वर्णीजी-प्रवचन:युक्त्यनुशासन - गाथा 56
From जैनकोष
व्यावृत्तिहीनान्वयतो न सिद्ध᳭येद्,
विपर्ययेऽप्यद्वितयेऽपि साध्यम् ।
अतद᳭व्युदासाभिनिवेशवाद:,
पराभ्युपेतार्थविरोधवाद: ।।56।।
(189) व्यावृत्तिहीन अन्वय से सामान्य की असिद्धि―सत्ताद्वैतवादी अपने अभीष्ट तत्त्व को कैसे अन्वय से सिद्ध करते हैं कि सत्ता वही वही है, परंतु व्यावृत्तिहीन है उसका अन्वय । जैसे कि घड़ा कहा तो जितने घड़े कहे सबमें घड़ापने का अन्वय है, परंतु वे सब घड़े परस्पर एक दूसरे से अलग हैं । यों दूसरों से अलग रहना, इसे कहते हैं व्यावृत्ति । अन्वय होने पर भी व्यावृत्ति है, किंतु सत्ताद्वैतवादी अन्वय तो मानते हैं, क्योंकि सभी सत् हैं, यह बात अन्वय से ही सिद्ध करेंगे । व्यावृत्ति नहीं मानते । व्यावृत्ति न मानने का कारण यह कि उसमें द्वैत की सिद्धि हो जाती । यह उससे अलग है । तो आखिर दो तो बने, सो सत्ताद्वैत में या केवल सामान्य मानने वाले के यही व्यावृत्तिहीन अन्वय माना गया है, किंतु व्यावृत्तिहीन अन्वय से सामान्य की सिद्धि नहीं होती । उसका कारण यह है कि जब विपक्ष की व्यावृत्ति नहीं मानी तो सत् असत् सभी का संकर हो बैठेगा । घड़े तो हैं सब, मगर घड़ा स्वयं तब ही है जब कि घट का प्रतिपक्ष उस घट में नहीं है । कपड़ा वगैरा आदिक रूप घट नहीं हैं, तब ही घट की सिद्धि है, और 100 घड़े भी तब ही हैं जब कि एक घड़े का प्रतियोगी 99 घड़े उस एक घड़े में नहीं हैं । तो विपक्ष को व्यावृत्ति माने बिना सत् असत् या द्रव्यत्व अद्रव्यत्व आदिक साधनों का संकर हो गया । कुछ भी सब कुछ बन जाये तो उससे सांकर्य हो गया तो कुछ सिद्ध ही नहीं हो सकता ।
(190) सत् के अन्वय को ही असत् की व्यावृत्ति कहने की अशक्यता―शंकाकार कहता है कि जो सत् की अनुवृत्ति है, समस्त पदार्थों में सत् का जो अन्वय है वही असत् आदिक की व्यावृत्ति कहलायेगी और इस तरह द्वैत भी न बना और अनात्म से सिद्धि हो जायेगी । इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि शंकाकार का यह कहना कि सत् रूप की अनुवृत्ति ही असत् आदि की व्यावृत्ति है तो यह कथन बिल्कुल असंगत है, क्योंकि अनुवृत्ति तो भावस्वरूप है । जैसे 100 घड़ों में घड़ों की अनुवृत्ति की है तो वह भावस्वरूप है, विधिरूप है । हैं वे घड़े सब और व्यावृत्ति अभावस्वरूप होता । जैसे अघट व्यावृत्ति घट में है तो यह अभावरूप ही तो है मायने घड़े में अन्य सर्व पदार्थों का अभाव है । तो एक भावस्वरूप तत्त्व और एक अभावस्वरूप तत्त्व―इन दोनों में भेद माना गया है, फिर सत् के अन्वय से ही असत् की व्यावृत्ति नहीं कह सकते ।
(191) सत् का अन्वय कहने में सामर्थ्य से असत् की व्यावृत्ति मानने पर स्याद्वाद शासन की मान्यता की सिद्धि―शंकाकार कहता है सत् के अन्वय को असद᳭व्यावृत्ति न कहो, लेकिन सत् का अन्वय होने में असद᳭व्यावृत्ति सामर्थ से ही सिद्ध हो जाती है । इसके उत्तर में कहते कि अब कुछ तुम ठिकाने पर आये । चाहे सामर्थ्य से असद᳭व्यावृत्ति सिद्ध हुई, मगर असद्वैत है तो सही और उसकी व्यावृत्ति बन गई । फिर यह तो नहीं कह सकते कि व्यावृत्तिहीन अन्वय से हमारे अभीष्ट से साध्य की सिद्धि होती है । जब सामर्थ से असत् की व्यावृत्ति शंकाकार ने सिद्ध कर लिया तो यह कहना चाहिए कि सत् का अन्वय है तो असत् की व्यावृत्ति है, घट का अन्वय है तो अघट की व्यावृत्ति है और इस ही प्रकार सत् सामान्य, द्रव्यत्व सामान्य सबकी असिद्धि होती है और फिर सिद्धि के प्रसंग में उस सामान्यतत्त्व की भी सामान्यविशेषरूपता व्यवस्थित हो जाती है ꠰ कुछ भी तत्त्व मानो, सामान्यविशेषात्मक माने बिना उसकी सिद्धि नहीं हैं । तो यहाँ तक यह बात बतायी गई कि व्यावृत्तिहीन अन्वय से सामान्य की सिद्धि नहीं होती ।
