वर्णीजी-प्रवचन:योगिभक्ति - श्लोक 14
From जैनकोष
णाणोदयाहिसित्ते सीलगुणविहइसिये तवसुगधे।
ववगयरायसुद्दड्ढे सिवगइपहणायगे वंदे।।14।।
ज्ञानोदयाभिषिक्त योगियों का अभिवंदन- ऐसे योगीश्वर जो ज्ञान के उदय से आभिषिक्त हैं, अर्थात् ज्ञानजल से जिनका अभिषेक हुआ है, अभिषेक होने से अधिक बातें मर्म की विदित होती हैं। अभिषेक होने से शीतलता आती है तो संसार के विकल्पों का जो संताप छाया था तो यह ज्ञानभाव आया तो शीतलता आ गयी। उपयोग बनाकर परख लीजिये। जब ज्ञान में केवलज्ञान का ही स्वरूप रहता और कोई न बसा होता, किसी की कल्पना नहीं होती, उस समय तो यह आत्मा एक बादशाह है, नायक है, प्रभु है। अब इसके कौनसी कल्पनायें रह गयीं, कौनसा विकल्प रह गया? जब ज्ञान में ज्ञान समाया है तो उसे सब कुछ मिल गया। यही है स्वार्थसिद्धि। स्वार्थसिद्धि में रहना है तो ज्ञानानुभूति में रहे। ज्ञानानुभव के समय सर्वअर्थों की सिद्धि हुआ करती है, यही है अनुदिश धाम। जो अपने आपकी एकमात्र दिशा है उस दिशा के अनुसार जिनका उपयोग बना है उसको प्रमाण हो। दिशा लक्ष्य को भी कहते हैं। लक्ष्य के अनुसार जो उपयोग बनता है वह उपयोग है अनुदिशधाम याने सर्वोत्कृष्टधाम। जिसका नियम है कि एक दो भव के बाद ही निर्वाण प्राप्त कर लें। उर्ध्वलोक में बसने वाले अनुदिश सर्वार्थसिद्धि व अनुत्तर विमान से मुक्ति नहीं मिलती। एक भव अथवा दो भव धारण करके मुक्त होते हैं, मगर अपने ही उपयोग के द्वारा अपने में ही बना लिया गया अनुत्तरधाम जिससे उत्कृष्ट और कुछ नहीं है उससे तो इसी भव में मुक्त होना है, तो इन सब ज्ञानाभिषेकों से शीतलता अनुभव की गई है। दूसरे अभिषेक से स्वच्छता प्रकट होती है। आत्मा की स्वच्छता यही है कि एक विशुद्ध रागद्वेषरहित सच्चा ज्ञान बना रहे। परवाह न करें कि ये परिजन के लोग क्या करते हैं? अरे सभी जीव अपने अपने भाग्य के अनुसार अपनी-अपनी व्यवस्था बनाते हैं। यह पुरुष तो सबका नौकर चाकर बन रहा है। इसे खुद को क्या मिल रहा है? धन जोड़कर रखा तो खुद को उससे क्या मिलना है? एक विकल्प विडंबना बनायी जा रही है। परिजन बहुत अच्छे मिल गए तो उससे खुद को क्या मिलता है? वे परिजन क्या हित कर देंगे? बल्कि वे स्नेह का बंधन बढ़ जाने से बरबादी के ही कारण बन सकते हैं। इस मोह का तो परिहार किये बिना आत्मा का गुजारा हो ही नहीं सकता, और परिजन का ही मोह छोड़ने की बात नहीं, दुनिया के सभी परभावों के मोह छोड़ने की बात है। इंद्रिय का व्यापार बंद किया, मन की दौड़ समाप्त की, सबके हाथ जुडे़, हाथ जुडे़ के मायने हाथ जोड़ना नहीं, किंतु इनमें से मेरे लिए कोई निमित्त बनता है तो क्षोभ का निमित्त बनता है। पर विशुद्ध आनंद का अनुभव करने का कोई निमित्त नहीं बनता इसलिए हे सब परपदार्थ चेतन अचेतन, तुम अपने ही घर रहो, तुम्हारे हाथ जोडूं। मैं अब अपने निजस्वरूप में बसूँगा, जिसके ऐसा ज्ञान का उदय चल रहा है। स्वच्छता तो उस महापुरूष के है। ऐसे स्वच्छ और शीतल शुद्ध आनंद का अनुभव करने वाले योगीश्वरों की मैं वंदना करता हूं।
शीलगुणविभूषित योगियों का अभिवंदन- बाह्य आभ्यंतर परिग्रह से रहित ज्ञानध्यान तपश्चरण में लवलीन एक निजशुद्धज्ञानस्वरूप की अपने आपकी प्रतीति रखने वाले योगीजन शीलगुण से विभूषित होते हैं। आत्मा का श्रृंगार शीलगुण है। शील कहो या गुण कहो, एक ही बात है। शील तो है एक व्यापकरूप। शीलस्वभाव सहजभाव में रहना और गुण है भेदस्वभावरूप। ज्ञानदर्शन चारित्र आनंद गुणों से विभूषित रहना, अथवा शील से विभूषित हैं कि इनकी निरंतर दृष्टि आत्मा के ज्ञानस्वभाव पर रहती है। किसी भी समय इसका विस्मरण नहीं करते। इसका निरंतर स्मरण ही जीव का शरण है। सो यही शरण वे गहते रहते हैं और गुणों से विभूषित होने से चारित्र में विशेषता आयी। गुणों के शुद्ध विकास होने में ही उनका श्रृंगार है, ऐसी शील और गुणों से विभूषित योगियों को मैं वंदन करता हूं।
