वर्णीजी-प्रवचन:योगिभक्ति - श्लोक 21
From जैनकोष
गइचउरंगुलगमणे तहेव फलफुल्लचारणे वंदे।
अणुवमतवसि महंते देवासुखंदिदे वंदे।।21।।
फलफुल्लचारणादि ऋद्धि के धारक योगियों का अभिवंदन- सहज आत्मस्वरूप के ज्ञान और श्रद्धान तथा ज्ञायकस्वरूप ही अपने को उपयोग में बनाये रखने के उद्यम से आत्मा में ऐसा अतिशय प्रकट होता है कि अनेक प्रकार की ऋद्धियाँ जग जाती हैं। पृथ्वी के ऊपर चार अंगुल रहकर गमन करें, ऐसा उनमें अतिशय हो जाता है। तपश्चरणों में अनशन आदिक तपश्चरण प्रधान हैं। बाह्य में अनशन की अधिकता और अंतरंग में निराहारस्वभाव अविहारस्वभावी आत्मा के ज्ञानस्वभाव के रूप में ध्यान की प्रमुखता, इन दोनों आंतरिक और बाह्यतपश्चरण के प्रताप से शरीर में अति हल्कापन आ जाता है। और फिर एक आत्मीय अतिशय प्रकट होता है कि वे फिर जब विहार करते है तो जमीन के ऊपर चार अंगुल विहार करते जाते हैं। चलते हैं इसी तरह जैसे कि कोई पृथ्वी पर चलता है। तो जिनमें हिंसा का बचाव एक अभ्यास ही हो रहा है। कोई फलचारण ऋद्धि वाले योगीश्वर हैं। जैसे पेड़ों में फल फूल लगे रहते हैं या नीचे पडे़ रहते हैं तो वे योगीश्वर उन पर गमन कर लें और उनको बाधा न पहुंचे, इस प्रकार की ऋद्धि इन योगियों में प्रकट हो जाती है। ये अपने शरीर को अणु बना लें, महान बना लें, अनेक प्रकार की विक्रियायें होती हैं, ऐसी ऋद्धियों से संपन्न योगीश्वरों का मैं वंदन करता हूं।
देवासुरवंदित अनुपमतपस्वी योगियों का अभिवंदन- वे योगीश्वर अनुपमतप में महान् हैं, इन योगीश्वरों को देव इंद्र सभी वंदन करते हैं, संसार में चूंकि सारभूत काम अन्य कुछ नहीं है और न सारभूत पदार्थ ही कहीं कुछ है, तो इन असारपदार्थों को कब तक अपना मानता रहे यह जीव? इन जीवों में से कोई बिरले ही जीव यथार्थ ज्ञानी होते ही हैं जिनको ऐसी बुद्धि जग गयी कि इस लोक में अपने आप यह मैं ज्ञानप्रकाशमात्र हूं, ऐसा अनुभव करते रहना, सिवाय इसके अन्य कुछ भी सार नहीं है। बाह्य में किससे सहायता लेना, किनमें दिल फंसाना, यहाँ कोई मेरा सुधार बिगाड़ करने वाला नहीं, किसको प्रसन्न करना, किसको क्या दिखाना, केवल मेरे लिए मैं ही ज्ञानरूप में अनुभवा हुआ सारभूत हूं अन्य कुछ नहीं, ऐसे जिनके ज्ञान विशेष जग जाता है ऐसे पुरुषों को फिर विषयों में रुचि नहीं रहती। विषय वैसे भी क्लेशकारी हैं। एकमात्र भोगने के समय जिसमें सेकेंड दो सेकेंड के ही काम रहते है उतने समय थोड़ा यह सुख महसूस करता है। बाद में तो पहिली अवस्था से भी बड़ा दु:खी हो जाता है। एक कुछ क्षणभर के सुख को छोड़ दिया जाय जिसमें आगे पीछे दु:ख लगा है और सुख के समय में भी क्षोभ बराबर लगा हुआ है। एक थोडे़ समय का लोभ छूट जाय और तीव्ररूचि जगे अपने को ज्ञानस्वरूप अनुभवने की। एक प्रयोगात्मक अपने ज्ञान को इस तरह बनायें कि यह मैं जाननप्रकाशभर हूं। इसे न लोग जानते हैं, न इससे कोई व्यापार करता है, ऐसा यह मैं एक गुप्त ज्ञायकस्वरूप हूं, ऐसी जिनकी रुचि हुई है, ऐसी जिनकी भावना होती है, उनको ये सब ऋद्धियाँ प्रकट हो जाती हैं। ऐसे पुरुषों को देव लोग, विद्वान लोग असुरजन जिनके ये ऋद्धियाँ पैदा हुई हैं, जो वीतरागता से प्रभावित हैं वे वैराग्य की मूर्ति समता की मूर्ति शांत इन योगीश्वरों के दर्शन करके उनके चरणों में वंदन किया करते हैं।