकांत में तो सभी चीजें क्षणिक हैं जो खाद डाला वह भी क्षणिक, जो पानी डाला वह भी क्षणिक । वह चीज ही नहीं रहती । जो अंकुर है वह भी क्षणिक । तो उनका जब विनाश ही हो गया दूसरे समय में तो वृद्धि कैसे कहेंगे? इससे क्षणिकवाद में या एकांतवाद में यह दोष आता है कि बीज का परिणाम अंकुर है तो वह बढ़ नहीं सकता, पर स्याद्वाद में यह दोष संभव नहीं है ।
सर्वथा क्षणिकवाद में प्रबंध सिद्धांत से भी बदल की सिद्धि की अशक्यता―यहाँ क्षणिकवादी कहते हैं कि यद्यपि पदार्थ सब क्षणिक हैं मगर उनकी वृद्धि हो सकती है, वह कैसे? क्षणिकवाद में तीन तरह के प्रबंध माने हैं । (1) संभाग रूप, (2) क्रमापेक्ष और, (3) अनियत । संभाग रूप का अर्थ है सदृशता वाला । जैसे दीपक से दीपक पैदा होते जा रहे तो वे सदृश हैं, वे बढ़ते जा रहे कह सकते हैं या जैसे किसी स्रोत से स्रोत चला आ रहा है तो वह सदृश है ना, बाती भी समान, दीपक की ज्योति भी समान, तो जो समान रूप प्रबंध है, बढ़ रहा है, जैसे बिजली जली और एक घंटे तक जल रही है तो जो एक घंटे तक बढ़ी वह संभाग रूप प्रबंध है । क्रमापेक्ष प्रबंध वह कहलाता जैसे कोई मनुष्य बच्चा है, फिर कुमार बना, फिर जवान बना तो यह क्रमापेक्ष प्रबंध है । तो बीज और अंकुर का भी क्रमापेक्ष प्रबंध है । बीज था अंकुर हुआ, अब जवान हुआ अर्थात पेड़ बन गया तो यह उसमें क्रमापेक्ष प्रबंध है । तीसरा प्रबंध होता है अनियत । जैसे मेघ में इंद्र धनुष की रचना हुई, अनेक वर्ण उसमें बंधे हुये हैं तो यह अनियत प्रबंध है । तो इन प्रबंधों की वजह से वृद्धि होती रहती है । तो अंकुर में जो वृद्धि जंच रही है वह क्रमापेक्ष प्रबंध से जंच रही है । स्याद्वादी यहाँ उत्तर देता है कि क्षणिकवादियों का यह कहना शोभा नहीं देता क्योंकि ये बतायें कि जिनका प्रबंध बना रहे, तीन प्रकार का बनावें या कितने ही प्रकार का प्रबंध वे सत् पदार्थों में बना रहे कि असत्, पदार्थों में बना रहे? या सत् असत् दोनों प्रकार के पदार्थों में बना रहे? असत् में तो प्रबंध बनता नहीं । जैसे कि बंध्या का पुत्र, अब उसमें क्या प्रबंध बनता? और एक सत, हो एक असत् हो उसमें भी प्रबंध नहीं बनता । जैसे गधा और गधे का सींग । गधा तो है पर खरविषाण नहीं है तो उन दोनों में भी क्या प्रबंध बनेगा? और अगर कहो कि सत् में प्रबंध बनता है तो एक क्षण को अगर सत् रहे तो उसमें क्या प्रबंध, कौन बढ़ा, क्या हुआ? और अगर अस्तित्त्व रहता है तो क्षणिक न रहा, इस कारण एकांतवाद में तो यह दोष आता है कि परिणाम में वृद्धि न होना चाहिये, किंतु स्याद्वाद में यह दोष नही है ।
सर्वथा नित्यैकांतवाद में भी परिणाम की सिद्धि की अशक्यता―अब एक एकांतवादी यह प्रश्न रख रहा या अपना सिद्धांत रख रहा कि ध्रौव्य एकांत में तो परिणाम बन सकता है । जैसे कि अभी क्षणिकवादियों में किसी भी तरह वृद्धि सिद्ध करना चाहा था तीन तरह के प्रबंध बताकर, तो अब दूसरा नित्य एकांतवादी भी अपनी बात रख रहा है कि पदार्थ तो नित्य व्यवस्थित है । अब द्रव्य में अन्य धर्म दूर हो गये और अन्य धर्म आ गये इसी के मायने परिणाम है । वस्तु तो ध्रुव है, कूटस्थ है, नित्य है, उस वस्तु में अन्य धर्म के आने का नाम परिणाम है । एक धर्म हट गया दूसरा धर्म आ गया, उसी को परिणाम कहते हैं । वस्तु वही है, वस्तु अवस्थित है, ध्रौव्य है । जो है सो है । जैसे दूध से दही बना तो अब उस रस में पुद्गल में दूध का धर्म तो दूर हो गया और दही का धर्म आ गया तो परिणाम कहलाने लगा । नित्य एकांत में परिणाम बन गया । इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि नित्य एकांत में परिणाम नहीं बनता । जिसका परिणाम होवे फिर वह पदार्थ सर्वथा अवस्थित तो न रहा । जिसमें बदल आ रही है वह वस्तु सर्वथा ध्रुव न रही, और अगर कोई द्रव्य है उनसे अलग, धर्म से अलग, जिन धर्मों के दूर होने से और जिस धर्म के आने से परिणाम बताते हो उन धर्मों से अलग द्रव्य रहा तो गुणों के समुदाय से अलग कहलाया फिर वह द्रव्य, फिर