वर्णीजी-प्रवचन:योगिभक्ति - श्लोक 17
From जैनकोष
अभय महावीरसप्पि सवीए अक्खिणमहाणसे वंदे।
मणवलिवचवलिकायवलिणो य वंदामि तिविहेण।।17।।
आहारातिशय ऋद्धिसंपन्नयोगियों का वंदन- तपश्चरण के योग से ऐसी समृद्धि जग जाती है कि यदि विषमिश्रित भोजन भी किसी के द्वारा इन योगीश्वरों के हाथ में आ जाय तो वह भी अमृतरूप परिणम जाता है। जितने ये अन्य देवों में श्रृंगार विशेषण आदिक लोक में माने जा रहे हैं इन सबके कुछ मर्म हैं। लोक प्रसिद्धि है कि महादेव ने विष पिया और वह अमृत बन गया। वे महादेव वे योगिराज ही तो हैं। ये महादेव भी पहिले निर्ग्रंथ मुनि ही तो थे, इनमें अनेक अतिशय भी उत्पन्न हो गए थे, दशम विद्यानुवाद सिद्ध कर रहे थे उस समय विद्या में मोहित होकर ये आगे न बढ़ सके, किंतु अतिशय कुछ बढ़ा चढ़ा हो गया था। ऐसा भी अतिशय योगियों में हो जाता है कि विष मिश्रित भोजन भी यदि इन योगियों के हाथ में आ जाय तो वह अमृत बन जाता है। कोई कडुवा भी भोजन हो तो उन योगीजनों के हाथ पर आने पर ही मधुर हो जायेगा, रूखा भी भोजन हो और वह इन योगीश्वरों के हाथ पर आ जाय तो दूध घी आदिक की तरह मधुर बन जाता है। तो यह बात अत्युक्ति वाली नहीं है। आत्मदर्शन की धुनि रखने वाले नाना परिषह उपसर्गों पर विजय पाने वाले योगियों के विशुद्धदृष्टि होने के कारण तपश्चरण में इतना अतिशय हो जाता है कि ये घृतरस आदिक संयुक्त पदार्थ बन जाते हैं, यह आश्चर्य की बात नहीं है। कुछ भावों से भी ऐसी बात बन जाती है। जब भाव निर्मल हो और भक्तिपूर्वक इन्हीं योगिराजों को आहारदान किया जा रहा हो तो भावों की निर्मलता समताभाव के कारण और विशेषभक्ति के कारण भोजन रूखा हो तो भी बहुत मीठा मालूम देता है। यदि कोई रूखा सूखा भोजन हो तो वह भी उन योगियों के हाथ में आने से घी दूध आदिक की भाँति स्वादिष्ट और शक्तिसंपन्न हो जाता है। जिन योगीश्वरों की इतनी महिमा है यह महिमा अंतरंग सामर्थ्य को बताने वाली है, कहीं ये इस कारण वंदनीय नहीं हैं कि ये भोजन करते हैं तो घी दूध जैसा स्वाद आने लगता है। ऐसे अतिशय जिस बल पर हुए हैं उस आंतरिक तपश्चरण सत्य ज्ञान योग की वंदना की जा रही है। ये योगीश्वर अक्षीण महान् ऋद्धि से संपन्न हैं। जिस रसोई में ये योगीश्वर आहार कर लें उस रसोई का आहार कितने ही लोग कर जायें पर कम नहीं होता। ऐसे अक्षीण महान् ऋद्धि के धारी योगीश्वरों की मैं वंदना करता हूं।
योगवलातिशयसंपन्न योगियों का वंदन- ये योगीश्वर दिव्यव्यन्जनों द्वारा वंदनीय होते हैं। मनोबल इतना बढ़ा है कि समस्त द्वादशांग के अर्थ का अंतर्मुहूर्त में ही चिंतवन कर जाते हैं। द्वादशांगश्रुत बहुत विस्तृत है। जितने आज शास्त्र पाये जा रहे हैं धर्मसंबंधी वे सब शास्त्र किसी एक ही अंग के बराबरी नहीं कर पाते हैं। एक पद में हजारों लाखों तो श्लोक समा जाते हैं। जो पद का प्रमाण है और ऐसे-ऐसे करोड़ों पदों का एक-एक अंग एक-एक पूर्व होता है। तो आप अंदाज कर सकेंगे कि 11 अंग 14 पूर्व अन्य भी 12 वें अंग के भेद और अंतर्बाह्य इन सब श्रुतों का प्रकरण कितना बड़ा है लेकिन इन समस्त श्रुतों का चिंतन अंतर्मुहूर्त में कर लें ऐसा मनोबल योगियों को प्राप्त होता है, वचनबल भी इतना महान् है कि उस समस्त श्रुत को अंतर्मुहूर्त में बोल लें। बोल लेंगे पर वह अतिगूढ़ध्वनि है। जैसे कोई पुरूष किसी स्तवन को एक घंटे में पढ़ता है तो कोई आध घंटे में ही पढ़ ले कोई 15 मिनट में ही पढ़े और यदि वचनों से नहीं बल्कि अंतर्जल्प से भीतर ही भीतर कोई पढ़े तो वह कुछ ही मिनटों में पढ़ सकता है। यह तो बिना ऋद्धि वालों की बात है, जिन्हें वचनबल की ऋद्धि प्राप्त हुई है वे समस्त द्वादशांग को अंतर्मुहूर्त में कह सकते हैं। कुछ अंदाजा भी अपने में बना सकते। आप जो विनती पढ़ते हैं उसे जरा जोर से खूब राग में पढ़े तो काफी समय लगता है, यदि उसे बिना राग के धीरे-धीरे पढ़े तो कुछ कम समय लगता है, यदि मन ही मन में पढ़े तो बहुत ही कम समय लगता है। तो फिर जो मनोबल वचनबल आदि ऋद्धि के धारी योगीश्वर हैं वे तो समस्त द्वादशांग को अंतर्मुहूर्त में बोल लेते हैं। उन योगीश्वरों के कायबल इतना प्रकट है कि बडे़-बडे़ चक्रियों की सेना को भी परास्त कर दें, पर वे योगी अपने कायबल का प्रयोग नहीं करते; कुछ प्रयोजन ही नहीं है अपने कायबल का प्रयोग करने का। उन योगीश्वरों के इतना कायबल प्रकट हुआ है कि बडे़-बडे़ चक्रवर्तियों की सेना को भी परास्त कर दें ऐसे तीन योगों के बलऋद्धि से संपन्न योगीश्वरों की मैं मन, वचन, काय की संभालकर वंदना करता हूं।