वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 9-1
From जैनकोष
आस्रवनिरोध संवर: ।। 9-1 ।।
संवर का लक्षण―संवर के उपाय से संसार के संकटों का हटना बनता है । यह बात पहले कही गयी थी । उसी के विषय में यहाँ लक्षणात्मक सूत्र कहा गया है कि वह संवर क्या है? उसका लक्षण बताया है कि आस्रव का रुक जाना संवर है याने कार्माणवर्गणावों का कर्म रूप न परिणमना यह संवर कहलाता है, अथवा बंध पदार्थ का पहले व्याख्यान किया ही था तो उसके बाद नंबर संवर तत्त्व का आता है, इसलिए संवर तत्त्व का इस अध्याय में वर्णन किया जा रहा है । इसके साथ ही साथ इस अध्याय में निर्जरा तत्त्व का भी वर्णन चलेगा । तो सर्वप्रथम संवर तत्त्व की बात कही गई है कि आस्रव का निरोध होना संवर है । अब आस्रव का निरोध क्या है? तो कर्मों के आने को निमित्तभूत जो पहले प्रकार का भाव बताया गया था मन, वचन, काय का प्रयोग बताया गया है सो उस प्रकार का न हो पाना अर्थात् योग का न हो सकना, कषायों का न होना यह आस्रव निरोध कहलाता है आस्रव निरोध में पूरा कर्मों का निरोध हो जाये यह तो नहीं होता, पर जिसका जैसा विकास है उस विकास के अनुसार उसके आस्रव का निरोध चलता है । तो यदि आस्रव निरोध यह कहलाता है अर्थात् संवर कहलाता है तो फिर आस्रव निरोध का ही व्याख्यान करें । कहते हैं कि आस्रव निरोध पूर्वक संवर होता है, इसलिए संवर का कारणभूत रूप से यह विशेषण दिया गया है कि आस्रव का निरोध होने पर योग पूर्वक जो कर्म का आदान होता था सो आस्रव निरोध पूर्वक अब कर्म का ग्रहण न होना यह संवर कहलाता है । कारण के अभाव से कार्य का अभाव होता है इस कारण उस आस्रव के रुक जाने पर उस आस्रव पूर्वक जो अनेक दुःखों का जनक है, ऐसे कर्मों का न बनना सो संवर कहलाता है ।
सूत्रार्थ के लक्ष्य―यहाँ शंकाकार कहता है कि यदि आस्रव निरोध संवर है याने विकार न आना, कर्म न आना यह संवर कहलाता है तो उसी प्रकार निर्देश करना चाहिए जैसा कि अर्थ बताया गया है कि आस्रव निरोध होने पर संवर होता है, अथवा पंचमी अर्थ में कह लीजिए, आस्रव निरोध होने से संवर होता है । तो यहाँ प्रथम पद को या तो सप्तमी विभक्ति में कहते या पंचमी विभक्ति में कहते, इस शंका का उत्तर कहते हैं कि यहाँ कार्य में करने का उपचार किया गया है । कार्य तो है संवर और कारण है आस्रव निरोध, तो कार्य में कारण का उपचार करके इसको विशेषण विशेष्य बनाया गया है । यहाँ संवर शब्द करण साधन में हैं, और निरोध शब्द भी करण साधन में है अर्थात् जिस भाव के द्वारा रोका जाये उसे निरोध और जिस भाव के द्वारा संवरण किया जाये उसे संवर कहते हैं । इसी अध्याय में गुप्ति समिति आदिक भावों का वर्णन किया जायेगा, सो वह भाव संवर रूप है और आस्रव निरोध है तब ही वह संवर रूप कहलाता है, अथवा यहाँ दो वाक्य बना लेना चाहिए अर्थात् आस्रव निरोध हितार्थी पुरुष को करना चाहिए । उसका प्रयोजन क्या है कि उससे संवर होगा ।
संवर के विशेष व संवरों का गुणस्थानानुसार पृथक्-पृथक् पद में पृथक्-पृथक् गणना का संकेत―संवर क्या चीज है? मिथ्यादर्शन प्रत्ययों के कारण से जो कर्म आया करते थे उन कर्मों का संवरण हो जाना संवर कहलाता है । संवर दो प्रकार का है―(1) द्रव्य संवर और ( 2) भाव संवर । संसार के कारण भूत जो चेष्टायें हैं कषाय योग आदि उनकी निवृत्ति हो जाना भाव संवर है । जिन कारणों से जन्म धारण करना पड़ता है, उनको हटाना सो भाव संवर है अर्थात् शुद्ध भाव का होना अशुद्ध भाव का हटना, ऐसा जो आत्मा का शुद्ध परिणाम है सो भाव संवर कहलाता है । भाव संवर के होने पर अर्थात् भावास्रव का निरोध होने पर पुद्गल कर्म के ग्रहण का हट जाना सो द्रव्य संवर है । नवीन पुद्गल कर्म कैसे न बँधे, कैसे वे हटें उसका कारण है भाव संवर । इन संवरों को गुणस्थान के क्रम से लेना चाहिए । किस गुणस्थान में कितनी प्रकृतियों का संवर होता है उसका कथन करणानुयोग में किया गया है । बंध की निवृत्ति हो जाना अथवा संवर हो जाना दोनों का एक अर्थ है । बंधव्युच्छिति का ही नाम संवर है । ये गुणस्थान 14 प्रकार के होते हैं, इस नाम को सुनने से पहले यह जानना चाहिए कि गुणस्थानों के नाम सम्यक्त्व और चारित्र गुणों की अवस्था से बने हैं, कहीं, सम्यक्त्व नहीं है, कहीं सम्यक्त्व दोषवान है, कहीं सम्यक्त्व निर्मल है, कहीं चारित्र थोड़ा है, कहीं विशेष कहीं पूर्णता है, इन कारणों से ये गुणस्थान बताये गए हैं । इस गुणस्थान के नामकरण में दर्शनमोह चारित्रमोह और योग के ये तीन कारण कहे गए हैं ।
सम्यक्त्वरहित गुणस्थानों का स्वरूप―पहले गुणस्थान का नाम है मिथ्यादृष्टि । यहाँ दर्शन मोह की प्रकृष्ट शक्ति वाला मिथ्यात्व कर्म प्रकृति का उदय है । दूसरा भेद है सासादन सम्यग्दृष्टि इस गुणस्थान में दर्शनमोह का न तो उदय है, न उपशम है, न क्षय है न क्षयोपशम है किंतु अनंतानुबंधी कषाय का उदय है और इस कषाय के उदय के कारण यह अज्ञानदशा रहती है और तीनों अज्ञान इस अनंतानुबंधी कषाय के उदय में बनते हैं, सो इनको दर्शनमोह की अपेक्षा: पारिणामिक स्वरूप कहा गया है, किंतु जो मलिनता है वह अनंतानुबंधी कषाय के उदय से है । तीसरे गुणस्थान का नाम है सम्यग्मिथ्या दृष्टि, जहाँ सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति का उदय है । यह शिथिल प्रकृति है जो क्षयोपशम रूप में है, इसका उदय होने पर भी तो गुणस्थान में क्षायोपशमिक भाव माना जाता है । इन प्रकृतियों के उदय से जीव के न तो सम्यक्त्व होता है और न मिथ्यात्व होता है किंतु एक तीसरे प्रकार की ही परिणति होती है । जैसे दही शक्कर मिलाने पर न खालिस दही का स्वाद रहता न शक्कर का किंतु कोई तीसरी दशा ही हो जाती है ।
