वर्णीजी-प्रवचन:युक्त्यनुशासन - गाथा 54
From जैनकोष
अमेयमश्लिष्टममेयमेव
भेदेऽपि तद᳭वृत्त्यपवृत्तिभावात्।
वृत्तिश्च कृत्स्नांश विकल्पतो न
मानं च नाऽनन्तसमाश्रयस्य ।।54।।
(179) सर्वगत एक सामान्य की अप्रमेयता―अभी तक क्षणिकवादियों के अन्यापोहरूप सामान्य की चर्चा थी । उसके प्रतिपक्ष में सर्वव्यापक सामान्यवादी कहते हैं कि अन्यापोहरूप सामान्य तो वचन के गोचर नहीं है, क्योंकि वह अवस्तु है । कोई शब्द बोला और शब्द में जो अर्थ भरा है उस अर्थ का तो यह वाचक नहीं और अन्य-अन्य सब पदार्थों का हटाव हटाव ही वाचक है तो यह तो कोई विवेकभरी दृष्टि नहीं है । अन्यापोह अवस्तु है, किंतु सर्वगत सामान्य, वह वचनगोचर है और किसी भी प्रकार के भेद को वह साथ में लिए हुए नहीं है । तो सामान्य ही तत्त्व है । इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि शंकाकार द्वारा माना गया सामान्य अप्रमेय है अर्थात् न तो उसमें देश की सीमा है कि वह सामान्य कहां तक है, न उसमें काल की सीमा है कि वह सामान्य कब तक रहेगा, न उसमें आकार की सीमा है कि वह सामान्य कितना बड़ा है, ऐसा सामान्य शंकाकार ने माना है और साथ ही वे मानते हैं कि किसी भी प्रकार का भेद भी साथ में नहीं लगा है ।
(180) शंकाकार की सामान्य की अप्रमेयतारूप में शंका का समाधान―तो ऐसा शंकाकार का सर्वव्यापी नित्य निराकाररूप जो सत्त्व सामान्य है वह अप्रमेय है, अवस्तु है, प्रमाण का विषय नहीं है, किसी भी ज्ञान से सर्वव्यापी नित्य निराकार सत्य नहीं जाना जाता । और वे शंकाकार सामान्य को अपने आश्रयभूत द्रव्याद्रिक के साथ एक नहीं मानते, भेदरूप स्वीकार करते अर्थात् द्रव्य गुण कर्म ये जुदा-जुदा वस्तु हैं और सामान्य जुदा वस्तु है तो ऐसा कोई जुदा सामान्य ज्ञान में नहीं आता, क्योंकि सामान्य की वृत्ति उन द्रव्यादिक में नहीं मानी है । आश्रयभूत द्रव्य, गुण, कर्म सबमें सत्त्व की वृत्ति नहीं मानी है । वह सत्ता सामान्य सबमें व्यापक है । तो सामान्य का आश्रय तो मानते हैं द्रव्यादिक को, मगर द्रव्यादिक में सामान्य की वृत्ति नहीं मानते । तो ऐसा उनका सामान्य तो द्रव्यादिक का सामान्य से संयोग ही कहलाया । फिर तो जैसे बर्तन में दही रखा, ऐसे ही द्रव्य में सामान्य रखा, तो सामान्य तो कुछ द्रव्य न रहा, वस्तु न रहा और सामान्य द्रव्य नहीं है तो उसका संयोग भी न बन सका, क्योंकि संयोग दो द्रव्यों में बना करता । तो इस तरह किसी भी ढंग से द्रव्यादिक