वर्णीजी-प्रवचन:युक्त्यनुशासन - गाथा 8
From जैनकोष
भावेषु नित्येषु विकारहाने
र्न कारक-व्यापृत-कार्य-युक्ति: ।
न बंध-भोगौ न च तद्धिमोक्ष:
समंतदोषं को मतमन्यदीपम् ।।8।।
(26) नित्यानित्यात्मक पदार्थ में नित्यत्व का अपलाप करने से विडंबना―हे वीर जिनेंद्र ! आपको छोड़कर अन्य नायकों का, अन्य तीर्थंकरों का मत समंतदोष है अर्थात् चारों तरफ से दोषों से घिरा हुआ है, क्योंकि पदार्थ का स्वरूप तो है स्पष्ट उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त, नित्यानित्यात्मक, और ऐसा स्वीकार न कर सभी एकांतवादियों ने अन्य-अन्यरूप स्वीकार किया । कितना गजब है कि जैनदर्शन के सिवाय कोई भी ऐसा दर्शन होता कि जो यह कह सकता होता कि इस दृष्टि से तो ऐसा है, इस दृष्टि से ऐसा है । देखो, कौनसा आग्रह आया कि यह भी होश न रहा कि वस्तु किस दृष्टि से किस प्रकार होती है ? जो भी नजर आया उसका आग्रह किया । अब देखो, एक धर्म के याने किसी भावपर्याय के आग्रह करने में क्या दोष है? पदार्थ नित्यानित्यात्मक है । यह जीव सदा रहता है, इसलिए नित्य है और उसकी अवस्थायें बदलती रहती हैं, इसलिए अनित्य हैं । यों नित्यानित्यात्मक है । अब इनमें से क्या निकाल कर फेंका जाये? अगर वस्तु में से नित्यपना हटा दिया जाये तो
क्या अर्थ होगा कि वस्तु सदा रहती ही नहीं ।
(27) वस्तु के नित्यानित्यात्मक गुणों में भेद का निष्कर्ष―तो निष्कर्ष यह बनेगा कि हर समय में एक नया-नया पदार्थ ही उत्पन्न होता है । सो ऐसा होने में क्या दोष है ? यह बात आगे स्वयं स्तुतिकार कहेंगे और संक्षेप में यह समझना कि यदि पदार्थ में से नित्यपना हटा दिया जाये कि वस्तु एकदम अनित्य है ꠰ इसका निष्कर्ष यह निकला कि प्रतिक्षण नया-नया पदार्थ उत्पन्न होता है सो ऐसा मानने से पुद्गल पर आफत आये तो आये, क्या पड़ी, मगर खुद की बात तो विचारो, जरा । यहाँ भी यह ही बात बनेगी कि आत्मा नया-नया उत्पन्न होता है । जो सुबह था वह अगले समय नहीं, जो इस समय है सो आगे नहीं । नया-नया बनता रहता है । तो जब आत्मा नया-नया ही होता रहता है तो फिर धर्मव्यवस्था किसलिए की जाती? किसलिए धर्मसाधना करें, संयम करें, क्योंकि आत्मा तो प्रतिक्षण नया-नया होता, क्षणभर हुआ और नष्ट हो गया । अब वह उसका क्या नुक्सान है? हुआ और नष्ट हो गया, और फिर माना कि एक नित्यपने का भ्रम लगा बैठे और संस्कार से आत्मा धर्म करता तो उसमें भी यह विडंबना है कि तप किसी ने किया और मोक्ष किसी अन्य का हुआ, पाप किसी अन्य ने किया और उसका फल किसी अन्य जीव ने भोगा, क्योंकि पाप करने वाला आत्मा तो एक क्षण रह करके नष्ट हो गया ꠰ तो प्रत्येक पदार्थ नित्यानित्यात्मक है, इसमें से कुछ भी नहीं हटाया जा सकता ।