असंयत सम्यग्दृष्टि व संयतासंयत गुणस्थान का स्वरूप―चौथे गुणस्थान का नाम है असंयत सम्यग्दृष्टि, अर्थात् जहाँ संयम तो नहीं है किंतु सम्यग्दर्शन है, इसे कहते हैं असंयत सम्यग्दृष्टि । सम्यक्त्व तो इस कारण हो गया है कि वहाँ सम्यक्त्वघातक, 7 प्रकृतियों का उपशम है, किसी के क्षयोपशम है, किसी के क्षय है सो जिसके उपशम है उसके तो औपशमिक सम्यक्त्व है, जिसके क्षयोपशम है उसके क्षायोपशमिक सम्यक्त्व है, जिनके इन 7 का क्षय है उनके क्षायिकसम्यक्त्व है । तो यों सम्यक्त्व से युक्त होता हुआ यह जीव चारित्र मोहनीय के उदय से अविरत परिणाम वाला रहता है । किसी पाप से अभिसंधिपूर्वक मन के दृढ़ संकल्पपूर्वक त्याग नहीं किया गया । ऐसी स्थिति रहती है उसे असंयत सम्यग्दृष्टि कहते हैं । इस गुणस्थान में तीनों ही ज्ञान सम्यग्ज्ञान हो जाते हैं, इसका कारण यह है कि तत्त्वार्थ का श्रद्धान इसमें किया है । अब इस गुणस्थान से ऊपर के जितने गुणस्थान हैं उनमें भी नियम से सम्यक्त्व जानना चाहिए । अब इस आत्मा के जब अप्रत्याख्यानावरण कषाय का क्षयोपशम हो जाता है तब अणुव्रत का परिणाम होता है, सो यहाँ अन्य कषायों का उदय चल रहा है और अप्रत्याख्यानावरण का क्षयोपशम चल रहा है, ऐसी स्थिति में कुछ संयम है, कुछ असंयम है, सो ऐसी कर्म स्थिति होने पर संयमासंयम की प्राप्ति होती है यहाँ प्राणी इंद्रिय विषय विरति और अविरति दोनों ही वृत्तियों से परिणम रहे हैं कुछ विरक्त हैं, कुछ विरक्त नहीं हैं ऐसा जिनको संयमासंयम गुणस्थान है वे कुछ मोक्ष मार्ग में आये हैं । परमार्थत: देखा जाये तो चौथे गुणस्थान में मार्ग दर्शन होता है । तो जीव का वास्तविक स्वरूप क्या है और स्वाभाविक पद क्या है? अब जहाँ कषायें मंद होने लगें, चारित्र मोह घटने लगे वहाँ अब यह मोक्ष मार्ग पर कदम बढ़ाता है ।
प्रमत्तविरत व अप्रमत्तविरत का स्वरूप―जिस आत्मा के प्रत्याख्यानावरण का भी क्षयोपशम हो गया है उसके महाव्रत का उदय होता है । यहाँ अप्रत्याख्यानावरण कषाय और प्रत्याख्यानावरण कषाय इन 8 कषायों का क्षयोपशम है । अनंतानुबंधी कषायें क्षीण हुई हों तो, न हुई हों तो, किंतु उदय में न आ रही हों ऐसी स्थिति रहती है । अब यहाँ यह विवेकी संत व्रत करता हुआ पाप से बचा रहता है और समय-समय पर आत्म स्वरूप के ध्यान में लीन रहता है सो यह सकल संयमी जीव यदि कुछ प्रमाद अवस्था में है तब तो यह प्रमत्त संयत कहलाता है अर्थात् उपदेश दे रहा हो, प्रायश्चित दे रहा हो, शिक्षा दे रहा हो, विहार कर रहा हो, आहार कर रहा हो, ऐसी प्रमाद अवस्था में हो तो उसे प्रमादविरत कहते हैं यहाँ प्रमाद का अर्थ आलस्य न लेना । किंतु मोक्ष के मार्ग में तीव्र उत्साह न होना यही प्रमाद कहलाता है । यह जीव जब संज्वलन कषाय के मंद उदय को प्राप्त होता है तो उसके उदय से यहाँ प्रमाद नहीं रहता । तब इसका नाम अप्रमत्त संयत है । इस 7वें गुणस्थान में प्रमाद न रहा और इस गुणस्थान से ऊपर जितने भी गुणस्थान हैं उन सबमें भी प्रमाद नहीं है तो वह कहलाता है अप्रमत्त संयत्त । ये अप्रमत्त संयत्त सप्तम गुणस्थान वाले दो प्रकार के होते हें । ( 1) स्वस्थान संयत और (2) सातिशय संयत । स्वस्थान अप्रमत्तविरत तो वे कहलाते हैं जो सप्तम गुणस्थान में हैं और आगे न बढ़ सकेंगे । छठे गुणस्थान में आयेंगे, फिर 7वें गुणस्थान में आयेंगे, यों 7वें और छठे गुणस्थान में झूले की तरह झूलते हुए अप्रमत्त संयत जब-जब 7वें गुणस्थान में होते हैं तब-तब वे स्वस्थान अप्रमत्त विरत कहलाते हैं । ये ही मुनीश्वर जिस समय ऐसे सप्तम गुणस्थान को प्राप्त करते हैं कि जहाँ परिणामों की विशुद्धि अनंत गुणी बढ़ जाये, अधःकरण नाम का परिणाम प्राप्त हो जाये, जिसके कारण अब यह ऊपर श्रेणी पर चढ़ेगा । तो ऐसी श्रेणी पर चढ़ सकने वाले अधःप्रवृत्तकरण परिणाम वाले जीव सातिशय, अप्रमत्तविरत कहलाते हैं ।
सातिशय अप्रमत्तविरत की विशेषतायें एवं ऊपर के श्रेणी वाले गुणस्थानों का स्वरूप―यदि सातिशय अप्रमत्त संयत ने चारित्रमोहकर्म के उपशम करने के लिए अधःप्रवृत्तकरण परिणाम किया है तो उस ही पद्धति में परिणामों की विशुद्धि बढ़ेगी और यह उपशम श्रेणी पर चढ़ेगा । जब इसके अधःप्रवृत्तकरण है तो सातिशय अप्रमत्तविरत कहलाता है और जब अपूर्वकरण परिणाम होगा तो यह अष्टम गुणस्थान वाला कहलायेगा । जब अनिवृत्तिकरण परिणाम होगा तब यह नवम गुणस्थानवर्ती कहलायेगा । यहाँ यदि चारित्रमोह का क्षय करने के लिए इस सातिशय अप्रमत्त विरत ने अध:करण परिणाम किया है तो उस ही पद्धति में इसके परिणाम बढ़ेंगे, सो जब यह अपूर्वकरण परिणाम करता हैं तब क्षपक श्रेणी का 8वें गुणस्थान में आया हुआ कहा जाता । जब अनिवृत्तिकरण परिणाम करते हैं तब क्षपक श्रेणी के 9वे गुणस्थान में आये हुए कहलाते हैं, सो अभी 8वें गुणस्थान में किसी भी कर्म प्रकृति का न तो उपशम होता है और न क्षय होता है । उपशम प्रारंभ होगा 9वें गुणस्थान में, उपशम श्रेणी में । चारित्रमोह की प्रकृतियों का क्षय प्रारंभ होगा क्षपक श्रेणी 9वें गुणस्थान में, लेकिन उपशमन और, क्षय करने के लिए ही इसने यह परिणाम किया है अत: पहले से ही यह जीव उपशमक अथवा क्षपण कहलाता है । 8वें गुणस्थान के बाद अनिवृत्तिकरण परिणाम होने से यह नवम गुणस्थान में पहुंचता है । उपशम श्रेणी हो तो यह उपशमक अनिवृत्तिकरण गुणस्थान वाला कहलाता है और यदि क्षय हो तो क्षपक अनिवृत्तिकरण वाला कहलाता है । यही जीव जब सूक्ष्म भाव से उपशमन करता है अथवा क्षपण करता है तो यह सूक्ष्म सांपराय कहलाता है । यह भी दोनों श्रेणियों में पाया जाता है―सूक्ष्म सांपराय में बताया तो यह गया है कि यहाँ संज्वलन लोभ है, किंतु चारित्र के प्रकरण से यह जानना चाहिए कि उस बचे हुए संज्वलन लोभ का उपशमन होने से वह उपशम श्रेणी का दसवाँ गुणस्थान कहलाता है, और संज्वलन लोभ के क्षय के लिए चारित्र होने से क्षपक श्रेणी का 10वाँ गुणस्थान कहलाता है ।