में सामान्य वृत्ति नहीं बन सकती । निष्कर्ष यह है कि शंकाकार ऐसा समझता है कि सारे लोक में सामान्य एक तत्त्व है और वह सामान्य सब पदार्थों में मौजूद है, व्यापक है, क्योंकि सभी पदार्थों के बारे में सत् है, सत् है ऐसा सबके बारे में बोध होता है और वह सामान्य इन सबसे निराला है । तो उसी सामान्य की समालोचना चल रही है कि विशेषों से निराला स्वतंत्र कोई सामान्य वस्तु नहीं है ।
(181) कल्पित सर्वगत एक सामान्य की द्रव्यादिकों में वृत्ति की असंभवता―अब यहाँ शंकाकार कहता है कि हम सामान्य की द्रव्यादिक के साथ वृत्ति मान लेंगे तब तो सामान्य सिद्ध हो जायेगा । तो उत्तर में कहते हैं कि यदि सामान्य की वृत्ति द्रव्यादिक विशेषों के साथ मानना चाहते हो तो यह बतलाओ कि वह सामान्य समस्त विकल्परूप है या आंशिकरूप है? जिसमें अंश की कल्पना नहीं, ऐसे समस्त विकल्पोंरूप सामान्य की वृत्ति तो एक साथ सब व्यक्तियों में सिद्ध नहीं की जा सकती । फिर तो अनेक सामान्य मानने पड़ेंगे और हर एक वस्तु के साथ सामान्य लगा हुआ है, ऐसा मानना पड़ेगा । एक और निरंश सामान्य का सब पदार्थों के साथ एक साथ संबंध नहीं बन सकता याने पदार्थ तो अनेक हैं और सामान्य एक माना गया तो एक सामान्य सब पदार्थों में एक साथ कैसे जुड़ेगा? चाहे कितनी ही तेज दौड़ हो सामान्य की द्रव्यादिक के साथ जोड़ने के लिए, किंतु यह संभव नहीं कि एक सामान्य भिन्न-भिन्न द्रव्यादिक के साथ एक साथ जुड़ जाये । शंकाकार कहता है कि हमारा सामान्य सर्वव्यापी है, नित्य है, अमूर्त है । इस कारण सब द्रव्यों के साथ एक साथ जुट जाता है । जैसे कि आकाश । आकाश सर्वव्यापी है, नित्य है, अमूर्त है । तो सर्व पदार्थों के साथ एक साथ जुटा हुआ है । इसी तरह सर्वव्यापी एक सामान्य समस्त द्रव्यादिक के साथ एक साथ जुटा हुआ है ।
(182) उपर्युक्त शंका का समाधान―इस शंका का समाधान यह है कि आकाश की तरह एक सामान्य का सर्व द्रव्यादिक के साथ जुटाव मानने पर यह मानना पड़ेगा कि जैसे आकाश अनंतप्रदेशी है, आकाश जैसे सांश है उसी प्रकार सामान्य भी सांश बन बैठेगा और शंकाकार ने सामान्य को सावयवी नहीं माना, सामान्य को निरंश ही माना है तो जो निरंश सामान्य है वह एक साथ सर्व पदार्थों में जुट जाये―यह कथन युक्त नहीं है । जैसे परमाणु एक है तो सारे पदार्थों में कैसे एक साथ व्याप सकता हे? ऐसे ही सामान्य एक निरंश है तो वह समस्त द्रव्यादिक के साथ कैसे जुट सकता है एक साथ?