इसको शंकाकार ने यह बताया था कि गुण के समुदाय को द्रव्य कहते हैं, फिर उनका यह कथन गलत हो जाता, और फिर यह बतलाओ कि उस द्रव्य में से जो धर्म दूर हुआ और जो धर्म आ गया और जो बना रहा, ये जो तीन बातें हैं ये गुण समुदाय रूप हैं या उससे भिन्न हैं । यदि कहो कि गुण समुदाय रूप हैं तो वही पहिले था वही पीछे रहा ज्यों का त्यों ही रहा फिर कौन किसका परिणाम कहलायेगा, न्याय तो यह कहता है कि निवृत्त तो अन्य होना चाहिये, अवस्थित अन्य होना चाहिये और उत्पन्न कुछ अन्य होना चाहिये । यदि कहा जाये कि निवृत्त होने वाला व उत्पन्न होने वाला तत्त्व गुण समुदाय से भिन्न कुछ अन्य हैं तो ‘‘गुण समुदाय मात्र द्रव्य है’’ इस प्रतिज्ञा की हानि हो जायेगी । बात यह है किसी एकांत में परिणाम नहीं बन सकता है, ध्रौव्यैकांत में कोई धर्म निवृत्त होवे कोई उत्पन्न होवे यह कैसे बन सकता है । अच्छा गुण समुदाय को द्रव्य कहने वाले एकांतवादी यह बतायें कि समुदाय गुणों से अन्य है या अनन्य है? यदि अनन्य हैं तो गुण ही है ऐसी समुदाय कल्पना न बनेगी गुणों के अभाव से गुणों का भी अभाव हो जायेगा । यदि गुण समुदाय से अन्य है तो गुण समुदाय द्रव्य है यह संगत न रहा फिर परिणाम कैसे सिद्ध होगा ।
किसी एकांत हठ में परिणाम की सिद्धि न होकर स्याद्वाद सिद्धांत में परिणाम की सिद्धि की संभवता―किसी भी एकांतवाद में परिणाम नहीं बन सकता, क्योंकि परिणमन नाम है पूर्व परिणमन की निवृत्ति हो, कोई नये परिणमन का आविर्भाव हो तो परिणमन कहलाता । यह न रहा अब यह हो गया, ऐसा जहाँ ज्ञात हो उसे परिणमन कहते हैं । तो जो नित्य एकांत वाले हैं उनमें तो परिणमन माना ही नहीं और जो क्षणिक एकांत वाले हैं उनका जब पदार्थ दूसरे क्षण ठहरता ही नहीं तो परिणमन कैसे कहलायेगा । दो क्षण ठहरे हुये बिना परिणमन नहीं बन सकता, इसी प्रकार अन्य भी एकांत जैसे ब्रह्माद्वैत, ज्ञानाद्वैत आदिक जो अद्वैत एकांत हैं उनमें परिणमन नहीं बन सकता, वे केवल एक परमब्रह्म को ही मानते हैं और वह अद्वैत है मायने वही मात्र एक है और परिणमन हो जायेगा तो दो दिखने लगेंगे । यह कुछ और तरह था, अब यह कुछ और तरह है । तो अद्वैत एकांत में भी परिणमन नहीं बन सकता और कोई प्रत्येक पर्याय को भिन्न-भिन्न ही द्रव्य मान ले, नाना मान ले तो भी परिणमन नहीं बन सकता । परिणमन तो जो सदा रहता है और उसमें समय-समय पर अवस्थायें नई बनती हैं उसे परिणाम कहते हैं । सो द्रव्यार्थिकनय से तो अन्य भाव बनता नहीं मायने वही एक वस्तु है और पर्यायार्थिकनय से भी अन्य-अन्य जीव दिख रहे हैं सो जो वस्तु नित्य हो और पर्याय दृष्टि से अनित्य हो वहां परिणमन बनता है । सो यह परिणाम काल द्रव्य का उपकार है । काल द्रव्य का प्रतिक्षण में एक-एक समय रूप वर्तना होती रहती है और उनके समुदाय रूप व्यवहार काल गुजरता है तो परिणमन नजर आता है । एक समय की वर्तना में परिणमन नहीं कहा जा सकता, वह तो उस समय जो है सो ही है । परिणमन तो तब कहा जायेगा जब कि पूर्व समय में कुछ और अगले समय में कुछ और हुआ । तो परिणमन अनेक समयों में ही बनते हैं ।
काल द्रव्य का उपकार क्रिया उपग्रह―अब परिणाम के बाद क्रिया के विषय में बात करते हैं । काल द्रव्य का उपकार क्रिया उपग्रह है । क्रिया मायने क्या है कि अंतरंग और बाह्य कारण के वश से जो परिस्पंदात्मक स्थिति होती है उसको क्रिया कहते हैं । हलन चलन यह सब क्रिया कहलाती है । क्रिया गुण तो स्वभाव से ही होता है । कोई किसी के प्रयोग से होता है । जैसे गाड़ी चल रही है तो यह प्रयोग से क्रिया हो रही । चाहे वहाँ गाड़ी का प्रयोग या यंत्रों का प्रयोग हो, और मेघ आदिक जो चलते हैं उनकी क्रिया प्रयोग बिना है । भले ही उनमें हवा का निमित्त है मगर बुद्धिमान कोई प्रयोग नहीं कर रहा है, अतएव मेघादिक की क्रिया विश्रसा निमित्तक क्रिया है । यहाँ एक शंका हो सकती है कि परिणाम में भी परिणमन हुआ है और क्रिया में भी परिणमन हुआ है, फिर परिणाम को और क्रिया को अलग-अलग क्यों कहा? इसका