वीतराग छद्मस्थ व वीतरागसर्वज्ञ के गुणस्थानों का निर्देश―जिसके सूक्ष्म संज्वलन, लोभ का भी उपशम हो गया वह तो कहलाता है उपशांत कषाय और जिसके संज्वलन लोभ का क्षय हो गया है वह कहलाता है क्षीण कषाय । ये दोनों ही वीतराग हैं । यहाँ चारित्रमोह रंच भी न रहा, और और ये पवित्र आत्मा हैं, किंतु अभी सर्व ज्ञान न होने से ये परमात्मा नहीं कहलाते हैं, सर्वज्ञता होने पर ही परमात्मा कहलाते हैं । क्षीण कषाय गुणस्थान में शेष बचे हुए घातिया कर्मों का सत्त्व विच्छेद हो जाता है, सो यह आत्मा संयोग केवली हो जाता है । घातिया कर्मों के अत्यंत विनाश से स्वाभाविक अचिंत्य केवल ज्ञानादिक उत्कृष्ट विभूतियाँ उत्पन्न होती है अतएव ये भगवान केवली कहलाते हैं । ये केवली भी दो प्रकार के हैं, जिनके योग का सद्भाव है वे हैं सयोगकेवली, जिनके योग का अभाव हुआ है वे हैं अयोगकेवली । सयोगकेवली के समवशरण भी होता दिव्यध्वनि भी खिरती किन्हीं के नहीं भी होता और अंत में अयोगकेवली होकर शेष अघातियाँ कर्मों का भी नाश करके मुक्त हो जाता है ।
सम्यक्त्व लाभ के लिये अथाप्रवृत्तकरण को प्राप्त करने के अधिकारी भव्य मिथ्या दृष्टि का परिचय―यह जीव अनादि काल के मिथ्यात्व गुणस्थान में रहा आया, सो मोहनीय कर्म की 26 प्रकृतियों की ही सत्ता रही आयी, क्योंकि सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक् प्रकृति इन दो का बंध नहीं होता । सो यों 26 प्रकृतियों की सत्ता वाले अनादि मिथ्या दृष्टि भव्य जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्व को उत्पन्न करेंगे अथवा सादि मिथ्यादृष्टि जीव भी प्रथमोपशम सम्यक्त्व को उत्पन्न करते हैं । इस सादि मिथ्यादृष्टि जीव में कुछ तो 28 मोहनीय कर्म की प्रकृतियों के सत्त्व वाले जीव और कुछ 27 मोहनीय प्रकृतियों की सत्ता वाले और कुछ 26 मोहनीय प्रकृतियों की सत्ता वाले होते हैं सो ये चारों तरह के जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्व को ग्रहण करने का आरंभ जब करते हैं तो पहली बात यह है कि उनके शुभ परिणाम होते हैं और अंतर्मुहूर्त तक उनके विशुद्धि अनंत गुनी बढ़ती चली जाती है । अब यह जीव चार मनोयोग में से किसी भी मनोयोग में हो, या चार वचन योग में से किसी भी वचन योग में हो और औदारिक व वैक्रियक इन काय योग में से किसी भी काय योग में हो, इस तरह किसी एक योग में वर्तता हुआ वह जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्व का आरंभ करता है और वह क्षीयमाण कषाय वाला होता है । तीनों वेदों में से किसी भी वेद से रहता हो संक्लेश नहीं हो, उसके शुभ परिणाम बढ़ते रहते हों, उसके प्रताप से समस्त कर्म प्रकृतियों की स्थितियों को घटाता है । अशुभ प्रकृतियों के अनुभाग बंध को हटाता है, शुभ प्रकृतियों के रस को बढ़ाता है, ऐसा यह जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्व के लिए आवश्यक तीन करणों को करने के लिये प्रवृत्त होता है ।
अथाप्रवृत्तकरण का परिचय―सम्यक्त्व के साधकतम तीन करण हैं अथाप्रवृत्तकरण अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण । इन तीनों करणों का समय प्रत्येक का अंतर्मुहूर्त है और तीनों का मिलकर भी अंतर्मुहूर्त है । अथाप्रवृत्तिकरण के मायने यह हैं कि अब तक ऐसा करण कभी मिला नहीं । इसका दूसरा नाम अध:करण भी है, जिसका अर्थ यह है कि कुछ ऊपर के समय वाले साधकों के परिणाम नीचे के समय वाले साधकों से मिल जाते हैं, सो प्रथम ही अंत: कोड़ा कोड़ी सागर स्थिति प्रमाण कर्म को करके अथाप्रवृत्तकरण के प्रथम समय में प्रवेश करता है । उसके कर्मों की स्थिति का भार अंत: कोड़ा कोड़ी सागर से अधिक नहीं होता । इस प्रथम करण के प्रथम समय में जघन्य विशुद्धि थोड़ी है, दूसरे समय में जघन्य विशुद्धि अनंत गुणी है, तीसरे समय में जघन्य विशुद्धि अनंत गुणी है, इस तरह से अनंत गुणी विशुद्धि बढ़-बढ़कर अंतर्मुहूर्त तक यह बढ़ता चला जाता है । तो उस खंड के अंतिम समय में जो जघन्य विशुद्धि जितनी अधिक है उससे प्रथम समय में उत्कृष्ट विशुद्धि अनंतगुणी है, दूसरे समय में उत्कृष्ट विशुद्धि अनंतगुणी है । इस प्रकार अथाप्रवृत्तकरण के अंतिम समय तक अनंत अनंतगुणी होती चली जाती है । इस प्रकार यह जीव इसके परिणाम नाना जीवों की अपेक्षा असंख्यात लोक प्रमाण परिणाम के भेद कहीं समान हैं कहीं असमान । उन सब परिणामों के समूह का नाम अधःप्रवृत्तकरण है अथवा अथाप्रवृत्तकरण है ।
अपूर्वकरण एवं अनिवृत्तिकरण का परिचय―अब इस प्रथम करण के बाद दूसरा करण किया जाता है अपूर्वकरण । इसके प्रथम समय में जघन्य विशुद्धि थोड़ी है और उस ही प्रथम समयवर्ती जीव की उत्कृष्ट विशुद्धि अनंत गुणी है, फिर द्वितीय समय में जघन्य विशुद्धि उससे अनंत गुणी है और उस ही की उत्कृष्ट विशुद्धि उससे अनंत गुणी है । इस प्रकार अगले-अगले समय में जघन्य से उत्कृष्ट, उत्कृष्ट से अगले समय में जघन्य अनंतगुणी, अनंतगुणी होती जाती है, अध:करण में तो निवर्गणा के सभी समयों की जघन्य विशुद्धि अनंत गुणी होती गई थी, फिर उत्कृष्ट विशुद्धि चली थी । इसी कारण तो अगले समय के परिणाम निचले समय में मिल जाया करते थे, किंतु अपूर्वकरण में उसी समय की जघन्य विशुद्धि से उसी समय की उत्कृष्ट विशुद्धि अनंत गुणी हुई है और उससे अगले समय की जघन्य विशुद्धि बढ़ी है तब ही अगले समय-समय के परिणाम नियमित समय में न मिलेंगे । यह अपूर्वकरण परिणाम भी नाना जीवों की अपेक्षा असंख्यात लोक प्रमाण है, ऐसे परिणाम के विकल्प हैं जो नियम से भिन्न-भिन्न समय में असमान ही मिलेंगे । उन सब परिणामों के समुदाय का नाम है अपूर्वकरण । ये अत्यंत अपूर्व परिणाम हैं इस कारण इनका नाम अपूर्वकरण सार्थक है । अपूर्वकरण के पश्चात् तीसरा करण लगता है जिसका नाम है अनिवृत्तिकरण । उसके काल में नानाजीवों के प्रथम समय में परिणाम एक स्वरूप ही हो सकें अर्थात् अनिवृत्तिकरण के पहले समय में जितने भी साधक हैं सबके परिणाम एक समान ही हैं । दूसरे समय में पहले समय वाले परिणाम से अनंतगुणी विशुद्धि की है, लेकिन दूसरे समय में भी नाना जीवों के परिणाम एक रूप ही हैं इस तरह अंतर्मुहूर्त तक यह अनिवृत्तिकरण परिणाम भी चलता है । उन ही परिणामों के समुदाय का नाम अनिवृत्तिकरण है । इसका अनिवृत्तिकरण नाम क्यों रखा? अ मायने नहीं, निवृत्ति मायने हटना अर्थात् जहाँ उस ही समय में एक दूसरे के परिणाम से भिन्न याने हटे हुए अर्थात् असमान नहीं होते उसे अनिवृत्तिकरण कहते हैं ।
अथाप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण व अनिवृत्तिकरण की महिमा―उक्त तीन तरह के करण परिणामों का बहुत माहात्म्य है जिससे आत्मा का स्वाभाविक कार्य बनता है, विकसित होता है । पहले करण में यद्यपि स्थिति खंडित नहीं है जिससे कि जो स्थिति बँधी है उसके भी टुकड़े हो जाये, स्थिति कम हो जाये सो बात नहीं बनती । यहाँ अनुभाग भी खंडित नहीं होता है कि कर्मों में जो अनुभाग शक्ति है वह फलदान शक्ति भी खंडित हो जाये । यहाँ गुण श्रेणी भी नहीं है कि परिणाम अथवा कोई निर्जरा आदिक गुण श्रेणी के अनुसार होते चले जायें । यहाँ गुण संकरण भी नहीं है कि किसी प्रकृति का गुण बदल जाये और अन्य रूप हो जाये, तथापि अनंत गुणवृद्धि से विशुद्धि पढ़ती चली जाती है और उसके प्रताप से अब जो पाप प्रकृतियाँ बनती हैं सो वे अनंतगुणी कम अनुभाग वाली बनती हैं और जो शुभ प्रकृतियाँ बँधती हैं वे अनंत गुण रस से बढ़-बढ़कर बनती हैं और नया जो स्थिति बंध होता है वह पल्य के संख्यात भाग कम-कम होती है, तो इस प्रथम परिणाम में भी इस जीव का बहुत बड़ा कार्य बनता है । अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण स्थिति खंडन, अनुभाग खंडन, गुणश्रेणी और गुण संक्रमण ये होते हैं और साथ ही स्थिति बंध भी क्रम से घटता जाता है । जो खोटी, प्रकृतियाँ हैं उनका अनुभाग बंध तो अनंत गुणा घटता है और जो शुभ प्रकृतियाँ हैं उनका अनुभाग अनंत गुना बढ़ता है । इस तरह अनिवृत्तिकरण के काल में जब संख्यात भाग व्यतीत हो जाते हैं तब अंतरकरण होता है । जैसे कोई वकील दस लक्षण के दिनों में कचहरी नहीं जाना चाहता और यह विचार बाद में बना जबकि दस लक्षण के दिनों में तारीखे लग चुकी थी, तो वह ऐसा पुरुषार्थ करता है कि दस लक्षण के दिनों में आयी हुई केस की तारीखें कुछ दिन पूर्व से ही सावन भर में या आधे भादों तक में करवा लेता है और कुछ दस लक्षण के दिनों के बाद असौज के महीने में करवा लेता है, ताकि वह निःशल्य होकर दस लक्षण में धर्म साधना कर सके । तो ऐसे ही मिथ्यात्वप्रकृति और अनंतानुबंधी कषाय इनकी सत्ता लगातार बराबर है, अब बीच में जिस समय औपशमिक सम्यक्त्व होना है तो वहाँ यह आवश्यक होता उपशम सम्यक्त्व में कि उस समय की स्थिति वाले कर्म ही न रहें । यह भी कितने बड़े पौरुष की बात है कि उससे पहले की सत्ता में रहे, इसके बाद की सत्ता में रहे और एक अंतर्मुहूर्त प्रमाण उसकी सत्ता ही न रहे याने उस समय की स्थिति वाले न रहे कर्म, जो सम्यक्त्व का घात करते हैं । तो इन दशावों का नाम है अंतरकरण । इस अंतरकरण के कारण मिथ्यादर्शन कर्म प्रकृति का उदय घात कर दिया जाता है और इस अनिवृत्तिकरण की चरम सीमा में मिथ्यात्व प्रकृति सत्ता में आ पड़ी, तीन टुकड़ों में हो जाता है (1) सम्यक्त्व (2) मिथ्यात्व और (3) सम्यक् प्रकृति । सो इन तीन प्रकृतियों के और अनंतानुबंधी क्रोध, मन, माया, लोभ इन कषायों की 7 प्रकृतियों का उदय न होने पर अंतर्मुहूर्त तक प्रथम उपशम सम्यक्त्व होता है।
सासादनसम्यक्त्व नामक द्वितीय गुणस्थान का परिचय―प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि जीव जब मिथ्यात्व का उदय तो न आये और अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ में से किसी एक का उदय आ जाये तो सासादन सम्यक्त्व होता है । इस सासादन सम्यक्त्व का अर्थ क्या है । स मायने सहित, असादन मायने विघात । जहाँ सम्यक्त्व का विघात हो गया, पर अभी मिथ्यात्व का उदय नहीं आ पाया उसे कहते हैं सासादन सम्यक्त्व । इस दूसरे गुणस्थान में भी यद्यपि मिथ्यात्व प्रकृति का उदय नहीं है तथापि अनंतानुबंधी कषाय के उदय से मति, श्रुत, अवधि ये तीनों ज्ञान अज्ञान रूप हो जाते हैं और इसी कारण से तो चार कषायों का नाम अनंतानुबंधी पड़ा है । अनंत का अर्थ है मिथ्यादर्शन, उसका जो संबंध बनावे उसे कहते हैं अनंतानुबंधी । यह कषाय मिथ्यादर्शन के उदय रूप फल को उत्पन्न करता है अर्थात् अनंतानुबंधी कषाय होने से मिथ्यात्व उदय में आ जाता है, और यह बहुत ही जल्दी मिथ्यात्व गुणस्थान में प्रवेश करता है । सासादन सम्यक्त्व का समय कम से कम एक समय है, अधिक से अधिक 6 आवली प्रमाण है, यह अत्यंत अधिक कम समय है, जैसे कोई बालक या पुरुष छत से गिर जाये और जमीन पर नहीं आ पाया, ऐसा समय कितना होता? थोड़ा तो यों ही सम्यक्त्व रूपी रत्न पर्वत के शिखर से कोई जीव गिरा और मिथ्यात्व भूमि में आता है तो उसके बीच की स्थिति 6 आवली से अधिक नहीं बनती, और इस प्रकार वह मिथ्यात्व आ जाता है मिथ्यात्व गुणस्थान दूसरे गुणस्थान के बाद भी होता, तीसरे गुणस्थान के बाद भी होता । चौथे , पांचवें 7वें के बाद भी होता, किंतु सासादन सम्यक्त्व प्रथमोपशम सम्यक्त्व के बाद ही होता । तो जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्व से च्युत होता है, वहाँ अनंतानुबंधी कषाय के उदय से ही च्युत होता है और इस ही कषाय के उदय में दूसरा गुणस्थान हुआ । अब यह प्रथमोपशम सम्यक्त्व चाहे अणुव्रत रहित हो तो चौथे गुणस्थान से बना, अणुव्रत सहित हो तो पंचम गुणस्थान से बना, महाव्रत सहित हो तो सप्तम गुणस्थान से बना, पर मिथ्यात्व के बाद सासादन सम्यक्त्व नहीं हुआ करता । सम्यक्त्व से गिरते समय ही सासादन सम्यक्त्व होता है ।
सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान का परिचय―सम्यग्मिथ्यात्व मिथ्यात्व के बाद भी होता परंतु अनादि मिथ्या दृष्टि के मिथ्यात्व के बाद नहीं होता । इसका कारण यह है कि जिसको एक बार उपशम सम्यक्त्व हो जिसके बल से सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति बने, मिथ्यात्व के टुकड़े होकर तो जिसके सम्यक्त्व प्रकृति की सत्ता होगी वह यद्यपि मिथ्यात्व गुणस्थान में आ गया फिर भी जिसके सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति की सत्ता है वह पहले गुणस्थान से तीसरे गुणस्थान में आ जाता और इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्व की सत्ता सम्यग्दृष्टि के भी है जिसके उपशम सम्यक्त्व है, क्षयोपशम सम्यक्त्व है । तो सम्यग्मिथ्यात्व की सत्ता वाले सम्यग्दृष्टि के सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति का उदय हो जाये तो वह तीसरे गुणस्थान में आ जाता है । यह सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति शिथिल प्रकृति है । क्षयोपशम के सदृश प्रकृति है इस कारण लोग तीसरे गुणस्थान को क्षायोपशमिक भाव कहते हैं, पर परमार्थ से सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से होने के कारण औदयिक है ।
सम्यक्त्व के प्रकारों का परिचय―सम्यग्दर्शन 5 प्रकारों में निरखा जाता है । (1) प्रथमोपशम सम्यक्त्व, (2) द्वितीयोपशम सम्यक्त्व, (3) वेदक सम्यक्त्व, (4) क्षायोपशमिक सम्यक्त्व और (5) क्षायिक सम्यक्त्व, मिथ्यात्व गुणस्थान के बाद होने वाले उपशम सम्यक्त्व को प्रथमोपशम सम्यक्त्व कहते हैं । क्षायोपशमिक सम्यक्त्व के बाद होने वाले उपशम सम्यक्त्व की द्वितीयोपशम सम्यक्त्व कहते हैं । यह द्वितीयोपशम सम्यक्त्व उपशम श्रेणी में चढ़ने के अभिमुख आत्मा के होता है । क्षायिक सम्यक्त्व वाला भी उपशम श्रेणी पर चढ़ता है किंतु उसका सम्यक्त्व कभी नष्ट नहीं होता, पर द्वितीयोपशम सम्यक्त्व से उपशम श्रेणी में चढ़े तो उसके द्वितीयोपशम सम्यक्त्व नष्ट होगा ही । तीसरा है वेदक सम्यक्त्व । मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ इन 6 प्रकृतियों का उदयाभावी क्षय और इन ही आगामी उदय में आ सकने वाली वर्गणावों का सदवस्था रूप उपशम तथा सम्यक्त्व प्रकृति का उदय होने पर वेदक सम्यक्त्व होता है । वेदक सम्यक्त्व में चल मलिन अगाढ़ दोष बना करता है, और यही वेदक सम्यक्त्व जब क्षायिक सम्यक्त्व रूप में होने को हो तो इसका उदय हट जाता है और यह सम्यक्त्व प्रकृति उदय में नहीं रहती, सो वेदक तो रहा नहीं, क्षयोपशम मौजूद है, तो इस स्थिति को क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं । सामान्यतया लोग वेदक सम्यक्त्व में और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में भेद नहीं डालते, किंतु सूक्ष्म दृष्टि से यह भेद है । और जब सम्यक्त्व घातक सातों प्रकृतियों का क्षय हो जाता है तो वह क्षायिक सम्यक्त्व कहलाता है । सो चतुर्थ गुणस्थान में कोई सा भी सम्यक्त्व संभव है, पर द्वितीयोपशम सम्यक्त्व ऊपर से गिरता हुआ चौथे में आकर रहता है । इस तरह इस चतुर्थ गुणस्थान में नियम से सम्यक्त्व है और इससे ऊपर के गुणस्थानों में भी नियम से सम्यक्त्व पाया जाता है ।
संयमासंयम की भूमिका―पंचम गुणस्थान का नाम है संयतासंयत । इंद्रिय विषय और प्राण विराधन इन दोनों के संबंध में कुछ विरति परिणाम कुछ अविरति परिणाम जिसके होते हैं उसे संयतासंयत कहते हैं । याने इंद्रिय विषयों से कुछ विरक्त हैं कुछ नहीं है । इसी तरह 6 काय के जीवों की हिंसा में से कुछ से विरति है कुछ से नहीं है ऐसे परिणाम जहाँ होते हैं उसको पंचम गुणस्थान कहते हैं । यह संयमासंयम का परिणाम चारित्र मोह के क्षयोपशम से होता है, जिसके क्षायिक सम्यक्त्व है अथवा विसंयोजन हुआ है उसके अनंतानुबंधी कषाय तो है ही नहीं, जिसके क्षायक सम्यक्त्व नहीं है उसके अनंतानुबंधी कषाय है और अप्रत्याख्यानावरण कषाय तो यहाँ है ही, सो इन 8 प्रकृतियों के उदय क्षय से इन्हीं के उपशम से और प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से संयम लब्धि तो नहीं है किंतु कुछ संयम और कुछ असंयम रूप परिणाम है । यहाँ संज्वलनकषाय और 9 नोकषाय इन देशघाती प्रकृतियों का भी उदय है, और ऐसी स्थिति में संयमासंयमलब्धि होती है और उसके योग्य प्राणि विषयक और इंद्रिय विषयक विरति और अविरति से, यह जीव परिणत होता है ।