(28) नित्यानित्यात्मक पदार्थ में अनित्यत्व का अपलाप करने पर होने वाली विडंबना―कोई कहे कि अच्छा, पदार्थ में से अनित्यपने को निकाल दो; पदार्थ है, सदा रहता, नित्य ही है ꠰ तो यों सर्वथा नित्य मानने का अर्थ यह हुआ कि आत्मा में कुछ बदल भी नहीं होता, पदार्थ में कोई परिवर्तन भी नहीं होता, ऐसा सर्वथा नित्य है, क्योंकि अवस्था माना तो अर्थ यह हुआ कि उसकी बदल है, अनित्यता है । तो अनित्यपना अगर वस्तु में से हटा दिया जाये तो वहां वस्तु सर्वथा नित्य मानने पर यह दोष है कि जो नित्य है उसमें कोई विकार नहीं हो सकता, कोई परिणमन नहीं हो सकता, कोई अवस्था नहीं बन सकती, कोई अदल-बदल ही नहीं हो सकती, क्योंकि सर्वथा नित्य मान लिया । तो सर्वथा नित्य मानने पर विकार बनता नहीं, और जब विकार नहीं बनता, अदल-बदल, परिणमन, परिवर्तन अवस्था जब न बनेगी नित्य मानने पर तो कारक के द्वारा व्यापार किया गया कार्य बन नहीं सकता । न कारक रहा, न क्रिया रही, न व्यवहार रहा, न कुछ रहा । और व्यवहार में क्या आपत्ति ? ऐसी मान्यता वाले ब्याज तो किसी से ले ही नहीं सकते, ब्याज तो तब मिले जब एक वर्ष व्यतीत होवे । तो व्यतीत तो कुछ होता नहीं नित्य में, पर्याय कुछ बदलती नहीं, दिन कभी होगा नहीं नित्य में, पदार्थ कूटस्थ नित्य है तो एकांतत: नित्य मानने वाले किसी भी प्रकार का व्यवहार नहीं कर सकते । खाना-पीना, बोलना-चालना; ये सारे व्यवहार समाप्त हो जायेंगे, क्योंकि नित्य है । नित्य में क्रिया क्या? तो पदार्थ नित्यानित्यात्मक है, यह पदार्थ का भीतरी स्वभाव है और स्वभाव में ही निरखते जावो । आत्मा सदा रहता है, अवस्थायें बदलती हैं तो वे अवस्थायें आत्मा में ही तो हैं, आत्मा से ही निकलीं, आत्मा में ही प्रकट हुईं, आत्मा से ही हुई, अन्य किसी से नहीं हुईं । यों आत्मतत्त्व में निरखना जो आत्मा में आत्मा की ही बात है, दूसरे की बात नहीं है ।
(29) वस्तुस्वातंत्र्य व निमित्तनैमित्तिक योग―प्रत्येक जीव अपना ही कुछ कर सकता है, दूसरे का कुछ कर ही नहीं सकता । दूसरे का कुछ करे वस्तुस्वरूप में ऐसी इजाजत ही नहीं, त्रिकाल असंभव है । कोई पदार्थ किसी दूसरे पदार्थ का काम कर सकता नहीं, उस शरीर का भी काम नहीं कर सकता और तो जाने दो । जैसे कहते हैं लोग कि यह शरीर मेरा है, इस पर मेरा अधिकार है । इस शरीर का भी काम यह जीव कर नहीं सकता । अगर करता होता तो बुढ़ापा कौन लाता? क्या जरूरत? बुढ़ापा न आने देते, क्योंकि अधिकार तो जीव का शरीर पर मान लिया । जीव का तो शरीर पर भी अधिकार नहीं, क्योंकि भिन्न-भिन्न द्रव्य हैं, यह वस्तु में स्वभाव पड़ा हुआ है कि कोई भी पदार्थ किसी भी अन्य पदार्थ का अणुमात्र का भी परिवर्तन त्रिकाल भी नहीं कर सकता । और जो कुछ निमित्त-योग से हो रहा है वह सब उपादान की कला है कि कौनसा उपादान किस पदार्थ का सन्निधान पाकर किसरूप परिणम जाता है । इसमें निमित्त की कला नहीं, हाँं; निमित्त की अनुकूलता तो है वही । जैसे कोई पुरुष एक कुर्सी पर बैठता है तो कुर्सी पर बैठने की कला कुर्सी ने पैदा नहीं की । बैठने वाले ने अपनी कला खेली, पर