उत्तर यह है कि यहाँ परिणाम का अर्थ तो अपरिस्पंद वाली क्रिया है याने पदार्थ जहाँ है वहाँ ही ठहरा है, उसको हलन चलन की दृष्टि से नहीं निरखना है, किंतु पूर्व पर्याय का त्याग किया, उत्तर पर्याय का उत्पाद हुआ, इस तरह से देखें तो परिणाम तो अपरिस्पंद रूप है, किंतु क्रिया परिस्पंद रूप है । एक देश से दूसरे देश में पहुँचाने का नाम क्रिया है । तो ये दो प्रकार के भाव हैं जुदे-जुदे । परिस्पंदात्मक और अपरिस्पंदात्मक । जो परिस्पंद रूप क्रिया है वह तो क्रिया है और जो अपरिस्पंद रूप है वह परिणाम है । ऐसा परिणाम और क्रिया में अंतर समझना । जैसे व्यवहार काल हुये बिना परिणाम नहीं होता है ऐसे ही व्यवहार काल हुये बिना क्रिया भी नहीं होगी, अथवा कोई एक समय की क्रिया होती है, सिद्ध जीव एक समय में सात राजू पहुँचा है और परमाणु में 14 राजू तक गमन करने की भी क्रिया होती है । तो परिस्पंद तो क्रिया है और वहीं की वहीं अवस्थित रहते हुये बदलने का नाम परिणाम है ।
काल द्रव्य का उपकार परत्व व अपरत्व उपग्रह―अब क्रिया के बाद परत्व अपरत्व देखिये । परत्व मायने जेठा, अपरत्व मायने बहुरा । परत्व, अपरत्व कई दृष्टियों से अनेक प्रकार हैं, किंतु यहाँ काल दृष्टि का परत्व अपरत्व लेना । जैसे परत्व और अपरत्व जिसे ठेठ भाषा में बोलते परे और उरे, तो यह क्षेत्र संबंधी बना । जो आकाश प्रदेश से बहुत दूर हो सो पर और पास हो सो अपर । एक ही दिशा में बहुत से आकाश प्रदेशों को व्यतीत कर जो दूर पहुँचा है वह पर है और जो थोड़े प्रदेशों को व्यतीत कर रहा है सो अपर है । पर अपर प्रशंसा अर्थ में भी आता । जैसे धर्म पर है, उत्कृष्ट है क्योंकि उसमें अहिंसा आदिक अनेक गुण हैं और अधर्म अपर है, जघन्य है । कहीं काल हेतुक भी पर अपर होता और 100 वर्ष की आयु का हो वह पर है, जो 20 वर्ष की आयु का हो वह उसके आगे अपर है । जेठा और लहुरा, तो यहाँ काल के प्रकरण में कालकृत पर अपर जानना । और इस काल दृष्टि से एक पुरुष मुनि है और छोटी उमर का है और एक अव्रती वृद्ध पुरुष बैठा है तो काल की अपेक्षा उस अव्रती पुरुष को पर कहेंगे, और उस मुनि को अपर कहेंगे । तो यहाँ जो परत्व अपरत्व बताया है वह कालकृत बताया है, ऐसे परत्व, अपरत्व भी काल द्रव्य के उपकार है।
काल द्रव्य की वर्तना भी काल द्रव्य का उपकार―यहाँ एक जिज्ञासा होती कि सब तो काल द्रव्य के उपकार हैं, पर काल द्रव्य का भी उपकार करने वाला कोई जरूर होगा । काल द्रव्य में परिणमन कौन करने आयेगा? अन्य गयी के परिणमन में काल को निमित्त कहा है तो काल द्रव्य के परिणमन में कौन निमित्त होगा? उत्तर यह है कि चूंकि परिणमन में निमित्त कालद्रव्य होता है सो वही काल अपने परिणमन में भी निमित्त है और अन्य के परिणमन में भी निमित्त है । नहीं तो ऐसे ही और भी प्रश्न हो सकते । आकाश तो दूसरों को अवगाह देने में निमित्त है । तो आकाश को अवगाह देने में कौन निमित्त है? आकाश खुद निमित्त है । आकाश अपना अवगाह भी किये है और पर पदार्थों का भी अवगाह करना है ।
वर्तना की एकसमय रूपता व कालभेद रहितता―एक बात यहाँ यह भी समझना कि सूत्र में जो वर्तना शब्द कहा है उससे ही सारा अर्थ आ जाता, पर परिणाम क्रिया वगैरह कहने की क्या जरूरत थी? कह देते कि काल द्रव्य का उपकार वर्तना है, परंतु इन सबके कहने का प्रयोजन यह निकला कि परिणाम परत्व अपरत्व ये परिणमन तो सब द्रव्यों में पाये जायेंगे और काल द्रव्य में वर्तना लक्षण है । तब ही कहते हैं कि जिसका वर्तना लक्षण है उसे निश्चय काल कहते हैं । काल दो प्रकार का होता है । (1) परमार्थकाल और, (2) व्यवहार काल । तो परमार्थ काल तो काल द्रव्य है जो कि लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर एक-एक काल द्रव्य ठहरा हुआ है । और वह वर्तना का उपकारक है । वह समस्त काल द्रव्य अवयव रहित है अर्थात् एक प्रदेशो ही है । जो अनेक प्रदेशी होगा उसमें अवयव की कल्पना हो जायेगी । यह भाग इधर है, यह भाग उधर है, ऐसा काल द्रव्य एक प्रदेश