वर्णीजी-प्रवचन:योगिभक्ति - श्लोक 2
From जैनकोष
गिम्हे गिरिसिहरत्था वरिसायाले रुक्खमूलरयणीसु।
सिसिरे बाहिरसयणा ते साहु वंदिमो णिंचं।।2।।
त्रिकालपरीषहविजयी साधुवों का अभिवंदन- लघुयोगभक्ति के प्रथम छंद में तीन ऋतुवों के परीषहों के विजय की बात न अतिसंक्षेप से, न अतिविस्तार से, किंतु मध्यमपद्धति से बताया गया था। अब इस द्वितीय छंद में तीन काल के परीषहों का विजय अतिसंक्षेप रूप से कहा जा रहा है। वे साधु जो ग्रीष्मकाल में पर्वतों के शिखर पर स्थित हैं, जो वर्षाकाल में वृक्ष के मूल में अधिवसित हैं, जो शीतकाल की रात्रि में शयन करने वाले हैं उन साधुवों का हम नित्य वंदन करते हैं। कितना संक्षेप में और ऋतुवों के परीषहों का कथन कर दिया गया है। ग्रीष्मकाल में लोगों को अपने घर में भी चैन नहीं मिलती। घर तप जाता है तब फिर पर्वत शिखर के तपने की कहानी कौन कहे? किंतु ये साधु अपने उस ज्ञानामृत के पान से निरंतर शीतल बने हुए साधु शीतकाल में गिरिशिखर पर अवस्थित हैं। तेज बरसात चल रही हो, उस समय वृक्ष के नीचे ठहरना मैदान में ठहरने से भी कठिन है। मैदान में तो वर्षा की नन्हीं नन्हीं बूँदें सहन हो सकती है पर वृक्षों के मूल में जो वृक्षों पत्तों से गिरने वाली मोटी-मोटी बूँद हैं वे तो भारसहित इन पर गिरती हुई वेदना का कारण बन जाती हैं किंतु ये करुणामूर्ति योगीश्वर वृक्ष के मूल में इस कारण अवस्थित हो गए हैं वर्षाकाल में कि इस देह पर प्रासुक बिंदुवों का पतन न हो, वृक्षों के पत्तों पर गिरने वाली बूँदे प्रासुक मानी जाती हैं। ये करुणामूर्ति वर्षाकाल के वृक्ष के मूल में अधिवसित रहते हैं और शीतकाल में रात्रि में अत्यंत अधिक शीत पड़ती है सो सभी जानते हैं। तो वे रात्रि में शीतकाल में बाहरी मैदानों में सोये होते हैं। सोयी हुई बात को यों कहा है कि यद्यपि वे अल्पकाल ही सोते है, एक करवट निद्रा लेते हैं पर शीतकाल में सोये हुए से पड़कर ज्यादा ठंड लगती है और बैठ जायें आसन से अथवा कुकुरू तो वहाँ ठंड कम हो जाती है। तो शीतपरीषहविजय प्रसंग में कहा जा रहा है कि योगीश्वर शीतकाल में रात्रि में बाह्यमैदान में पड़े रहते हैं। ऐसे तीनों काल के परीषहों के विजयी और उस-उस प्रकार अवस्थित होकर ध्यान में तल्लीन होने वाले साधु योगी वंदनीय हैं, उनको हम नित्य वंदन करते हैं।