संयम के गुण स्थानों का प्रारंभ―छठे गुण स्थान का नाम है प्रमत्तविरत जहाँ संयम तो प्राप्त हो गया है किंतु प्रमाद है उसे प्रमत्त संयत कहते हैं । जिस जीव के क्षायिक सम्यक्त्व है उसके अनंतानुबंधी कषाय नहीं है, पर जिसके क्षायक सम्यक्त्व नहीं है उसके अनंतानुबंधी कषाय है । छठे गुण स्थान में क्या, तीसरे गुण स्थान से ही अनंतानुबंधी कषाय का विपाक न होने पर सत्ता में रहता है सो यहाँ अप्रत्याख्यानावरण ओर प्रत्याख्यानावरण इन 8 कषायों के उदयाभावी क्षय से और इन्हीं 8 कषायों के उपशम से और संज्वलन नो कषायों के उदय से संयम लब्धि होती है । अनंतानुबंधी कषाय का भी यहाँ विसंयोजन अथवा उदयाभावी क्षय है । इस प्रकार की स्थिति से यह संयम उत्पन्न होता हे । यहाँ किसी भी प्रकार की अविरति नहीं रहती इंद्रिय विषयों से और मन के विषयों से पूर्ण विरक्ति है, और 6काय के जीवों की हिंसा से पूर्ण विरक्ति है । यहाँ यह जीव संयम के उपयोग को अंगीकार करता रहा है फिर भी 16 प्रकार के प्रमाद के कारण चारित्र परिणाम में थोड़ा स्खलन चलता है, ऐसे जीव को प्रमत्त संयत जीव कहते हैं । 15 प्रकार के प्रमाद ये हैं । 4 विकथायें―(1) स्त्रीकथा (2) राजकथा (3) देश कथा और (4) भोजन कथा । 4 कषायें―क्रोध, मान, माया, लोभ, 5 इंद्रिय के विषय, स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शब्द का विषय और निद्रा एवं स्नेह, इन 15 प्रकार के प्रमादों के वशीभूत होकर यह छठे गुण स्थानवर्ती जीव संयम से कुछ स्खलित हो जाता है किंतु पूर्ण स्खलन नहीं होता । उसमें दोष आते रहते हैं । कोई भी मुनि छठे गुण स्थान में अधिक समय नहीं रहता, 6ठे से 7वें गुण स्थान में 7वें से छठे गुण स्थान में यों हिंडोले की तरह इसमें जीव झूलता रहता है । 7वें गुण स्थान का नाम है अप्रमत्त संयत । संयम तो इसका पूर्ण है अर्थात् 12 कषायों का उदय नहीं है और साथ ही जो प्रमाद छठे गुण स्थान में रहता था वह भी नहीं है इस कारण इस गुण स्थान वाले आत्मा के संयमवृत्ति अचलित होती है । इसी को अप्रमत्त संयत कहते हैं । 7वें गुण स्थान में दो प्रकार के मुनि हैं (1) स्वस्थान संयत (2) सातिशय संयत । स्वस्थान संयत वह कहलाता है जो इस गुण स्थान से ऊपर न बढ़ सकेगा, और छठे गुणस्थान में आयेगा सातिशय संयत वह कहलाता हैं जिसके अधःकरण परिणाम हुआ है, श्रेणी पर चढ़ने के लिए । यह श्रेणी चढ़ेगा ही ।
सप्तम गुण स्थान से ऊपर द्विविध श्रेणियों के चार गुण स्थान―सप्तम गुणस्थान से ऊपर चार गुण स्थानों में दो श्रेणियां होती हैं―8वां, 9वां, 10वां, 11वां गुणस्थान उपशम श्रेणी के हैं । 8वां, 9वा, 10वां, 12वां गुणस्थान क्षपक श्रेणी के हैं, तो जहाँ मोहनीय कर्म का उपशम करता हुआ आत्मा चढ़ता है वह उपशमक श्रेणी कहलाती है और जहाँ मोहनीय कर्म का क्षय करता हुआ चढ़ता है उसे क्षपक श्रेणी कहते हैं । यहाँ चारित्र मोहनीय का क्षय होता है । उपशम श्रेणी में चारित्र मोह का उपशम होता है, ऐसे इस गुणस्थान से ऊपर 8वां गुणस्थान अपूर्वकरण नाम का है । जो जीव चारित्र मोह के उपशम के लिए अधःकरण परिणाम करते हैं वे उपशम श्रेणी के 8वें गुणस्थान में पहुंचते हैं और जो चारित्र मोह के क्षय के लिए अधःकरण परिणाम मारते हैं वे क्षपक श्रेणी के 8 वें गुणस्थान में पहुँचते हैं । सो यद्यपि जहाँ किसी भी प्रकृति का उपशम या क्षय नहीं होता तो भी अपूर्व विशुद्धि के वश से चारित्र मोह का उपशम या क्षय करेगा, इस अपेक्षा से यहाँ 8वें गुणस्थान में उसे उपशमक व क्षपक कहा गया है । सो यह उपशमक व क्षपक नाम उपचार से है, 8वें गुणस्थान से ऊपर चढ़कर यह भव्य 9वें गुणस्थान में पहुँचता है, 8वें गुणस्थान में अपूर्वकरण नाम का परिणाम था । अब इसके अनवृत्तिकरण परिणाम हुआ है । इस गुणस्थान में बढ़ी हुई विशुद्धि के कारण कर्मप्रकृतियों का स्थूल भाव से उपशम करने वाला अथवा क्षय करने वाला होता है । जो जीव चारित्र मोह के उपशम के लिए चढ़ा है वह कर्मप्रकृतियों का यहाँ उपशम करता है । जो चारित्र मोह के क्षय के लिए चढ़ा है वह यहाँ कर्मप्रकृतियों का क्षय करता है । किन प्रकृतियों का यह उपशम करता है अथवा क्षय करता है सो अभी ही आगे संवर का प्रसंग लेकर कहा जायेगा । 9वें गुणस्थान से ऊपर यह भव्य 10वें गुणस्थान में पहुंचता है । उपशम श्रेणी वाला जीव सूक्ष्म सांपराय उपशमक कहलाता है । वह यहाँ कषायों का सूक्ष्म दृष्टि से उपशम करता है, अंत तक पूर्ण उपशम हो जाता है जो जीव क्षपक श्रेणी में है वह सूक्ष्म सांपराय क्षपक कहलाता है । यह उस गुणस्थान में रही सही संज्वलन लोभ कषाय का क्षय करता है और अंत में पूर्ण क्षय हो जाता है । अब यहाँ से उपशम श्रेणी वाले सूक्ष्म सांपराय उपशम सर्व मोहनीय के उपशम होने के कारण 11वें गुणस्थान में पहुँचता है जिसका नाम है उपशांत कषाय । उपशांत कषाय गुणस्थान की अवधि है अंतर्मुहूर्त, इतने समय तक मोहनीय कर्म का उपशम रहता है । समय पूर्ण होने पर उसका उदय आने लगता है अतएव वहाँ से 11वें गुणस्थान में पहुँचता है, यदि कोई उपशांत कषाय गुणस्थान वाला मुनि मरण को प्राप्त हो जाये तो वह एकदम चतुर्थ गुणस्थान में आता और देव गति को प्राप्त होता है, जो जीव क्षपक श्रेणी में है वह क्षीण कषाय नामक 12वें गुणस्थान में पहुंचता है ।
परमात्मत्व की परम भूमिका―क्षीण कषाय गुणस्थान के अंत व उपांत समय में कितनी ही प्रकृतियों का बंध रूक जाता है याने 13 वें गुणस्थान में जितना संवर है वे प्रकृतियां क्षीण कषाय के अंत में हट जाती हैं, इनका भी वर्णन आगे किया जायेगा । 12वें गुणस्थानवर्ती जीव यहाँ घातिया कर्मों का क्षय करता है और उन घातिया कर्मों के क्षय से अतुल ज्ञान, परिपूर्ण ज्ञान प्रकट होता हे, उसे कहते हैं केवली । वहाँ अचितय केवल दर्शन, केवल ज्ञान, अनंत आनंद और अनंत शक्ति का अतिशय प्रकट होता है । ये केवली दो प्रकार के होते हैं―(1) सयोग केवली और (2) अयोग केवली याने एक योग सहित केवली और एक योग रहित केवली । ये 13वें गुणस्थान वाले हैं । 13वें गुणस्थान का समय पूर्ण होने पर योगरहित होने से ये 14वें गुणस्थानवर्ती अयोग केवली हो जाते हैं । अयोग केवली शेष बचे हुए समस्त अघातिया कर्मों का क्षय करके अशरीर सिद्ध परमात्मा हो जाते हैं । देखिये―यह संवर का प्रकरण चल रहा है । संवर तत्त्व में मुख्य भाव संवर ग्रहण करना, जहाँ शुभोपयोग, अशुभोपयोग दूर होता है, अथवा आंशिक शुद्धि जगती है, उस भाव को भाव संवर कहते है और भाव संवर के साथ ही कर्म का आस्रव भी रुकता है वह द्रव्य संवर कहलाता है ।