है इस कारण उसमें अवयव की कल्पना नहीं होती । तो जब अनेक प्रदेश नहीं होते तो काल द्रव्य को अस्तिकाय नहीं कह सकते । यह काल द्रव्य रूप, रस, गंध, स्पर्श से रहित है इस कारण अमूर्त है । यह काल द्रव्य अपनी ही जगह पर स्थित है, दूसरे प्रदेश पर नहीं पहुंच सकता इस कारण निष्क्रिय है और व्यवहार काल परिणाम क्रिया परत्व अपरत्व इस रूप है । कई समयों का परिणमन जाना जाये वह व्यवहार काल से ही जाना जाता है । काल तीन प्रकार का कहा गया है । जैसे तीनों काल परस्पर सापेक्ष हैं । जैसे कोई पुरुष किसी मार्ग से जा रहा है और मार्ग पर अनेक द्रव्य हैं? तो अनेक द्रव्य गुजर गये तो वे भूत हो गये और अनेक द्रव्य अभी आयेंगे वे भविष्य हो गये, और जिस वृक्ष की छाया में मौजूद है वह उसकी वर्तमान गति हो गई । तो उसमें जैसे यह व्यपदेश होता है कि इतने वृक्ष पा चुके अभी इतने वृक्ष पायेंगे । अब पाया और पायेंगे, इन दोनों के बीच में जो है वह वर्तमान कहलाता है । तो यह व्यवहार भूत, भविष्य, वर्तमान यह व्यवहार काल में तो मुख्य है और परमार्थ काल में गौण है याने काल द्रव्य के संबंध में भूत भविष्य की पर्यायें कुछ नहीं देखी जा रहीं । वहां तो प्रथम वर्तना मात्र लक्षण परखा जाता है । अब फिर भी इनमें परस्पर अपेक्षा बतलाते हैं कि जो द्रव्य क्रिया परिणत काल परमाणु को प्राप्त होता है अर्थात समय को प्राप्त होता है वह द्रव्य उस काल से वर्तमान समय वाली वर्तना से सहित है और जितने को पा चुका वह भूत है और जितनी वर्तनाओं को पायेगा वह भविष्य है, तो ऐसे ही घड़ी घंटा, दिन, वर्ष आदिक भी लगाया जा सकता है ।
क्रिया के अतिरिक्त अन्य किसी काल द्रव्यपने की असिद्धि की शंका―यहाँ कोई शंकाकार कहता है कि काल तो क्रियामात्र का नाम कहा जायेगा, अलग कोई द्रव्य नहीं प्रतीत होता । एक परमार्थ परमाणु मंद गति से आकाश के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश पर पहुंचे उसे एक समय कहेंगे । इसमें काल द्रव्य की क्या जरूरत है और उसके आगे फिर व्यवहार काल बन जायेगा । तो सारा यह काल का व्यवहार क्रियाकृत है । जो भी समय नाम का परिणमन वर्तना कहा है सो परमाणु के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश पर जाने में जो समय गुजरा वह है समय, पर कोई काल द्रव्य मानने की आवश्यकता नहीं है । समय जाना गया, अब उन समयों का जो समूह होगा वह आवली हो गया और आवलियों का समूह उच्छ्वास हो गया, इस तरह बढ़ाते जाइये तो घंटा, दिन, महीनों, वर्ष, युग यों सब बढ़ाते चले जाओ । तो क्रिया ही काल रही, काल द्रव्य नामक द्रव्य कुछ अलग न रहा, और लोग बोलते ही हैं―जैसे गाय दुहने के समय आप आ जाना? या नाश्ता के समय आप आ जाना, ऐसा कहा, तो लोग जानते हैं कि कोई एक घंटा दिन चढ़े नाश्ता का समय कहलाता, या सवेरा होते ही गाय दुहने का समय आ जाता, सो वह उस समय पहुँच जाता, तो क्रिया में भी काल का व्यवहार देखा जाता है ।
क्रियामात्र को काल मानने पर अनेक आपत्ति प्रसंग बताते हुये उक्त शंका का समाधान―उक्त शंका का उत्तर यह है कि परिणमन रूप एक समय के अभाव में इन सबमें काल का व्यपदेश नहीं हो सकता है । हाँ व्यवहार तो क्रियाकृत है । जैसे लोग कहते हैं कि यह कार्य मुहूर्त भर में कर लिया तो व्यवहार तो हो गया क्रिया के द्वारा, मगर उस परिणमन में उस सत्ता की अनुभूति में जो समय गुजरा उस समय को किसकी पर्याय कहेंगे । दूसरी बात यह है कि अगर वास्तव में काल कोई मुख्य न होवे तो उपचार से या अन्य किसी से काल शब्द का नाम ही न बोला जा सकेगा । जैसे कहा कि देवदत्त छत्री है मायने छतरी लिये हुये है तो इससे ही तो सिद्ध हो गया कि छतरी का संबंध है, उसमें तो ऐसे ही किसी भी चीज में संबंध का जोर लेते हैं तो समय नाम की कोई चीज सिद्ध तो हो जाती है अन्यथा काल का व्यवहार ही न हो सकेगा । अब यह देखिये कि जिसका मत है कि क्रियामात्र को ही काल कहते हैं, और वर्तना में लक्षण वाला काल कुछ नहीं है तो उसके यहाँ वर्तमान काल बन ही नहीं