वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 7-6
From जैनकोष
शून्यागारविमोचितावासपरोपरोधाकरणभैक्ष्यशुद्धिसधर्माविसंवादा: पंच ।। 7-6 ।।
(127) अचौर्यव्रत की पांच भावनाओं का निर्देशन―अचौर्य व्रत की 5 भावनायें इस प्रकार है―(1) शून्यागारावास, (2) विमोचितावास, (3) परोपरोधाकरण, (4) भैक्ष्यशुद्धि और (5) सधर्माविसम्वाद । (1) सूने घर में रहना यह अचौर्यव्रत की प्रथम भावना है । पर्वत की गुफायें, वृक्षों की खोह आदिक स्थानों में रहने से वहाँ चोरी के आश्रयभूत बाह्य पदार्थों का प्रसंग न होने अचौर्य व्रत की स्थिति दृढ़ रहा करती है । इस कारण अचौर्य व्रत की रक्षा के लिए सूने आगारों में रहने की भावना व यथाबल प्रयोग करना चाहिए । (2) छोड़े हुए दूसरे के आवासों में जिनमें दूसरे कोई गृहस्थ रहते थे और रोग महामारी या अन्य उपद्रवों के कारण उस स्थान को बिल्कुल छोड़कर चले गए, एकदम वह सूना स्थान है तो ऐसे स्थानों में रहना यह अचौर्यव्रत की दूसरी भावना है । ऐसे स्थान में रहने पर चोरी के आश्रयभूत बाह्य पदार्थों का संबंध न होने से अचौर्य व्रत भली भांति पलता है, इस कारण अचौर्य व्रत की रक्षा के लिए यह दूसरी भावना कही गई है । (3) परोपरोधाकरण―दूसरे को निवास करने से रोकना नहीं, यह तृतीय भावना है । प्रथम बात तो यह है कि दूसरों को ठहराने से वही पुरुष रोक सकता है जिसके पास कुछ परिग्रह हो, द्वितीय बात यह है कि कुछ अपनी क्रिया में त्रुटि हो, सो वह अपनी त्रुटि छिपाने के लिए अथवा कोई कुछ चुरा न ले जाये इस भावना से दूसरे को मना करेगा । तो उसको ऐसी अपनी निःशल्य स्थिति रखना चाहिए कि दूसरे को मना करने का प्रसंग ही न करना पड़े । तब प्रवृत्ति यह रखना चाहिए कि जहाँ खुद ठहरे हैं वहाँ कोई भी साधर्मी आकर ठहरे, किसी को मना न करना, यह भावना अचौर्य व्रत की साधक है । (4) आचार शास्त्र के मार्ग के अनुसार भिक्षावृत्ति की शुद्धि रखना भैक्ष्यशुद्धि है । मार्गानुसार आहार करने वाले पुरुष के आहारविषयक चोरी की संभावना वह है अथवा अपने किसी बुरे परिणाम को करने और छुपाने की आवश्यकता नहीं होती, इससे भैक्ष्यशुद्धि अचौर्यवृत्ति की साधक है । (5) यह मेरा है, यह तुम्हारा है, ऐसा साधर्मी जनों के, साथ विसम्वाद न करना अचौर्य व्रत की साधक है । मेरा तेरा का भाव रखने में प्रथम तो उसमें ममता का भाव आया, संग्रह का भाव आया सो विशुद्धि की हानि हो गई और फिर मेरा तेरा कहने के प्रसंग में कभी कोई विवाद हो जाये कि दूसरे भी यह कहने लगे कि यह मेरा ही है, तुम्हारा नहीं है और वे कहे कि मेरा ही है, तो ऐसे प्रसंग में उस चीज के चुराने के उससे आँख बचाकर लेने की भावना बन जाया करती है, इस कारण अचौर्य व्रत की सिद्धि के लिए सधर्माविसम्वाद नामक भावना भी भाना व उसका प्रयोग करना चाहिये । ये अचौर्यव्रत की 5 भावनायें हैं । अब ब्रह्मचर्यव्रत की भावनाओं को कहते हैं―