वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 6-16
From जैनकोष
माया तैर्यग्योनस्य ।। 6-16 ।।
(73) तिर्यगायु के आस्रव के कारणों का प्रकाशन―चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से उत्पन्न हुआ जो आत्मा का कुटिल स्वभाव है, छल कपट का भाव है उसको माया बोलते हैं । यह माया छल कपट, लोगों को ठगना, तिर्यंचायु का आस्रव कराता है । सूत्र में माया एक संक्षिप्त शब्द है और उससे संबंधित कैसी-कैसी क्रियायें व परिणाम बन जाते हैं उनका कुछ विस्तार करते हैं । मिथ्यादर्शन सहित अधर्म का उपदेश करना, जिसमें वस्तुस्वरूप उल्टा बताया गया अथवा रागादिक के पोषने की बात बतायी गई, ऐसी अधर्मवृत्ति का उपदेश करना यह परिणाम तिर्यंचायु का आस्रव कराता है । बहुत आरंभ और बहुत परिग्रह होना, दूसरों को ठगना, खोटे
कार्य करना, खोटे लेख लिखना, अनेक षड्यंत्र बनाना, पृथ्वी की रेखा के समान क्रोधादिक होना, ये परिणाम तिर्यंचायु के आस्रव के कारण हैं । नरकायु में तो पत्थर की रेखा के समान क्रोध कहा था जो सैकड़ों वर्षों तक न मिटे । यहाँ पृथ्वी की रेखा के समान क्रोध कह रहे हैं, जैसे खेतमें हल चलाया जाता तो उससे जो लकीर बन जाती है वह लकीर सैकड़ों वर्षों तक नहीं रहती । साल छह माह भी नहीं टिक पाती, ऐसा क्रोध होना, शीलरहित भाव होना शब्द के संकेत से दूसरों के ठगने का षड्यंत्र बनाना, छल प्रपंच करने की रुचि होना, एक दूसरे की
फूट कराकर खुश होना, अनर्थ क्रियायें करना ये सब परिणाम तिर्यंचायुकर्म का आस्रव कराते हैं । पदार्थों में विकृति लाने का शौक रहना, वर्ण रस, गंध आदिक एक का दूसरे में मिलावट करना, विकृत करना, उसका शौक करना, मौज बनाना, किसी की जाति में, कुल में शील में दूषण लगाना, विवाद विसंवाद करने की रुचि करना, दूसरे में कैसे ही सद्गुण हों उनका लोप करना, प्रकट न होने देना और दोषादिक के रूप में जाहिर करना, अपने में कोई गुण नहीं है तो भी उन गुणों की प्रसिद्धि करना । अथवा जिससे प्रीति है, अनुराग है उसमें कोई गुण न हो तो भी उसके गुण बखानना । नील लेश्या और कापोत लेश्या जैसे परिणाम होना, आर्तध्यान रखना, मरण के समय में आर्त रौद्र परिणाम होना ये सब परिणाम तिर्यंचायु कर्म का आस्रव कराते हैं ।
अब मनुष्यायु के आस्रव के कारण बतलाते हैं―