सकता । कैसे? जैसे कपड़ा बुना जा रहा है तो जितना सूत बना बन चुका वह तो अतीत हुआ, जितना सुत आगे आयेगा वह भविष्य हुआ, अब वर्तमान क्या रहा? यदि क्रिया मात्र को काल कहते हैं तो क्रिया में इतना गुजरा, इतना गुजरेगा, ये दो भाग होते हैं । क्रिया स्थिर चीज तो है नहीं जो एक वर्तमान का संकेत कर सके । तो जितना बुना गया वह तो अतिक्रांत है, जितना बुना जायेगा वह आगामी है । अब वह कौन सी क्रिया है जो न अतिक्रांत है और न आगामी वाली है, जिसको कि वर्तमान शब्द से कह सकें । तो वर्तमान तो न बना, और वर्तमान जब न बना तो वर्तमान की अपेक्षा से ही अतीत और भविष्य बोलते हैं तो उनका भी अभाव हो गया । इसलिये क्रिया का नाम ही काल है, काल नामक कोई द्रव्य नहीं है, यह कथन संगत नहीं है ।
कार्य के प्रारंभ से कार्य की समाप्ति न होने तक की क्रियाओं को वर्तमान कहने और उससे काल द्रव्य की असिद्धि बनाने का व्यर्थ प्रयास―अगर कोई कहे कि जब से कोई काम प्रारंभ किया और जब तक वह काम पूरा न हो, उसके बीच में वह सारा क्रिया समूह वर्तमान, कहलाता है ऐसी यदि कोई शंका करे तो वह युक्त नहीं है, क्योंकि क्रिया समूह तो तब बने कि पहले क्रिया काल कहा जाये तब फिर उनका समूह बनाया जाये और फिर जो क्षणिकवादी हैं उनमें क्रियाओं का समूह बन ही नहीं सकता । तो क्रिया समूह को काल माने और उसे वर्तमान माने, यह कैसे कोई मान सकता है? वर्तमान जो होगा वह एक ही समय को होगा । जहाँ दो समय आये, तीन समय आये वहाँ भूत और भविष्य बनाइये । पर स्याद्वादियों के यहाँ केवल वर्तना को काल मानते हैं । एक समय की स्वसत्तानुभूति तो प्रथम समय की क्रिया यह वर्तमान हुई और द्वितीय आदिक समय की जो किया होगी वह अपने-अपने समय में तो वर्तमान है, पर पूर्व की अपेक्षा भविष्य है, आगे की अपेक्षाभूत है, फिर भी द्रव्य दृष्टि से उन सबकी स्थिति मानकर समूह की कल्पना की जाती । क्रियाओं का समूह एक जगह कैसे हो सकता? द्रव्यार्थिकनय से उनको एक क्रियापने से स्थित मानकर समूह की कल्पना होती है । एकांतवादी तो क्रिया समूह कह भी नहीं सकते और फिर जो यह कहा जाता कि क्रिया होने के बाद और काम पूरा न हो चुकने तक जितनी भी क्रियायें चल रही हैं, उसे वर्तमान कहते हैं । जैसे घड़ा बनने की क्रिया चल रहो है तो वह तो अनेक समयों की बात कही जा रही फिर भी एक द्रव्यार्थ दृष्टि करके वर्तमान का प्रयोग किया जाता है । क्रिया वास्तव में तो पदार्थ की परिणति विशेष का नाम है और वह परिणति विशेष क्या पदार्थ से जुदा है क्या अलग रहती है? जैसे सर्प का टेढ़ापन सर्प से जुदा नहीं है ऐसे ही क्रियावान पदार्थ से क्रिया भिन्न नहीं है । सो जो क्रिया समूह को काल कहेंगे वहाँ न तो क्रिया बन सकती और न क्रिया समूह बन सकता और न एक क्रिया से दूसरी क्रिया का ज्ञान हो सकता, क्योंकि क्रिया तो क्षणमात्र को होती है, उसे इकट्ठा किया जा सकता, और कैसे जाना जा सकता? इस कारण क्रिया का नाम काल नहीं है, किंतु काल नाम का द्रव्य है और लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर रहता है और उसका परिणमन एक-एक समय चलता है ।
काल द्रव्य के न होने की कल्पना में क्रिया की भी असिद्धि―यहां बात यह कही जा रही है कि समय का व्यवहार तो क्रियाकृत होता है मगर जो परिणमन हुआ वस्तु में उस परिणमन का निमित्त कारण काल द्रव्य की समय नामक पर्याय है, क्योंकि यदि क्रियामात्र को ही काल कह दिया जाये तो वर्तमान समय कुछ नहीं रह गया, क्योंकि वर्तमान मात्र एक समय में तो क्रिया का सद्भाव नहीं है और क्रिया समूह को अगर क्रिया कहेंगे तो क्रिया का समूह बन कैसे सकता, क्योंकि वह तो पहले हुई, बाद में हुई, और बाद में हुई । समय के अनुसार होती गई । तो समूह तो तब बनता जब वर्तमान में वे सब हों, किंतु क्रियाओं का समूह वर्तमान में तो नहीं है, सो वर्तना क्रिया समूह भी नहीं कहा जा सकता । जो रिवाज है बहुत से समयों की क्रिया को वर्तमान में कहने का वह उपचार से कथन है । जैसे जब से कुम्हार ने चाक पर मिट्टी का लौंधा रखा तब से लेकर जब तक घड़ा नहीं बन जाता तब तक 10-15 मिनट तक कहते हैं कि घट बनाने की क्रिया हो रही । तो उन क्रियाओं का द्रव्यार्थ दृष्टि से याने सामान्य दृष्टि से बुद्धि में समझकर विचार करके कहा जाता है, काल का अभाव लोग इसी कारण तो करते हैं कि काल कोई भिन्न रूप से उपलब्ध नहीं हो रहा, सो यदि काल को न माना जाये तो क्रिया और क्रिया समूह भी कुछ नहीं रहता ।