(192) अन्वयहीन व्यावृत्ति से विशेष की असिद्धि―अब विशेष की भी बात सुनो―कोई ऐसा चाहे कि अन्वयहीन व्यावृत्ति से कोई साध्य की सिद्धि हो जाये, सो यह भी नहीं बनता । अन्वयहीन व्यावृत्ति अन्यापोहवादियों ने माना है । क्षणिकवादी पदार्थों को विधिरूप से वाच्य नहीं कहते, किंतु वे व्यावृत्तिरूप से वाच्य कहते हैं । जैसे घट कहा तो घट का अर्थ घड़ा नहीं है, किंतु अघट व्यावृत्ति है ꠰ तो उन्होंने व्यावृत्ति तो मानी, पर अन्वय नहीं माना, विधि नहीं मानी, तो ऐसा अन्यापोह अन्वयहीन व्यावृत्ति से सिद्ध नहीं होता । इसका कारण यह है कि सर्वथा अन्वयरहित व्यावृत्ति के प्रत्यय से जबरदस्ती भले ही अन्यापोह की कल्पना कर ली जाये, पर वहाँ जब विधि सिद्ध हो ही नहीं रही, कोई वस्तु सद्भावरूप तत्त्व जब वहाँ कुछ माना ही नहीं जा रहा तो वहाँ अर्थक्रिया नहीं बन सकती । अर्थक्रिया क्या व्यावृत्ति में बनती है? वह तो वस्तु में बनती है, जो सद्भावरूप हो, विधिरूप हो, तो अर्थक्रिया साध्य सिद्ध न होने से फिर प्रवृत्ति का ही लोप हो जायेगा । इससे व्यावृत्तिहीन अन्वय कहीं होता ही नहीं है । वस्तु है तो अन्य की उसमें व्यावृत्ति भी है ।
(193) वस्तु के अभावरूप होने पर भी दृश्य और विकल्प्य के एकत्वाध्यवसाय से विधि की व्यवस्था मानने की आरेका व उसका समाधान―अब शंकाकार यह कहता है कि वस्तु सद्भावरूप कुछ नहीं है याने शब्द सद्भावरूप वस्तु के वाचक नहीं हैं, किंतु दृश्य और विकल्प―इन दोनों में एकता का अभिप्राय बन जाने से प्रवृत्ति बनती हे । और यों साध्य की सिद्धि होती है । दृश्य के मायने हैं जो निर्विकल्प प्रत्यक्ष के द्वारा जाना जाये और विकल्प के मायने हैं जो सविकल्प ज्ञान के द्वारा निर्णय में आये । सो दृश्य और विकल्प दोनों में अब एकता का अध्यवसाय होता है तो प्रवृत्ति होने लगती है और इस तरह अन्वयहीन व्यावृत्ति सिद्ध हो जायेगी । इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि दृश्य और विकल्प का एकत्व अध्यवसाय संभव ही नहीं, क्योंकि निर्विकल्प ज्ञान से तो वस्तु का दर्शन माना है शंकाकार ने और उसके बाद होने वाले सविकल्प ज्ञान के द्वारा उसमें विकल्प उठते हैं, उसका निर्णय बनता है ऐसा माना है । तो एकत्व का अध्यवसाय इन दोनों में तब होता जब दोनों ज्ञान के विषयभूत बन रहे हों । परंतु दर्शन तो विकल्प को ग्रहण नहीं करता तो निर्विकल्प प्रत्यक्ष के द्वारा इन दोनों में एकत्व का अध्यवसाय नहीं बन सकता, क्योंकि निर्विकल्प प्रत्यक्ष का विषय विकल्प नहीं है । अब निर्विकल्प प्रत्यक्ष के अनंतर होने वाले सविकल्प ज्ञान की बात देखो―वह सविकल्प ज्ञानदृश्य को विषय नहीं करता, क्योंकि सविकल्प ज्ञान से विकल्प का ही निर्णय है । तो जब दोनों का ग्रहण नहीं है किसी ज्ञान से तो एकत्व का अध्यवसाय कैसे हो सकता है?