हाँ; इतना अवश्य है कि कुर्सी उस प्रकार की है कि उसका सन्निधान पाकर बैठने वाले ने अपने बैठने की कला बना ली । अनुकूल निमित्त तो है, नहीं तो बिना बुनी हुई कुर्सी हो एकदम टूटी-फूटी, उसका भी कुर्सी नाम है । मगर उसमें तो नहीं कोई बैठ पाता । अगर कुर्सी में बैठाने की कला हो तो जबरदस्ती बैठा ले और निमित्त बिना यह बैठ सके तो आकाश में बैठ जाये कुर्सी की भांति । नहीं बैठ सकते । तो यद्यपि निमित्तनैमित्तिकयोग है, उसको इंकार नहीं किया जा सकता, फिर भी विपरिणमन की कला, परिणमन पदार्थ में है, निमित्त में नहीं होती । इस तरह पदार्थ नित्यानित्यात्मक है, सदा रहता है और प्रतिसमय उसकी अवस्थायें बदलती रहती हैं ।
(30) यथार्थ बोध बिना उद्धार की असंभवता―वस्तुस्वातंत्र्य व निमित्तनैमित्तिक बात जरूर बैठेगी कि इस जीवन में हमको करना क्या है, किसलिए मद बना रहे, किसलिए रागद्वेष कर रहे, किसलिए आडंबर, मायाचार आदिक बना रहे? यह जीवन क्या है? इस प्रकार के जीवन से तो पार न पड़ेगा । जितने समय इस शरीर में हम बने रहे उससे पार क्या पड़ता है? शरीर की सेवा में, पंचेंद्रिय की साधना में क्या पार पड़ेगा? अनंतकाल के सामने ये 100-50 वर्ष की तो क्या असंख्याते वर्ष की भी एक भारी समुद्र में एक बूंद बराबर भी गिनती नहीं है, 100 वर्ष की बात तो जाने दो । तो इतने अनंतकाल के बीच 100-50 वर्ष के लिए मायावी जीवों के द्वारा, थोड़े से जीवों के द्वारा कुछ स्वार्थवश प्रशंसा की बात गायी जाये तो यह कुछ काम की चीज है क्या ? ध्यान में आयेगा तब जानेंगे कि मैं आत्मा नित्यानित्यात्मक हूँ । इससे प्रयोजन है । हमारा स्वार्थ, हमारा प्रयोजन, कल्याण, उद्धार कषाय भावों को छोड़कर अपने सहजस्वभाव में यह मैं हूँ, इस तरह का लगाव अनुभव बने तो इस वृत्ति से आत्मा का कल्याण है, उद्धार है, बाकी सारी बातें बिल्कुल बेकार हैं ।
(31) संसार के भिन्न-भिन्न रूपों का बोध―यह संसार एक जुवा का फड़ है । यहाँ जब दूसरों का धन देखते हैं, नेतृत्व देखते हैं, लोगो में कुछ पूछताछ देखते हैं; हजारों आदमियों के बीच कोई धनी आ गया, हजारों आदमी गुण गाते हैं, भले ही स्वार्थवश सब गाते हैं, मगर लोगों की ऐसी पूछताछ, प्रतिष्ठा, इज्जत देखकर मन चल उठता है कि हमारा भी ऐसा हो । यह जुवे का फड़ है । कोई ही दृढ़ ज्ञानी है, विवेकी है जो इस बातपर दृढ़ रहता है कि ये सारी बातें निःसार हैं । यह तो इसके साथ विपत्ति लगी है, इसका मन उल्टा चल रहा है, अज्ञान में बढ़ रहा है, यह तो दया का पात्र है । जिसकी लोक में बड़ी प्रतिष्ठा है, बहुत बड़े ढंग से जिसका सब कुछ स्वागत होता है, चला है और ऐसे काम के लिए उमंग रखता है तो यह तो अज्ञानी है, दयापात्र है, मिथ्यात्व के वशीभूत है ꠰ इसने मन केवल निःसार बातों के लिए लगा रखा है । ऐसा सोचा जाये तो इसकी बुद्धि उसकी ओर न ललचायेगी । जो यथार्थ बात है, तथ्य की बात है वह ध्यान में रहे तो अपना लालच हट जायेगा । यह सब आचार, यह सब आत्मा के नित्यानित्यात्मक स्वरूप के परिचय में स्वयमेव होने लगता है ।
