वर्णीजी-प्रवचन:युक्त्यनुशासन - गाथा 36
From जैनकोष
दृष्टेऽविशिष्टे जननादि हेतौ
विशिष्टता का प्रतिसत्त्वमेषाम् ।
स्वभावत: किं न परस्य सिद्धि
रतावकानामपि हा ! प्रपात: ।।36।।
(132) चैतन्योत्पत्ति के हेतुभूतों का अविशिष्ट समागम में प्रति प्राणियों की विशिष्टता का विरोध―इस कारिका में चार्वाक के सिद्धांत में आपत्तियां बताई है । चार्वाक यह मानते हैं कि चेतन की उत्पत्ति या अभिव्यक्ति पृथ्वी आदिक भूतों के समागम से होती है तो जरा ! वे यह सोचें कि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु का समागम हुआ तो वह तो समागम एक ही ढंग का है । चार चीजें थीं अचेतन, उनका संगम हो गया है तो वह तो सब जगह एक समान संगम है । जब सर्वत्र एक समान ही इन दूसरे भौतिक पदार्थों का समागम है तो जीवों में जो अलग-अलग विशेषता दिख रही है कोई कम ज्ञान वाला है, कोई अधिक ज्ञान वाला है, इस तरह का जो विचित्र भेद जीवों में पाया जा रहा है यह विशेषता फिर कैसे बन सकती, क्योंकि इन चारों चीजों का मिलना सर्वत्र एक समान है, तो उसमें चैतन्यशक्ति एक ही तरह की प्रकट होनी चाहिए । उसका लक्षण, उसकी अभिव्यक्ति सब एक समान होना चाहिए, मगर यहाँ तो बड़े भेद नजर आ रहे हैं ꠰ कोई जीव बिल्कुल मूर्ख है, कोई जीव बहुत बड़ा ज्ञानी है, किसी को महान् दुःख रहता है तो किसी को बड़ा सुख समागम मिलता है तो इतना बड़ा फर्क कहाँ से आ गया अगर चेतन स्वतंत्र पदार्थ नहीं है तो? जब कारण में भेद नहीं होता तो
कारणजन्य कार्य में भी भेद नहीं बन सकता । चारों पदार्थ भौतिक मिल गए, मिलना एक समान है, उसमें कोई विशेषता नहीं, तो चेतन में विशेषता भी न होनी चाहिए । चेतना को भौतिक मानने पर चेतन की विशेषता को किस आधार सिद्ध करेंगे?
(133) स्वतंत्र सद᳭भूत चेतन में उपाधिभेद से पर्यायभेदों की सिद्धि―चेतन तत्त्व है पृथक् तो उसकी शक्ति है ꠰ उपाधि भेद से उसके भेद नजर आयेंगे, कोई कम जानकार, कोई ज्यादा जानकार, जैसा जिसके कर्म का उदय है, कर्म का हटाव है उसमें उस प्रकार से अंतर आता जायेगा । अगर चेतनपदार्थ ही कुछ नहीं है और वह केवल चार भौतिक पदार्थों की ही कला है तो जीवों में ऐसी विशिष्टता कैसे सिद्ध हो सकती है? यहाँ शंकाकार यदि यह कहे कि चेतन में भी जो विशेष अंतर नजर आ रहे हैं सुख-दुःख, ज्ञान-अज्ञान आदिक के वह विशिष्टता भी स्वभाव से ही मान ली जावे । ऐसा कहने वाले चार्वाक जरा ! यह तो सोचें कि किसी झूठ को सिद्ध करने के लिए इतना परिश्रम कर रहे हैं तो वे स्वभाव से उन भूतों से भिन्न आत्मतत्त्व की ही सिद्धि क्यों नही मान लेते? उसमें क्या बाधा आती है? और इस चेतन आत्मा को न मानकर वह भूतों का कार्य है ऐसा परिश्रम कर रहे सोचने का, उससे नतीजा क्या निकलता है?
(134) कारण की समीक्षा में चैतन्यतत्त्व की स्वतंत्र सिद्धि―उक्त समस्या के समाधान में यदि चार्वाक यह विचारे कि जब उनका यह कहना है कि है तो चेतन पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु आदिक का कार्य और इस चेतन में विशेषता स्वभाव से है तो चेतन के स्वभाव से प्रसिद्ध विशेषता में शरीराकार परिणत हुए पृथ्वी आदिक के अर्थ हैं, ऐसा मानने वाले ये भी बतलायें कि चेतन का कारण जो भूतों को मानते हैं सो वे भूत चेतन के उपादान कारण हैं या सहकारी कारण? यदि उन्हें उपादान माना जाये तो फिर उस चेतन में वह ही बात कहनी चाहिए जो पृथ्वी आदिक में है ।
(135) कारण की समीक्षा में चैतन्यतत्त्व की स्वतंत्र सिद्धि का उदाहरण―जैसे आभूषण का उपादान स्वर्ण है तो सब आभूषणों में स्वर्णपना आता है, ऐसे ही चेतन का उपादान कारण यदि भौतिक है तो चेतन में भी भूतपना ही आना चाहिए । और ऐसा भी नहीं देखा जा रहा कि इस पृथ्वी आदिक ने अपने अचेतन के आकार का त्याग किया हो और चैतन्यस्वरूप को धारण किया हो । जब तक अपने पूर्व आकार का त्याग न करे और नवीन आकार का ग्रहण न करे तब तक उसे उपादान नहीं कहा जा सकता । सो भूतों ने अचैतनाकारों का त्याग नहीं किया सो उपादान कारण नहीं हो सकते हैं और भूतों का जो स्वभाव है वर्ण, गंध आदिक या धारणा आदिक, वे चेतन में नहीं पाये जाते । यहाँ तो बिल्कुल भिन्न लक्षण हैं, चेतन का लक्षण चेतना है, भूतों का लक्षण रूपादिक है, तो भला विजातीय पदार्थों से अन्य प्रकार का पदार्थ कैसे उत्पन्न हो सकता है? उपादान कारण भी हो कोई तो पदार्थ के अनुरूप ही कार्य बनेगा । ये पृथ्वी आदिक अचेतन कोई भी मिल जाये वहां चेतन कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती । तो अचेतन ये पृथ्वी आदिक उपादान कारण तो रहे नहीं और सहकारी कारण मानने का अर्थ ही यह है कि चेतन कोई भिन्न पदार्थ है और उपादान है । तो किसी भी तरह कारण के बारे में आलोचना करें तो यह ही सिद्ध होगा कि चेतन भिन्न तत्त्व है और भूतादिक भिन्न तत्त्व हैं, पर उस चैतन को जो नहीं मान रहे हैं वे पुरुष जैनशासन से बाह्य हैं और उनका यह विचार इस संसारसमुद्र में ही डुबोने वाला है ।