मिथ्यात्व व अनंतानुबंधी कषाय के विपाक में होने वाले असंयम से रहित भूमिका में संवर का विवरण―संवर तत्त्व को समझने के लिए कुंजी रूप यह जानना कि जिन-जिन भावों के कारण जिन-जिन कर्म प्रकृतियों का आस्रव होता था उन-उन भावों का आस्रव होने पर उन-उन प्रकृतियों का आस्रव रुक जाता है । आस्रव के निरोध का ही नाम संवर है, तो सर्वप्रथम यह समझिये कि मिथ्यात्व भाव के कारण जिन प्रकृतियों का आस्रव होता है मिथ्यात्व का अभाव होने पर उन प्रकृतियों का संवर हो जाता है । यद्यपि मिथ्यात्व का उदय होने पर तीर्थकर आहारक जैसी सातिशय पुण्य प्रकृतियों को छोड़कर सभी प्रकृतियों का आस्रव चल सकता है, किंतु यहाँ यह जानना कि मिथ्यात्व न रहने पर जिन प्रकृतियों का आस्रव अविरति आदिक के कारण चल रहा है उनको मिथ्यात्व निमित्तक आस्रव न समझना । मिथ्यात्व के हटते ही जिन प्रकृतियों का आस्रव हट जाता है उन प्रकृतियों के आस्रव को मिथ्यात्व निमित्तक समझना । तो ऐसी प्रकृतियां 16 हैं । और चूंकि मिथ्यात्व का उदय दूसरे गुणस्थान में भी नहीं है, यद्यपि तुरंत ही मिथ्यात्व का उदय आ जायेगा मगर एक समय से लेकर 6 आवली पर्यंत सासादन सम्यक्त्व गुणस्थान का समय हुआ करता है, वहाँ मिथ्यात्व का उदय नहीं है, सो मिथ्यात्व निमित्तक 16 प्रकृतियां दूसरे गुणस्थान में भी गहलनी अर्थात् दूसरे गुणस्थान में 16 प्रकृतियों का संवर है । वे 16 प्रकृतियां कौन-कौन हैं―ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय इन तीन कर्मों की प्रकृतियों का यहाँ संवर नहीं है, आवरण वाली प्रकृतियों का संवर 12वें गुणस्थान के अनंतर है सो यहाँ उसका सवाल ही नहीं । वेदनीय प्रकृति का भी मिथ्यात्व के कारण आस्रव नहीं होता अत: उसका भी यहाँ संवर नहीं है । मोहनीय में से मिथ्यात्व और नपुंसक वेद इनका संवर दूसरे गुण स्थान में है । आयु में नरकायु नाम कर्म में नरकगति, एकेंद्रिय, दोइंद्रिय, तीनइंद्रिय, चार इंद्रिय, हुँडक संस्थान, छठा संहनन, नरकगत्यानुपूर्वी, आताप, स्थावर, सूक्ष्म अपर्याप्त साधारण असाधारण इन 16 प्रकृतियों का बंध पहले गुणस्थान तक ही है । दूसरे गुणस्थान में इनका संवर है । तीसरे गुणस्थान में 25 का संवर और हो जाता है । वे प्रकृतियां ये हैं―निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, और स्त्यानगृद्धि, ये तीन तो खोटी प्रकृतियाँ है । यहाँ इनका दूसरे गुणस्थान में संवर है । मोहनीय में से अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ और स्त्रीवेद, इन प्रकृतियों का संवर है । आयु कर्म में से तिर्यंचायु का संवर है । दूसरे गुणस्थान में तिर्यक आयु का आस्रव बंध नहीं होता । नाम कर्म की प्रकृतियों में से इन प्रकृतियों का संवर दूसरे गुणस्थान में है, तिर्यग्गति, चार संस्थान, पहले और छठे को छोड़कर चार संहनन, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, उद्योत अप्रशस्त विहायोगति दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, गोत्र कर्म की प्रकृतियों में से नीच गोत्र का संवर है, ऐसी इन 25 प्रकृतियों का बंध एकेंद्रिय से लेकर सासादन सम्यग्दृष्टि पर्यंत के होता है । इसके बाद याने तीसरे गुणस्थान और आगे के गुणस्थान में इन सबका संवर होता है ।
अप्रत्याख्यानावरण व प्रत्याख्यानावरण कषाय वाले असंयम से रहित भूमिका में संवर का विवरण―चतुर्थ गुणस्थान में अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, मनुष्यायु, मनुष्यगति औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, प्रथम संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी इन 10 प्रकृतियों का बंध होता है । यह बंध अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से होने वाले असंयम के कारण होता है । यह असंयम 5वें गुणस्थान में नहीं है इसे कारण इन 10 प्रकृतियों का संवर 5वें गुणस्थान में है और इससे आगे के गुणस्थानों में है । संयमासंयमी जीवों के प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार प्रकृतियों का बंध होता है अर्थात् एकेंद्रिय से लेकर पंचम गुणस्थान तक के जीवों के ये बंध चल रहे थे किंतु प्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय छठे गुणस्थान में नहीं है, अत: इस कषाय के कारण हुए असंयम के निमित्त से जिन प्रकृतियों का आस्रव होता था उनका आस्रव नहीं है अर्थात् इन चार प्रकृतियों का छठे गुणस्थान में और उससे ऊपर के गुणस्थानों में संवर होता है । छठे गुणस्थान में प्रमाद के कारण जिन प्रकृतियों का आस्रव होता था सो प्रकृतियां आगे न रहने के कारण उन प्रकृतियों का संवर 7वें गुणस्थान में है, वे प्रकृतियां 6 हैं । असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशकीर्ति । देवायु का भी बंध प्रमाद के कारण होता है, पर प्रमाद में देवायु का बंध प्रारंभ करके अप्रमाद में भी अर्थात् 7वें गुणस्थान में भी उसका कहीं बंध होता है तब देवायु का संवर 7वें गुणस्थान से ऊपर है । कुछ 7वें गुणस्थान में भी संवर है । यहाँ तक मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद ये तीन कारण हट चुके ।