(183) वस्तु से पृथक् सामान्य की असंभवता―शंकाकार सामान्य को इस तरह कोई वस्तु मान रहा जैसे कि द्रव्य गुण कर्म हैं उसे सर्वव्यापक मान रहा । और द्रव्य गुण कर्म को भिन्न मान रहा, लेकिन द्रव्यगुण कर्म में सामान्य अगर जुटे, सामान्य की वृत्ति हो तब तो सामान्य सिद्ध होता है । तो वह वृत्ति ही तो सिद्ध नहीं हो रही जिससे कि सामान्य सिद्ध हो जाये । जैसे कोई कहे कि मनुष्यसामान्य अलग चीज है और बच्चा, जवान, बूढ़ा―ये बिल्कुल अलग वस्तु हैं या ब्राह्मण, क्षत्रिय आदिक अनेक पुरुष ये भिन्न-भिन्न चीजें है और सामान्य मनुष्य इन सबसे जुदा हैं, फिर यह मनुष्य सामान्य इन बच्चा, जवान, बूढ़ा, ब्राह्मण, क्षत्रिय आदिक इनमें जुटता है तो ऐसे निरर्गल वचन कौन मान लेगा कि मनुष्यसामान्य जुदा है और बच्चे लोग जुदे हें ? तो ऐसे सामान्य को सर्व पदार्थों में वृत्ति नहीं बनती और इसी कारण सामान्य का जुदा वस्तुत्व सिद्ध नहीं होता ।
(184) वस्तु से व्यतिरिक्त सत्ता महासामान्य की असंभवता―अब यहाँ शंकाकार कहता है कि सत्तारूप महासामान्य तो पूरा सर्वगत सिद्ध है, क्योंकि सभी पदार्थों में वह सत् प्रत्यय का हेतुभूत है । सभी पदार्थ हैं कि नहीं? ऐसा प्रश्न किया जाने पर उत्तर होता है कि हाँ हैं । तो हैं, ये किस कारण से हैं कि उन सबमें सत्ता महासामान्य रहता है । वह सत्ता महासामान्य अनंत व्यक्तियों के समाश्रयरूप है याने अनंत व्यक्तियों में रहती है । जो-जो भी सत् माने जाते हैं उन सबमें सत्ता सामान्य है, क्योंकि सद्रूप से उनमें कोई विशेषता नहीं देखी जाती । है में क्या विशेषता? कुछ भी चीज है, है, हैपना में कोई भेद है क्या कि इसका हैपना और ढंग का है, इसका हैपना और ढंग का है? भले ही उनके गुण जुदे, अवस्था आदिक में विशेषता होती, मगर अस्तित्त्व मात्र में कोई भेद नहीं पड़ता । और ऐसा जो सामान्य अस्तित्व है निर्भेद, वही तो सामान्य कहलाता । अब इस शंका का उत्तर करते हैं कि सत्ता महासामान्य को सिद्ध करने वाला कोई प्रमाण नहीं है याने द्रव्य, गुण, कर्म जो-जो भी सत᳭ माने जायें शंकाकार के ही मत में, उनका तो ग्रहण हो ना, और सत्ता सामान्य का जुदा ग्रहण हो जाये, यह संभव है क्या? जैसे कोई बच्चा, जवान, बूढ़ा या कोई भी पंडित, मूर्ख, ब्राह्मण, क्षत्रिय आदिक किसी पुरुष को तो देखे नहीं और उसे मनुष्यसामान्य दिख जाये, ऐसा कहीं हो सकता क्या? तो सत्ता सामान्य का ग्राहक कोई प्रमाण नहीं है ।
(185) द्रव्यादिक में सामान्य की अभेदवृत्ति मानने पर पदार्थ के सामान्यविशेषात्मकत्व की सिद्धि―समस्त विकल्प वाले सामान्य की द्रव्यादिक में वृत्ति नहीं बनती । अगर द्रव्यादि में सत्ता की वृत्ति बनायी तो उनके साथ सामान्य सिद्ध हो जायेगा, फिर तो वस्तु ही सामान्यविशेषात्मक बन गई, स्याद्वाद का शासन ही शरण बन गया ꠰ तो विशेषरहित सामान्य अथवा द्रव्यादिक से भिन्न सामान्य जो सर्व व्यापक हो वह सिद्ध नहीं होता । अगर कल्पना भी कर डाले कि है कोई सामान्य अलग तो वह अन्य द्रव्यों की भांति सप्रदेशी सिद्ध हो जाता है । लेकिन सामान्य को सप्रदेशी कहना इष्ट नहीं है । तब जैसे अन्यापोह वचन के गोचर नहीं है इसी प्रकार यह अभेदरूप सामान्य भी किसी भी प्रमाण से सिद्ध नहीं है और न वह वचन के गोचर है ꠰ तब वस्तु को सीधा सामान्यविशेषात्मक मानना चाहिए । उस पदार्थ के जानते समय में जब सामान्य की प्रधानता होती है तब सामान्य का स्वरूप समझ में आता है और जब विशेष की प्रधानता होती है तब विशेष का स्वरूप समझ में आता है । सो हे वीर जिनेंद्र ! आपके शासन में सामान्यविशेषात्मक पदार्थ की सिद्धि अबाधित है ।