(32) स्याद्वाद शासन का उपकार―हां, पदार्थ नित्यानित्यात्मक है, ऐसा ज्ञान किसने कराया ? स्याद्वादशासन ने । और इस सत्य परिचय से जो आत्मा में तृप्ति हुई, धीरता जगी, गंभीरता आयी, घबराहट मिटी, सम्यक् प्रकाश पाया, यह सब किसकी देन है? स्याद्वादशासन की । पर जैसे घर में रहने वाला बच्चा पिता के द्वारा कितना ही उपकार पाये, सब कुछ करता है पिता, लेकिन बच्चे को न जाने कौनसा दुराशय बैठा है कि जिससे उसके चित्त में यह बात नहीं आती कि हम उनके आभारी हैं और कुछ ऐसा ही समझता है कि उनको ऐसा करना ही चाहिए ꠰ ये सब हमारे सेवक हैं, इस ढंग की बात बैठी हुई है तो वह कभी आभार नहीं मान सकता पिता का । तो जैसे यही अज्ञान है अथवा ये तो लौकिक बातें हैं । यहाँ स्याद्वादशासन के कुल में उत्पन्न हुए लोग भी इतना अज्ञान के वश हैं कि इतनी भी बुद्धि नहीं जगती कि स्याद्वादशासन तो एक बहुत पवित्र तत्त्व है, जिसकी छत्रछाया में ही रहकर जीव कल्याण पा सकता है, अन्य प्रकार नहीं । यह स्याद्वादशासन तो अमृत है । इसके लिए तन, मन, धन, वचन सर्वस्व भी बलि हों, प्राण भी बलि हों तो स्याद्वादशासन का उपासना का फल प्राप्त हो जाये तो यह जीव सदा के लिए अमर, आनंदमय हो जायेगा ।
(33) प्रभु वीर का अमृतमयीशासन―तो हे वीर प्रभु ! आपका शासन ऐसा अमृतमयी शासन है । समंतभद्राचार्य महावीर भगवान के स्तवन में वह खास बात बतला रहे हैं कि जिसके कारण यह समझ में आये कि सचमुच महावीर भगवान के द्वारा जो हम लोगों को लाभ पहुंचा, उपकार हुआ, आज यद्यपि नहीं हैं यहाँ वे प्रभु, लेकिन वे जिस जमाने में थे उस जमाने में उनके द्वारा जो कुछ धर्मप्रभावना हुई उसकी परंपरा इतने दिन व्यतीत होने पर भी हम लोगों को वह प्रकाश मिल रहा है कि जिससे सत्य ज्ञान पाये और संसारसंकटों से सदा के लिए छूट जाने का उपाय बनाये । अब सोचिये कि कितना आभार है प्रभु का याने हमें कितना आभार मानें इस स्याद्वादमयी जिनवाणी का । इससे प्रकाश मिल रहा है, वस्तु नित्यानित्यात्मक है । भली प्रकार निर्णय कर लें और उससे अपने लिए शिक्षा लें । यदि पदार्थ में से अनित्यत्व धर्म उड़ा दिया जाये, केवल नित्यत्व धर्म की ही हठ की जाये तो क्या हानि होगी? इसको समंतभद्राचार्य वीर प्रभु के स्तवन में बता रहे हैं कि हे नाथ ! तुम्हारे स्याद्वादशासन से बहिर्मुख अन्य लोगों का सब मंतव्य चारों ओर से दूषित है । उससे लाभ भी नहीं मिलता और धीरता भी नहीं आती । क्या दोष है? यदि पदार्थ में से अनित्यत्व धर्म हटा दिया जाये, नित्य है तो उसमें विकार ने होने से कारक के द्वारा व्यावृत कार्य नहीं बन सकता और न बंध बन सकेगा, न उसके भाग बन सकेंगे, न मोक्ष बन सकेगा । इस तरह हे प्रभु ! आपसे बहिर्मुख अन्य जनों का मत समंतदोष है याने चारों ओर से दोषरूप है ।