क्रिया से क्रिया का ज्ञान न होने से काल के बिना क्रिया से सिद्धि की अशक्यता―क्रिया से दूसरी क्रिया का ज्ञान नहीं होता, किंतु स्थिर चीज हो उस स्थिर चीज से तो कुछ ज्ञान बनाया जा सकता है पर अस्थिर और पूर्वापर समय में होने वाली घटना से अन्य काल की घटना का ज्ञान नहीं किया जा सकता । जैसे कोई मापने के बर्तन होते हैं, गेहूँ, घी, तेल आदिक जिनमें भरकर ये नाप दिये जाते हैं, उससे नाप कर बता देते कि यह इतना हो गया । तो वह जो माप है प्रस्थ वह स्थिर है और उसमें जो गेहूँ आदिक भरे जाते वे भी स्थिर हैं तो स्थिर से स्थिर का विभाग तो जाना जाता परंतु क्रिया क्षणमात्र ही रहती है, तो क्षणमात्र ठहरने वाली क्रिया से अन्य क्रिया का विभाग और ज्ञान कैसे किया जा सकता? जो स्वयं अवस्थित नहीं है वह अन्य अवस्थित क्रिया का परिच्छेद कैसे हो सकता? यदि शंकाकार यह कहे कि देखो प्रदीप तो अवस्थित नहीं है और वह भी घटादि का परिच्छेदक होता है । यह कहना यों ठीक नहीं है कि स्याद्वाद शासन में प्रदीप को या परिणमती हुई किसी वस्तु को सर्वथा क्षणिक नहीं माना गया है । दीपक जल रहा है मगर पदार्थों का जो प्रकाश हो रहा वह निरपेक्ष एक समय के दीपक से नहीं हों सकता । प्रकाशन आदिक कार्य अनेक क्षणों में साध्य होते हैं, सो अन्य क्रियाओं में तो बात निभती है पर परिच्छेद्य और परिच्छेदक भाव मायने ज्ञेय ज्ञायक भाव ये समूह में नहीं बनते, क्योंकि क्षणिक तत्त्व का समूह ही नहीं बन सकता ।
काल के उपकारों का उपसंहार―यहाँ काल द्रव्य के उपकार कहे जा रहे हैं जिससे प्रथम वर्तना को बताया है । वह तो एक समय की जो कुछ पर्याय की अनुभूति है वह वर्तना कहलाता है । यह वर्तना कालद्रव्य में भी होती है सभी द्रव्यों में होती है । पर वर्तना लक्षण काल है, यह इस कारण से कहा है कि काल में परिणाम आदिक नहीं होते उसमें निरपेक्ष प्रति समय एक-एक समय की पर्याय होती जती है इसलिए वर्तना लक्षण काल का कहा गया है । अब आगे वर्तनाओं का जो समूह बनता है वह परिणामी कहलाता है । जैसे कोई वस्तु बदल गया अर्थात पर्याय कुछ हो गया तो यह परिणमन है । यह एक समय में नही बनता, किंतु बदल समझने के लिए पूर्व और उत्तर समय तो जानने ही पड़ेंगे । परिणाम का अर्थ यहाँ लिया गया अपरिस्पंदरूप परिणमन याने गमन, हलनचलन ये परिणाम में विवक्षित नहीं हैं, किंतु वस्तु के गुण में जो बदल होती है पर्यायरूप से वह परिणाम कही गयी है । और जो परिस्पंद है वह गुणों की क्रिया नहीं किंतु प्रदेश की क्रिया है । तो परिस्पंदरूप क्रिया परत्व अपरत्व जो उपकार बताये गये हैं सो व्यवहार में लोग कैसे कह सकते हैं कि यह जेठा है यह छोटा है यदि काल द्रव्य का उपकार नहीं । काल द्रव्य का उपकार है तब यह वहाँ बात है । एक बालक 2 साल पहले जन्मा था, दूसरा उससे 5 साल बाद जन्मा था तो उनमें परत्व अपरत्व का व्यवहार होता है । ये काल द्रव्य के उपकार कहे गये हैं ।
यहाँ उपसंहार के समय काल के अभाव की चर्चा की जा रही है कि काल द्रव्य मानने की आवश्यकता क्या ? और उसी प्रसंगो में प्रश्नोत्तर होते-होते यह बात बताई गई कि क्रिया का समूह काल नहीं हो सकता । यो उस प्रसंग में शंकाकार कहता है कि जैसे वर्णों की जो आवाज है वह तो क्षणिक है और उनका समुदाय पद बन जाता है वाक्य भी बन जाता है तो यह कहना कहाँ तक ठीक है कि क्षणिक क्रियाओं का समूह नहीं बन सकता । किसी ने यदि आत्माराम कहा तो जिस समय आ बोला उस समय अन्य शब्द तो नहीं बोले गये, जिस समय त् बोला गया उस समय आ शब्द खतम हो गया यों