वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 7-23
From जैनकोष
शंकाकांक्षाविचिकित्साऽन्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवा: सम्यग्दृष्टेरतीचारा: ।। 7-23 ।।
(190) सम्यक्त्व के पांच अतिचार―सम्यग्दर्शन के ये 5 अतिचार हैं । जैसे पहले यह संकेत किया था कि व्रतों की भावनायें होती हैं उसी प्रकार व्रतों के अतिचार का भी संकेत किया जायेगा । तो चूंकि व्रत सम्यग्दर्शनपूर्वक होते हैं और सम्यग्दर्शन के भी अतिचार संभव हैं। तो सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन के अतिचारों का वर्णन किया गया है । ये सम्यक्त्व के अतिचार स्थूल रूप से हों तो सम्यक्त्व भंग हो जायेगा पर कदाचित् किसी सूक्ष्म रूप से होता है तो उसके कारण सम्यक्त्व प्रकृति नामक मोहनीयकर्म का उदय विशेष है अथवा व्यवहार सम्यक्त्व के विषय में ऐसा प्रवृत्तिरूप अतिचार संभव है । वे अतिचार 5 ये हैं―(1) शंका (2) कांक्षा (3) विचिकित्सा (4) अन्यदृष्टि प्रशंसा (5) अन्यदृष्टिसंस्तव । नि:शंकित अंग में निःशंकितता का वर्णन किया गया था, तो उनसे उल्टा जो भाव है वह शंका कहलाती है । जैसे किसी प्रकार का जीवन में कुछ भय मानना या कुछ शास्त्र स्थूल में किसी प्रकार का संदेह होना यह सब शंका है और सम्यग्दर्शन के अतिचार है । नि:कांक्षित अंग में नि:कांक्षितपने का वर्णन किया गया था, उससे उल्टा भाव है कांक्षा, किसी प्रकार की सांसारिक बातों की, साधनों की इच्छा होना कांक्षा, है अथवा धर्मसेवन करते हुए भी जीवन का प्रयोजन होने से कभी किसी प्रकार की कांक्षा हो जाना कांक्षा है । यह सम्यग्दर्शन का अतिचार है । निर्विचिकित्सा अंग में ग्लानिरहितपने का वर्णन था, उससे उल्टा विचिकित्सा है । कर्मोदमभाव में खेद मानना निर्विचिकित्सा है, अथवा धर्मात्माजनों की सेवा करने में कोई ग्लानि करना विचिकित्सा है । यह सम्यग्दर्शन का अतिचार है―मन से अज्ञानी मिथ्यादृष्टिजनों के ज्ञान और चारित्र गुणों की प्रशंसा करना, गुणों का व्याख्यान करना अन्यदृष्टि प्रशंसा है और गुण हों अथवा न हों उन गुणों को वचनों द्वारा प्रकट करना यह अन्यदृष्टिसंस्तव है । चूंकि मोक्षमार्ग के विपरीत मार्ग में वे अन्यदृष्टि मन कर रहे हैं तो उनकी कोई बात सुहाना, उनकी स्तुति करना यह सम्यग्दर्शन में अतिचार है ।
(191) अविरतसम्यग्दृष्टि, देशव्रती व महाव्रती सभी के सम्यक्त्व के अतिचार बताने के लिये सम्यग्दृष्टे: शब्द का ग्रहण―यहां एक शंकाकार कहता है कि यह प्रकरण श्रावकों के व्रत और शीलों के वर्णन करने का है । तो इसमें यह शिक्षा दी हुई है कि उस गृहस्थ सम्यग्दृष्टि के ही शंका आदिक अतिचार हो सकते हैं, मुनियों के नहीं होते हैं । क्या ऐसा ही है? इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि ये अतिचार केवल गृहस्थ सम्यग्दृष्टि के ही लगते हों यह बात नहीं है, किंतु ऐसी वृत्ति भावमुनि के हो तो उनके भी सम्यक्त्व के अतिचार लगते हैं और इसी बात को स्पष्ट करने के लिए सूत्र में सम्यग्दृष्टि सम्यग्दृष्टे: शब्द दिया है याने ये सम्यग्दर्शन के अतिचार हैं । चाहे वह सम्यग्दृष्टि श्रावक हो या मुनि हो, जिसके ये परिणाम पायें जाये उसके ये दोष होते हैं । यद्यपि गृहस्थ व्रती का प्रकरण आगे रहेगा तो भी यह बीच में आया हो यह सूत्र सम्यग्दृष्टि सामान्य के लिए कहा गया है । चाहे वह गृहस्थ हो अथवा मुनि हो, ऐसा परिणाम सम्यग्दर्शन के दोषरूप है । अतिचार का अर्थ है दर्शनमोह के उदय से तत्त्वार्थ श्रद्धान से अतिचरण हो जाना, अतिक्रम हो जाना, उसका उल्लंघन होना अतिचार कहलाता है । ये शंका आदिक 5 सम्यग्दृष्टि के अतिचार हैं । यहाँ एक जिज्ञासा होती है कि सम्यग्दर्शन के 8 अंग कहे गए हैं, सो 8 अंगों के विपरीत परिणाम 8 ही होते हैं तो अतिचार भी 8 ही कहे जाने चाहिएं थे फिर यहाँ 5 क्यों कहे गए? इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि बात तो युक्त है लेकिन उन सबका इस 5 में ही अंतर्भाव किया गया है । चूंकि अभी व्रत और शीलों में 5-5 अतिचार आचार्यदेव कहेंगे । सो उस सामंजस्य में सम्यग्दृष्टि के भी अतिचार 5 कहे गए हैं । सो इन पाँचों में वे प्रतिपक्षी गर्भित हो जाते हैं । यहाँ अमूढ़ दृष्टि अंग के विपरीत प्रतिपक्षी भावों को प्रशंसा और संस्तव―इन दो रूपों में अलग-अलग कहा गया है । शेष जिन किन्हीं भी दोषों का जो सम्यक्त्व में संभव है उनका इन 5 में ही गर्भित होना परखना चाहिए । अब यह जिज्ञासा होती है कि सम्यग्दर्शन के यहाँ 5 अतिचार कहे गए है और वे अगारी और अनगार अर्थात् गृहस्थ और मुनि के दोनों के साधारणरूपतया संभव है । तो चूंकि सभी के आदि में सम्यग्दर्शन होना ही चाहिए । सम्यग्दर्शन पूर्वक हुआ व्रत ही व्रत कहलाता है । सो सम्यदृष्टि के अतिचार बताया वे युक्त है । तो अब व्रत और शीलों के अतिचार की गणना करना चाहिए । सो उस ही का निर्देश करने के लिए सूत्र कहते हैं ।