(194) निर्विकल्प व सविकल्प ज्ञान की तरह ज्ञानांतर से भी दृश्य व विकल्प में एकत्व के अध्यवसाय की असंभवता―कोई ऐसा सोचे कि निर्विकल्प ज्ञान से विकल्प का उठना नहीं हुआ और सविकल्प ज्ञान से दृश्य विषयभूत नहीं हुआ तो ये दोनों ही ज्ञान दृश्य और विकल्प के एकल का अध्यवसाय न कर सकेंगे, किंतु कोई और ज्ञान जो दोनों को विषय करे उस ज्ञानांतर के द्वारा तो दृश्य और विकल्प में एकत्व का अध्यवसाय हो सकता हैं―ऐसा सोचना बिल्कुल असंगत है, क्योंकि कोई ज्ञानांतर हैं ही नहीं ऐसा कि जो दृश्य और विकल्प को ग्रहण कर सके । क्योंकि दृश्य मायने हैं निर्विकल्प ज्ञान के द्वारा, बस स्वलक्षण का प्रतिभास भर हुआ, उसमें निश्चय कुछ नहीं । न कोई निर्णय पड़ा है, उसे निर्विकल्प प्रत्यक्ष के अलावा और कोई ज्ञान जान ही नहीं सकता । और विकल्प कहते हैं वस्तु में निर्णय बन जाना, सो निर्णय का काल निर्विकल्प प्रत्यक्ष के बाद का है, तो भिन्न-भिन्न समयों में यह विषय है, भिन्न-भिन्न ज्ञान के ये विषय हैं । जैसा कि शंकाकार ने स्वयं माना है, उन दोनों को जानने वाला कोई ज्ञानांतर नहीं हो सकता जिससे कि दृश्य और विकल्प का एकत्व अध्यवसाय किया जा सके, और फिर एकत्व के अध्यवसाय के बल पर अन्वयहीन व्यावृत्ति अन्यापोह की सिद्धि की जा सकती । अन्वयहीन व्यावृत्ति से अन्यापोह की या स्वलक्षणरूप साध्य की सिद्धि नहीं बन सकती ।
(195) सामान्य पदार्थ व अन्यापोह की असिद्धि की तरह शून्यवाद, सत्ताद्वैत व संवेदनाद्वैत की भी असिद्धि―अब कोई दूसरा शंकाकार कहता है कि अन्वय और व्यतिरेक दोनों ही नहीं हैं, ऐसे शून्यवाद की सिद्धि तो सुगमतया हो ही जायेगी अथवा, सत्ता मात्र की सिद्धि तो स्वयं हो ही जायेगी । सो शंकाकार का यह कहना ठीक नहीं, क्योंकि सर्वथा अद्वैत की मान्यता पर साध्यसाधन का भेद नहीं बन सकता । अब सिद्धि किसके द्वारा की जाये और किसको सिद्ध किया जाये? कोई शंकाकार यह कहता कि अद्वैत को संवेदनमात्र मानते हैं केवल प्रतिभासमात्र, फिर उस प्रतिभासमात्र उस अद्वैत तत्त्व को हम किस साधन से सिद्ध करेंगे और किस साध्य को सिद्ध करेंगे? उस साधन का नाम है असाधन व्यावृत्ति ꠰ और इस तरह उस संवेदनाद्वैत की सिद्धि हो जावेगी । इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि यह जो व्यावृत्ति मानी है जिस किसी से उसे स्वयं तो मानते नहीं, उसको यों सिद्ध करते हैं शंकाकार कि दूसरों ने माना है, उसकी यहाँ व्यावृत्ति है । तो ऐसा अभिप्राय रखने पर दूसरों के द्वारा माने गए अर्थ के विरोधवाद का प्रसंग आता है अर्थात बौद्ध द्वारा संवेदनाद्वैतरूप अर्थ पराभ्युपगत है, सो व्यावृति वाले वचन से विरुद्ध पड़ गया, क्योंकि जिस असाधन से या असाध्य से व्यावृत्ति करना है वह कुछ अर्थ रखता कि नहीं? अगर कुछ अर्थ नहीं रखता तो उनकी व्यावृत्ति क्या? फिर साध्य-साधन का व्यवहार ही क्या और अर्थ मानते हुए दूसरे के माने गए तत्त्वों से तो द्वैत सिद्ध हो जाता है, इस प्रकार व्यावृत्तिहीन अन्वय नहीं, अन्वयहीन व्यावृत्ति नहीं । जब ये दोनों बातें युक्तिसंगत हैं तो यह सिद्ध होता है कि पदार्थ सामान्यविशेषात्मक है ।