तप:सुरभित योगियों का अभिनंदन- जो तप से सुगंधित हैं, तपश्चरण करने से शारीरिक गंध में भी विशेषता होती है, आत्मीय सुरभि तो उत्तम होती ही है। पर तपश्चरण के प्रताप से रोगादिक नहीं रहते और कुछ अतिशय भी उत्पन्न हो जाते हैं। जब तपश्चरण के प्रताप से ऋद्धियाँ भी उत्पन्न हो जाती हैं, शारीरिक सुगंध आदिक उत्पन्न हों तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं। जहाँ ऋद्धियाँ बतायी जायेंगी कि जिनका मल भी एक औषधि बन गया है, उसका स्पर्श हो जायें तो रोग दूर हो जायें इसमें अत्युक्ति की बात भी नहीं है। तपश्चरण की ऐसी महिमा है कि उनका शरीर, उनका रग रग जीवों के रोग के दूर करने का निमित्त हो जाता है, तो ये योगीश्वर तप:सुगंध वाले हैं। अंत:वातावरण शांतिप्रद है उससे तो वे सुगंधित हैं ही, पर देह गंध भी उनकी सुरभित हो जाती है। ऐसे एक ज्ञानयोग में उपयोग रखने वाले योगीजनों को मैं वंदन करता हूं।
दृढ़तम स्वोपयोगी योगियों का अभिवंदन- ये राग दूर होने से अपने आपमें बहुत दृढ़तम हैं, कितने भी उपसर्ग आयें, विघ्न आयें, पर अपने स्वरूप से चलित नहीं होते। देव, इंद्र, चक्री आदिक उन योगियों के प्रति क्यों झुकते हैं? उनके चरणों में क्यों झुकते हैं? उनके चरणों में क्यों वंदन करते हैं? उनके आत्मा विशेषता है। धन वैभव या ऊपरी इज्जत की विशेषता होने से कोई झुकता नहीं, और अगर धन वैभव आदिक विशेषताओं के कारण कोई झुकता भी है तो वह अंतरंग से नहीं झुकता। जिसका स्वार्थ पूरा सधता है वह हृदय से कुछ चाहता है किसी धनिक को और जिसके स्वार्थ बाधा आती है, स्वार्थसिद्धि नहीं होती है। वह धनिकों के प्रति झुकता तो है पर पीछे से उनकी निंदा करता रहता है, पर जिनका अंत:तत्त्व विशुद्ध हो गया है ऐसे ये योगीश्वर, इनकी ओर कोई झुकेगा तो विनय से ही और अंतर्भाव से झुकेगा। तो ये समस्त भक्तसमूह जो योगिराज के चरणों में आते हैं उसका कारण यह है कि उनमें राग नहीं है, और राग न रहने से ये स्वयं सुदृढ़ हैं, जिनका चित्त अस्थिर है, जो अपने आपमें दृढ़ नहीं रह सकते इसका कारण है कि उनके विषयों का राग लगा हुआ है, उसकी धुन रहने के कारण किसी एक बात में स्थिरता नहीं रहती। वे योगीश्वर रागद्वेष से रहित हैं अतएव अपने आपमें सुदृढ़ हैं, ऐसे दृढ़तम उपयोग वाले योगीश्वरों का मैं वंदन करता हूं।
शिवगतिपथप्रणायक योगियों का अभिवंदन- ये शिवगति के प्रकृष्ट नायक हैं। नायक कहते हैं ले जाने वाले को। ले जाने में खुद भी जाना जाना पड़ता है और दूसरे लोग भी उसके साथ रहते हैं। जो स्वयं मोक्षमार्ग में चले और दूसरों के मोक्षमार्ग में चलने के निमित्त बने उसे नायक कहते हैं। तो ये योगीश्वर शिवगति के नायक हैं। इन्होंने मोक्ष की गली देखी है इसलिए वे निर्विघ्न होकर उस गली से चल रहे हैं। जैसे यहाँ जिन्होंने जो रास्ता देखा हो वे वहाँ नि:शंक होकर बढ़ते चले जाते हैं। इन योगीश्वरों ने मुक्तिमंदिर की गली देखी है सो ये चल रहे हैं। और जो लोग मुक्ति के अभिलाषी हैं वे इन योगीश्वरों के उपदेश के द्वारा उनकी सेवा करते हुए उनके पीछे चलते रहते हैं। तो ये योगीश्वर मोक्षमार्ग के नायक हैं, ऐसे मोक्षमार्ग के नायक को हमारा मन, वचन, काय से वंदन हो।