प्रमाद रहित उत्कृष्ट कषाय की भूमिका में संवर का विवरण―8वें गुणस्थान में ये तीन कारण तो नही हैं, पर कषाय है । यद्यपि कषाय पहले गुणस्थान से ही चली आ रही है, किंतु यहाँ उस कषाय को लिया है कि जहाँ मिथ्यात्व, अविरति और प्रमाद न रहे और कषाय मात्र रहे ऐसे कषाय के कारण जिन प्रकृतियों का आस्रव होता था उन प्रकृतियों का कषाय न रहने पर निरोध हो जाता है । तो प्रमाद आदिक रहित ये कषाय तीन प्रकार के हैं―(1) तीव्र (2) मध्यम और (3) जघन्य । सो प्रमादरहित तीव्र कषाय 9वें गुणस्थान में है, प्रमादरहित मध्यम कषाय हवे गुणस्थान में है, प्रमादरहित जघन्य कषाय 10वें गुणस्थान में है । अपूर्वकरण के पहले संख्यात भाग में निद्रा और प्रचला ये दो प्रकृतियां बनती हैं । उसके ऊपर के संख्यात भाग में तीन ही प्रकृतियां बंधती हैं और इस ही अपूर्व कारण के अंतिम समय में चार प्रकृतियां बंधती हैं । ये सब मिलकर 36 प्रकृतियां हैं । इन 36 प्रकृतियों का संवर 9वें गुणस्थान में रहता है । वे 36 प्रकृतियां ये हैं । प्रथम अंश में निद्रा और प्रचला द्वितीय अंश में ये तीन ही प्रकृतियां हैं । देवगति पंचेंद्रिय जाति वैक्रियक शरीर, आहारक शरीर, तैजस शरीर और कार्माण शरीर । पहला संस्थान वैक्रियक अंगोपांग, आहारक अंगोपांग, वर्ण, रस, गंध, स्पर्श, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छवास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस वादर पर्याप्त, प्रत्येक स्थिर, शुभ, सुभग, सुश्वर, आदेय, निर्माण और तीर्थंकर, अंतिम समय की चार प्रकृतियां हैं― हास्य, रति, भय, जुगुप्सा ।
प्रमाद रहित मध्यम और जघन्य कषाय वाली भूमिका में संवर का विवरण―उक्त समस्त 36 प्रकृतियों का 9वें गुणस्थान में संवर होता है । 9वें गुणस्थान के प्रथम समय से लेकर संख्यात भागों में प्रदेश बंध और संज्वलन क्रोध ये दो प्रकृतियां बंधती हैं । उससे ऊपर शेष संख्यात भागों में संज्वलन मान और संज्वलन माया ये दो प्रकृतियां बंधती हैं, और इस ही 9वें गुणस्थान के अंतिम समय में संज्वलन लोभ बंध को प्राप्त होता है । ये समस्त प्रकृतियां जो 9वें गुणस्थान में बंध रही हैं ये मध्यम कषाय के आस्रव हैं । ये जब नहीं रहती याने उसके बाद के भागों में इन प्रकृतियों का संवर होता है और इन सब प्रकृतियों का 11वें गुणस्थान में प्रारंभ से ही संवर है । 10वें गुणस्थान में यह जीव 5 ज्ञानावरण प्रकृतियों का, 4 दर्शनावरण प्रकृतियों का, यशसकीर्ति, उच्चगोत्र और 5 अंतराय प्रकृतियों का बंध करने वाला है । ये मंद कषाय के आस्रव हैं । इन प्रकृतियों का 10वें गुणस्थान के अंत में बंध विच्छेद हो जाता है, सो इन प्रकृतियों का अभाव होने पर इससे ऊपर के गुणस्थानों में इन प्रकृतियों का संवर है ।
कषाय रहित भूमिका में संवर का विवरण―क्षीण मोह नामक 12वें गुणस्थान के अंत में मंद कषाय से होने वाले आस्रव का निरोध है और यहाँ ही समस्त शेष घातिया कर्मों का अभाव हो जाता है जिसके कारण 13वां गुणस्थान बनता है । तेरहवें गुणस्थान में योग का सद्भाव होने से वह सयोग केवली कहलाता है । 13वें गुणस्थान में 12वें गुणस्थान में और 11वें गुणस्थान में सातावेदनीय का ही आस्रव है । इसका संवर होने पर अयोग केवली गुणस्थान में किसी भी प्रकृति का आस्रव नहीं है, इस प्रकार मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग के अभाव से इन समस्त प्रकृतियों का अपनी-अपनी भूमिका में संवर हो जाता है । अंत में सातावेदनीय का आस्रव चलता था, जिसका निमित्त है योग, क्योंकि असातावेदनीय प्रकृतियों का बंध नहीं होता, केवल ईर्यापथ आस्रव होता है । सो इस योग के अभाव में अयोग केवली के शेष बचे हुए सातावेदनीय का भी संवर हो जाता है, आत्मा की प्रगति संवर पूर्वक ही होती है, जैसे किसी समुद्र या नदी में नाव चल रही है, उसमें छेद है और उस छेद के द्वार से नाव में पानी आ रहा है, तो पानी आ रहा, भरेगा तो वह नाव डूब जायेगी । तो नाव का खेने वाला सर्व प्रथम उपाय उस छेद को बंद करने का करता है, ऐसा भी नहीं चाहता कि छेद बंद तो न हो और पानी उलीचता जाये । ऐसा करने से उसे लाभ नहीं हैं । यहाँ उलीच रहा वहाँ आ रहा, आपत्ति तो वही रही, तो सर्वप्रथम वह नाव का छिद्र बंद करता है, फिर आया हुआ जो पानी है उसको वहाँ से निकालता है । सब पानी निकल जाने पर आराम से नौका उस समुद्र या नदी के एक तट पर पहुंच जाती है । ऐसे ही इस आत्मा में मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद आदिक के छिद्रों से कर्मप्रकृतियों का आस्रव होता है । तो मोक्षगामी जीव सर्वप्रथम उन मिथ्यादर्शन आदिक छिद्रों को बंद करता है, शुद्ध आत्म स्वभाव की दृष्टि से वह इन विभावों को दूर करता है । होता है संवर । अब नवीन कर्मों का आस्रव नहीं चल रहा । जहाँ जैसी भूमिका है उसके अनुसार आस्रव निरोध है । अंत में जब पूर्ण आस्रव निरोध हो जाता तो जहाँ से आस्रव निरोध चल रहा और चारित्र मोह का क्षय चलने लगा वहाँ से कर्म प्रकृतियों की निर्जरा चल रही थी, क्षय हो रहा था, क्षय होते-होते अंत में सर्व कर्म प्रकृतियों का अभाव हो जाता है तो आत्मा को मुक्ति प्राप्त होती है । तो मुक्ति प्राप्त होने में मूल उपाय संवर है । बड़े-बड़े मुनिराजों ने संवर तत्त्व पाये बिना बड़ी-बड़ी तपस्यायें की लेकिन उनको मोक्ष मार्ग नहीं मिल सका । और जिन मुनिराजों ने सम्यक्त्व लाभ लिया, संवर तत्त्व पाया उनकी निर्जरा और क्षय होकर मुक्ति हुई है । इस प्रथम सूत्र में संवर तत्त्व का लक्षण कहा है कि आस्रव का निरोध होना संवर है वहाँ यह ज्ञात न हो सका कि आत्मोपलब्धि के कारण मिलने पर कर्म का निरोध होता है तो वह किस उपाय से होता है, उस उपाय की यहाँ जिज्ञासा है कि आस्रव निरोध इस उपाय से होता है, उस उपाय को बताने के लिए सूत्र कहते हैं ।