वर्णीजी-प्रवचन:युक्त्यनुशासन - गाथा 6
From जैनकोष
दया-दम-त्याग-समाधि-निष्ठं
नय-प्रमाण-प्रकृताऽऽंजसार्थम् ।
अधृष्यमन्यैरखिलै: प्रवादै-
र्जिन ! त्वदीयं मतमद्बितीयम् ।।6।।
(18) प्रभुवीरशासन की दयादमनिष्ठता―वीरनाथ जिनेंद्र के स्तवन में समंतभद्राचार्य भक्ति कर रहे हैं कि हे प्रभो ! आपका सिद्धांत दया, दम, त्याग और समाधि में निष्ठ है । आपके सिद्धांत में इनका स्थान है दया;
स्वदया और परदया । मुख्य तो स्वदया है, स्वदया के होते संते परदया हो वह तो विधि है और स्व का हनन करते हुए पर की दया करे तो उसका नाम मोह है । प्रवचनसार में मोह के चिह्न बताये हैं तो यह बताया है कि जो प्रेक्षार है याने जिसमें प्रेम है, जिसको एक आत्मीयता की दृष्टि से देखते हैं लोग, ऐसा मनुष्य हो या तिर्यंच हो; गाय, भैंस, घोड़ा हो; जिसका जो कुछ है उनमें करुणाबुद्धि से जो प्रवृत्ति होती है वह है मोह का चिह्न । जैसे घर के बच्चे बीमार हों तो बड़ी दया आती, तड़फन होती है तो इसे दया न कहकर मोह बताया है, क्योंकि मूल में यह मेरा है, ऐसा आशय लेकर कर रहा है, सो सब मोह की चेष्टा है । अगर विशुद्ध करुणा होती तो दूसरे गैरों पर क्यों न इतना भाव जगता? तो स्वदया होते हुए पर दया हो तो उसकी महिमा है, पर स्व की हत्या करते हुए पर दया करे कोई तो उसकी अज्ञान चेष्टा है और मोह का काम है । स्वदया क्या चीज है? अपने में कषाय न जगे, अहंकार न जगे और यथार्थ ज्ञान का उपयोग रखे तो यह है स्वदया ।
(19) प्रभु के शासन का आदेश; स्वदया―हे प्रभु ! आपका सिद्धांत स्वदया का आदेश करता है । स्वदया का आदेश करता है उसी के साथ परदया भी आदेश में है । और दम क्या चीज है ? इंद्रिय का दमन । अहिंसा―दया के मायने है अहिंसा, हिंसा न होना । जो अपने में खोटे भाव नहीं रखता, परजीवों में यह मेरे हैं, ये विराने हैं, ये गैर के हैं―इस तरह का भेदभाव नहीं रखता, उसके अहिंसा वृत्ति बनती है । सर्व पापों में मुख्य पाप मोह है, मिथ्या है । मोह मिथ्यात्व रहते हुए धर्म के काम किए जा रहे हों तो लाभ तो धर्म के नाम पर कुछ करे तो कुछ न कुछ है ही, लेकिन मोक्षमार्ग का उसमें रंच लाभ नहीं और इसी कारण वह विशुद्धदृष्टि से वहाँ धर्म का काम नहीं है । धर्म वहां है जहाँ अहिंसावृत्ति है । तो हे वीर प्रभु ! आपका मत अहिंसा से परिपूर्ण है और संयम से निष्ठ है । यहाँ संयम का उपदेश है, संयम की प्रधानता है । कोई लोग ऐसा कह देते हैं कि सही ज्ञान करें, संयम अपने हो जायेगा, सो बात तो ठीक है; सही ज्ञान करें और फिर उस ही ज्ञान को बनाये रखें याने ज्ञान ज्ञानस्वरूप अंतस्तत्त्व को जानता रहे ऐसी स्थिति बना ली जाये, बस यही तो संयम है । और ऐसी स्थिति जब बन पाती है तो ऐसी स्थिति बनने की प्रतीक्षा करना और उस समय ऐसा कार्य करना, ऐसी चेष्टा करना कि उस अंतस्तत्त्व में विकास की पात्रता बनी रहे, बस यह हुआ व्यवहारधर्म । तो यह सब हे प्रभु ! आपके मत में लोकहित की बात इस प्रकार कही गयी है ।
(20) प्रभुवीरशासन की त्यागसमाधिनिष्ठता―त्याग क्या चीज ? परिग्रह का त्याग, विकल्प का त्याग । परिग्रह कुछ भी किसी का नहीं है और परिग्रह को किसी ने पकड़ा भी नहीं है । परिग्रह का त्याग ही क्या करना? बात तो यहाँ हो रही है कि बाह्य परिग्रह के प्रति जो भीतर में लगाव, स्नेह, ममता होती है बस वह है परिग्रह ꠰ उसका त्याग हो, विकल्प का त्याग हो, सही ज्ञान बने, मेरा कहीं कुछ नहीं, मैं केवल ज्ञानमात्र अंतस्तत्त्व हूँ, तो यह हुआ परिग्रह के त्याग का विशुद्ध रूप । हे प्रभु ! आपके मत में दया, दमन, त्याग और समाधि का उपदेश है । कोई पुरुष सोचे कि ज्ञान किए जावो, त्याग अपने आप हो जायेगा तो ऐसा जो सोचता है वह मोक्षमार्ग के प्रति रुचिया नहीं है ।