अगला-अगला शब्द बोला गया तो पहला-पहला शब्द खतम हो गया, तो खतम हो गया । क्षणिक भी है पर उन ध्वनियों का समुदाय पद माना गया है । अगर समुदाय का ज्ञान न हो तो जो व्यवहार चल रहा, ग्रंथ लेखन चल रहा वह सब कैसे चलता? तो जैसे क्षणिक वर्ण ध्वनियों का समुदाय पद और वाक्य बन जाता है वैसे ही क्षणिक क्रियाओं का समूह भी बन जायेगा, और उसे ही वर्तमान काल कह दीजिये । तो इसके उत्तर में कहते हैं कि यह शंका यों ठीक नहीं कि वर्ण ध्वनि भी क्षणिक नहीं है । वर्ण भी कथंचित नित्य है कथंचित अनित्य है । लो वर्ण ध्वनि अगर क्षणिक होती तो दूर देश में रहने वाले श्रोताओं को वे कैसे सुनाई देते और बल्कि बोला वर्तमान समय में और सुनाने वाला सुन रहा है उसके आगे के समय में तो वर्ण ध्वनियाँ क्षणिक हैं, यह बात नहीं बनती, यदि कोई यह कहे कि एक शब्द से दूसरे शब्द की उत्पत्ति हुई और ऐसे अन्य-अन्य शब्द उत्पन्न हो होकर दूर देश में रहने वाले मनुष्यों ने जाना तो जो असली ध्वनि है वह तो नष्ट हो गई, उसने दूसरे शब्द को पैदा कर दिया था, वह भी नष्ट हो गया । उसे तीसरे शब्द को पैदा कर दिया । इस तरह दूर देश रहने वाले श्रोताओं को सुनाई देने लगता है । यह समाधान करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि जिस क्षण में ध्वनि उत्पन्न हुई उसी क्षण में ही तो अन्य ध्वनि को पैदा नहीं कर सकते, क्योंकि उस क्षण तो वही उत्पन्न हो रही और अगले क्षण में वह ध्वनि रही नहीं, तो शब्दांतर कैसे पैदा किया? यह क्षणिकवादियों से चर्चा चल रही है क्षणिकवादी एक क्षण को सत् मानते हैं दूसरे क्षण नहीं । तो जो ध्वनि उत्पन्न हुई है वह वर्तमान क्षण में तो अपने आपको सत् बना रही है । दूसरे क्षण वह रहती नहीं है तो वह काल ही क्या करे? तो इससे शब्दांतर की उत्पत्ति का व्यवहार नहीं बन सकता ।
एकांतहठ में संस्कार की असिद्धि व क्रिया के आधार पर वर्तमान की असिद्धि―यदि शंकाकार यह कहे कि पहले-पहले ज्ञान हुए, उन ज्ञानों से संस्कार बना, उन संस्कारों के आधारभूत बुद्धि में समुदाय की कल्पना हो जायेगी । जैसे आ सुना और वह मिट गया मगर उससे संस्कार बना । श्रोता की बुद्धि में तो आया कि यह कहा गया फिर त् कहा, फिर मा कहा । ये मिटते जा रहे मगर सबका संस्कार तो बन रहा है । तो बुद्धि में उन 5 अक्षरों का समुदाय बना लिया, यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि क्षणिकवादी तो बुद्धि को भी क्षणिक मानते । यदि बुद्धि स्थिर होती तो उसमें समुदाय की कल्पना कर लेते कि अक्षरों का समुदाय तो बुद्धि में आ गया । तो जो लोग केवल नित्य ही मानते हैं, वहाँ बुद्धि संस्कार का आधार कैसे बन सकती क्योंकि सर्वथा नित्य में कोई परिणमन ही नहीं है और जो लोग सर्वथा अनित्य ही मानते हैं । क्षण भर को ही रहता है पदार्थ तो उनके यहाँ भी संस्कार का आधार बुद्धि नहीं बन सकता । स्याद्वाद शासन में द्रव्यदृष्टि से नित्य और पर्याय दृष्टि से अनित्य माना गया है । तो वहाँ बुद्धि भी नित्य और अनित्य दोनों रूपों को लिये हुए हैं । वहाँ संस्कार आ सकता है । क्षणिक बुद्धि में तो संस्कार भी नहीं बन सकता । तो जो सत् को नित्यानित्यात्मक बताते हैं उनके सिद्धांत में ही शक्ति और व्यक्ति रूप से व्यवस्थित क्रिया समूह के द्वारा काल का व्यपदेश बन जाता कि यह काम वर्तमान में हो रहा है । वर्तमान काल इतना सूक्ष्म काल है, एक समय वाला काल है कि उसमें कोई क्रिया ही नहीं बनती । जिन लोगों को क्रिया दिखती है वे असंख्यात समय की वर्तनाओं के समूह में देखते हैं । तो स्याद्वाद शासन में व्यवहारकाल सिद्ध होता है और उस व्यवहारकाल से, उन क्रियाओं से पदार्थों का ज्ञान होता है, और जब यह सब व्यवहारकाल है तो मुख्य काल भी कोई होना चाहिए । वह मुख्य काल है कालद्रव्य, और काल द्रव्य की प्रतिक्षण में वर्तना होती रहती है । एक-एक समय बनती रहती है । समयरूप परिणमन काल द्रव्य का है और समूह में घड़ी घंटा दिन आदिक की कल्पना की गई है ।
