वर्णीजी-प्रवचन:युक्त्यनुशासन - गाथा 34
From जैनकोष
कालांतरस्थे क्षणिके ध्रुवे वाऽपृथक्पृथक᳭त्वाऽवचनीयतायाम् ।
विकारहानेर्न च कर्तृ कार्ये वृथा श्रमोऽयं जिन ! विद्विषां ते ।।34।।
(121) पदार्थ को क्षणिक अथवा नित्य अपरिणामी मानने पर दोनों ही मान्यता की कर्ताकार्य की असिद्धि―जो लोग पदार्थ को वैसा का ही वैसा बिना अदल-बदल अवस्था पाये ही कालांतर में रहता है, ऐसा मानते हैं उन पुरुषों के यहाँ कर्ता और कार्य दोनों ही नहीं बन सकते, चाहे वे कर्ता और कार्य को अभिन्न मानें अथवा भिन्न मानें या अवक्तव्य मानें । कैसी ही कुछ कल्पना करें, मगर जैसे पदार्थ को क्षणिक मानने पर कर्ताकार्य नहीं बनता, ऐसे ही नित्य अपरिणामी मानने पर भी कर्ता-कार्य नहीं बनता, क्योंकि नित्य अपरिणामी मानने पर विकार तो कुछ बन न सका और विकार का ही नाम कार्य है ꠰ तो जब नित्य अपरिणामी तत्त्व में विकार न बना तो कर्ता ही कैसे रहा और कार्य क्या रहा ।
(122) पदार्थ के संबंध में पदार्थ के गुण―वास्तविकता यह है कि पदार्थ स्वयं अवस्थित है, सदा रहने वाला है, मगर उसके पूर्व आकार का त्याग होता है, मगर नवीन आकार का ग्रहण होता है और अपने सहजस्वरूप का कभी त्याग नहीं होता, ऐसी वस्तुस्थिति में कार्य कारण भाव बना करता है । पर जहाँ किसी प्रकार का विकार ही नहीं माना गया, रंचमात्र अदल-बदल ही नहीं मानी गई वहाँ क्रम-अक्रम भी नहीं रह सकता याने गुण और पर्याय भी नहीं ठहरते । जो अक्रम से रहे सो गुण है और जो क्रम से रहे सो पर्याय है । तो क्रम-अक्रम का विकार जब कुछ रहा ही नहीं पदार्थ में, तब तो फिर कार्य क्या और कर्ता ही कौन रहा?
(123) कर्ता-कार्य हुए बिना स्वयं अपवर्ग के प्रयास के लिये चिंतन व चेष्टा की व्यर्थता―जब पदार्थ में कोई विकार ही नहीं माना गया, किसी प्रकार की क्रिया ही नहीं मानी गई तब कर्ता कौन बना ? कर्ता वही कहलाता जो द्रव्य स्वतंत्र होकर भी अपनी क्रिया में रहता हो । तो क्रिया नहीं तो कर्ता नहीं, कर्ता नहीं तो कार्य नहीं और जब कार्य बन ही नहीं सकता तब तो स्वर्ग मोक्ष की सिद्धि करना आदिक ये ध्येय, ये प्रलाप क्यों किए जाते? सो जैसे पदार्थ को क्षणिक मानने पर उसमें किसी प्रकार का कार्य नहीं सिद्ध होता ऐसे ही नित्य अपरिणामी मानने पर उसमें भी किसी प्रकार का कार्य सिद्ध नहीं होता ꠰ सो हे वीर जिनेंद्र ! जो लोग आपके द्वेषी हैं मायने स्याद्वाद शासन को नहीं मानते हैं उनका मोक्ष स्वर्ग आदिक के लिए प्रयास करना; यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि, तपश्चर्या आदिक बताना अथवा करना सब व्यर्थ है, क्योंकि उस सिद्धांत में कर्ता-कर्म की सिद्धि ही नहीं होती । इस प्रकार इस कारण तक कुछ संक्षिप्तरूप से प्रधान-प्रधान स्याद्वाद-बाह्य मतों के दोष बताये जिससे पहले जो यह प्रतिज्ञा की थी कि अन्य मत सब दोषपूर्ण हैं उसका समर्थन किया और साथ ही साथ जो यह प्रतिज्ञा की थी कि हे वीर जिनेंद्र ! आपका मत अद्वितीय है, उसका भी समर्थन किया और इस कारण से हे प्रभो ! आप ही महान हैं, यह जो उद्देश्य बनाया था उसकी सिद्धि की है । अब प्राय: लोक में जो स्वच्छंद वृत्ति के लोग फिर रहे हैं, जिनकी संख्या अनगिनते हैं, ऐसे पुरुषों के हार्दिक मंतव्य का दिग्दर्शन और उनका निराकरण कराते हैं ।