(21) प्रभु के शासन की त्यागसमाधिनिष्ठता का कारण―प्रभु के शासन की त्यागसमाधिनिष्ठता का कारण यह है कि जैसे इस लोक में देखा जाता है कि किसी मनुष्य को कुछ बात इष्ट है तो उसके लिए सारे प्रयत्न वह कर डालेगा, ऐसे ही जिस भव्य जीव को मोक्षमार्ग इष्ट है तो वह मोक्षमार्ग पाने के लिए कभी आलस्य भरा चिंतन न करेगा । जल्दी काम हो, मोक्षमार्ग का जल्दी काम बने, इस तरह की भावना रखेगा । तो प्रभु ! आपका सिद्धांत त्याग का आदेश करता और समाधि का आदेश करता । समाधि मायने उत्तम ध्यान । जहां ज्ञान ज्ञानस्वरूप निज अंतस्तत्त्व का ज्ञान बनाये रखे, ऐसी प्रवृत्ति को कहते हैं समाधि । ये समाधिनिष्ठ हो गए । अब ऐसी समाधियां चल उठी हैं और लोग उसका नाम समाधि रखने लगे हैं कि एक-दो दिन तक पृथ्वी में गड़े रहें और उसके बाद बाहर निकल आयें तो उसमें समाधि कर ली, ऐसा आज-कल प्रसिद्ध रूप बन गया है । इसमें कितनी ही तो जगह कुछ पोल की बातें रखते हैं । जैसे कोई नली ऐसी लगा ली कि जो बहुत दूर तक चली जाये और उसे कहीं निकाल ले ऊपर तो उसके द्वारा श्वास की बात बनाये रखे और कोई मानो कुछ साधना कर ले तो ऐसी साधना कर लेने पर चूंकि उसकी बाह्य स्वार्थ पर दृष्टि है, मेरी इसमें प्रतिष्ठा होगी, मुझे इसमें इनाम मिलेगा । तो ऐसे भावपूर्वक घटना बनती है वह और वहाँ फिर समाधि का फल जो शांति है वह नहीं मिल पाती । प्रभु ! आपका सिद्धांत समाधि से निष्ठ है ।
(22) प्रभुवीरशासन की नयप्रमाणप्रकृतांजसार्थता―हे प्रभु ! आपका सिद्धांत नय और प्रमाण के द्वारा सही वस्तुतथ्य को स्पष्ट बनाने वाला है । पदार्थ की परीक्षा के उपाय नय और प्रमाण हैं । प्रमाण से जानते तो सभी लोग हैं, मगर प्रमाण का स्वरूप क्या, विश्लेषण क्या? इसकी समझ बनाना है तो नयों का ज्ञान चाहिए, क्योंकि प्रमाण बनता है ऐसी मुद्रा में कि जहाँ सब नय, सब दृष्टियों से निर्णय हो कि इस दृष्टि से ऐसा है । तो नयों के द्वारा वस्तु का परिचय करके फिर उन समझे गए सभी धर्मो का समुच्चयात्मक अविरोध सम्यक् जो एक ज्ञान है उससे प्रमाण कहलाता है । नय और प्रमाण के बड़े विवरण के द्वारा प्रभु ! आपके सिद्धांत ने जीवों को ज्ञानप्रकाश दिया और आपका सिद्धांत ऐसे प्रवादी जनों के द्वारा उल्लंघन किए जाने योग्य नहीं है, बाधा देने के योग्य नहीं है, निर्बाध है, क्योंकि वस्तु में जो स्वरूप पाया जाता है उसके अनुरूप कथन है । जब कि अनेक दार्शनिकों ने अपनी बुद्धि से कुछ सोचा, कुछ नियम बनाए और उस आधार पर वस्तु का स्वरूप बताया तो इसमें सहीपन न आ पायेगा । वस्तु जैसी है वैसा ही ज्ञान बनाये―यह है आचार्यसंतों के उपदेश की विधि । ऐसा नहीं है, जैसा अपना ज्ञान बनाया वैसा ही पदार्थ में कुछ बने । तो इसी कारण हे प्रभु ! आपका सिद्धांत समस्त अन्य प्रवादियों से बाधा योग्य नहीं है । आपने जो बात कही वह सर्वोपयोगी है; छोटा ज्ञान रखने वाला भी जैनसिद्धांत को पाल सके और बड़े ऋषिजन भी उस सिद्धांत को पाल सके, ऐसी इस सिद्धांत में कला है । तो हे जिनेंद्र ! ऐसा आपका यह मत अद्वितीय है, अपूर्व है, जिसकी तुलना में और कोई मत नहीं पाया जाता ।