सूत्रोक्त उपकारों की अंतिम मीमांसा―यहाँ शंकाकार यह कह रहा था कि केवल वर्तना शब्द ही कहा जाता । उससे ही सारी परिणाम क्रिया ज्ञात हो जाती क्योंकि उन सब वर्तनाओं का समूह तो है मायने एक समय में जो पर्याय हुई है वह व्यवहार के काबिल नहीं है । मगर उनका समूह बना उसमें व्यवहार जगा है । तो आधार तो वर्तना ही हुई । सो वर्तना के सिवाय अन्य और शब्द न कहा जाना चाहिये सूत्र में । उनकी सिद्धि की कि यदि परिणाम शब्द न कहते तो व्यवहार ही न बन सकता था व्यवहार काल की बात न कहे तो कुछ समझाया ही न जा सकता था । एक समय की बात किसी की समझ भी नहीं आ सकती । वह केवल अनुमान गम्य है । तो व्यवहार काल की सिद्धि के लिए परिणाम क्रिया वगैरह कहा गया है । अब परत्व अपरत्व की बात सोचें । इनको अलग से ग्रहण करने की क्या जरूरत थी? कोई बालक दो साल पहले पैदा हुआ, दूसरा बालक उसके 2 साल बाद पैदा हुआ । यह तो समझ लिया, बस इसी समझ मे परत्व अपरत्व भी समझ लिया गया । फिर इसके कहने की क्या जरूरत थी? तो यहाँ उत्तर यह है कि इसमें यह समझना चाहिये कि परत्व अपरत्व अपेक्षाकृत है । एक वस्तु में परत्व का व्यवहार कैसे हो सकता? जब तक कोई दूसरा और बुद्धि में न रखे तब तक परत्व नहीं कह सकते । जैसे कहते कि यह लड़का जेठा है तो बुद्धि में तो आया कि कोई दूसरे लड़के को भी सोच रहा है जो उससे छोटा है और उसकी अपेक्षा बताया जा रहा कि यह लड़का जेठा है किसी के एक ही लड़का हो तो उसके तो नहीं कहा जा सकता कि यह जेठा है अथवा लहुरा । तो परत्व अपरत्व व्यवहार परस्पर सापेक्ष है । तो यह बात सूचित करने के लिए परत्व और अपरत्व शब्द का यहाँ अलग से ग्रहण किया गया है । द्रव्य का उपकार बताने वाले इस प्रकरण में यह अंतिम सूत्र है । इस सूत्र में वर्तना का सर्वप्रथम ग्रहण इसलिए किया है कि वह आदरणीय है, क्योंकि वर्तना द्वारा ही परमार्थ काल की जानकारी होती है । तो ऐसे अमूर्त पदार्थ सूक्ष्म पदार्थ की जानकारी का जो उपाय है वह आदरणीय क्यों न होगा । और उस वर्तना के अतिरिक्त जितने और उपग्रह कहे गये―परिणाम, क्रिया, परत्व, अपरत्व ये सब व्यवहार काल के सूचक हैं । तो व्यवहार काल की सूचना तो अप्रधान है और परमार्थ काल की जानकारी प्रधान है ।
अजीव प्ररूपक प्रकृत अध्याय में अब तक वर्णित अति संक्षिप्त स्मरण―इस अधिकार में अब तक छहों द्रव्यों की विशेषतायें बताई गई हैं । उनमें कुछ अस्तिकाय हैं, कछ अस्तिकाय नहीं हैं कुछ निष्क्रिय हैं कुछ क्रियावान हैं । किस द्रव्य के कितने भेद होते हैं, किस द्रव्य में केवल एक ही प्रदेश होता है आदिक बातों का सयुक्तिक वर्णन किया । इन सब द्रव्यों का रहना कहाँ हो रहा है, किस जगह अवकाश है और कौन द्रव्य लोक के सर्वदेश में रहता है, कौन द्रव्य थोड़े प्रदेश में रहता है, इसका वर्णन किया गया । इसके पश्चात उपकार का वर्णन चल रहा था कि कौन द्रव्य का परिणमन किस द्रव्य के किस परिणमन में निमित्त होता है । यहाँ उपकार का अर्थ निमित्त मात्र होता है । धर्म अधर्म द्रव्य का उपकार गति स्थिति बताया । आकांक्षा द्रव्य का उपकार अवगाह बताया, पुद्गल के उपकार बहुत हैं क्योंकि जितना भी जो कुछ समागम दिख रहा है वह सब पुद्गल का ही तो ढेर है । और उसका निमित्त पाकर जीव में भी जो बात होती है उन्हें भी पुद्गल का उपकार कहा है । इससे मुमुक्षुजनों को यह शिक्षा मिलती है कि सुख, दुःख, जीवन, मरण, वचन, मन आदिक मेरे स्वभाव से नहीं हुए, ये मेरे में उपकार नहीं हैं, किंतु कर्म विपाक का निमित्त पाकर ये अवस्थाएं बनी हैं । निमित्त भाव से हटकर स्वभाव भाव में आने को यह निमित्त नैमित्तिक भाव और भी प्रेरणा देता है । इसके बाद जीवों का उपकार बताया कि वे एक दूसरे का परिणमन करें, सहयोग दे और अंत में यह काल द्रव्य का उपकार कहा है कि किन-किन बातों का निमित्त काल द्रव्य होता है । इस प्रकार सब द्रव्यों का उपकार बताया । अब आगे इन सब द्रव्यों में सामने आये हुए दृश्य और उनके साथ अदृश्य इन पुद्गलों का लक्षण कहा जायेगा ।