वर्णीजी-प्रवचन:योगिभक्ति - श्लोक 6
From जैनकोष
णट्ठट्ठमयट्ठाणै पण कम्मट्ठणट्ठसंसारे।
परमट्ठणिट्टियट्टे अटठगुणढीसरे वंदे।।6।।
योगियों की ज्ञानमदरहितता एवं पूजामदरहितता- इसमें भक्ति भी की जा रही है और इस विधि से स्तवन चल रहा है कि इन योगियों में इन तीन तीन चीजें नहीं हैं, ये चार चार बातें नहीं हैं, ये 5-5 बातें नहीं हैं, ये 6-6 बातें नहीं हैं, ये 7-7 बातें नहीं हैं, इस तरह से कुछ एक चतुराई के साथ वर्णन चल रहा है। इस छंद में 8 संख्या से संबंध रखकर वर्णन किया जा रहा है। इन योगियों ने 8 प्रकार के मद स्थानों को नष्ट कर दिया मद 8 प्रकार के होते हैं- ज्ञानमद, पूजामद, कुलमद, जातिमद, बलमद, बुद्धिमद तपोमद और रूपमद। जिसके कुछ ज्ञान बढ़ा है वह अपने ज्ञान का घमंड करता है। मैं इन सबमें ज्ञानी हूं, मुझे कई विद्यायें सिद्ध हुई हैं, मेरे समान ज्ञानवान कोई नहीं है, आदिक अभिमान करना यह है ज्ञानमद। योगी पुरूषों में ज्ञानमद नहीं रहता। योगीजन बहुत बड़े ज्ञान के अधिकारी होते हैं लेकिन वे जानते हैं कि मेरे आत्मा का ज्ञानस्वरूप इतना है कि सारे लोकालोक को जान जायें, इतने पर भी उनमें इतनी शक्ति और है कि ऐसे ऐसे लोक अनगिनते भी होते तो उन सबको भी यह ज्ञान जान जाता है। इतनी महान् शक्ति रखने वाला यह मेरा ज्ञानस्वरूप है। यह जो ज्ञान प्रकट हुआ है, यह तो न कुछ जैसा ज्ञान है। जो पुरुष अपने ज्ञान और कला में न कुछ जैसा विश्वास रखते होंगे उनको घमंड कहां से हो सकता है? जो ज्ञान है उसे समझते हैं कि मेरे पास क्या ज्ञान है? वह तो न कुछ जैसा है। तो योगीश्वरों के ज्ञानमद नहीं रहता है। उन योगीश्वरों की पूजा भी बहुत बड़ी होती है। बडे़-बडे़ इंद्र नरेंद्रों द्वारा वे पूज्य हैं। पर इतनी बड़ी पूजा निरखकर उन योगियों को मद नहीं होता, वे जानते हैं कि इनकी इस पूजा से मेरा क्या संबंध? मैं तो ज्ञानमात्र पदार्थ हूं। इस अंत:प्रभु को यदि में शुद्ध रख सका तो मैंने अपनी पूजा कर ली और उस पूजा से हमें लाभ भी प्राप्त होगा। इन लोगों के द्वारा की गई पूजा से प्रशंसा से मेरे को क्या लाभ? तो वे योगीश्वर पूजा का मद नहीं करते, क्योंकि उनके पर्यायबुद्धि अब नहीं रही। पूजा के मद तो उनके होता है जिनकी पर्यायबुद्धि है, जिनकी दृष्टि इस शरीर पर है। वे योगीश्वर इस शरीर से भिन्न अपने ज्ञानानंदस्वरूप को निरखते हैं इससे उन्हें पूजा का भी मद नहीं होता।
सिद्धों और योगियों की शरणरूपता- बाह्य में शरण है कुछ तो दो का शरण है- एक प्रभु का और एक योगियों का। भगवान और योगी। भगवान तो एक चरम अवस्था का नाम है। जहाँ रागद्वेष आदिक विकार नहीं रहे, और आत्मा का स्वभाव विशुद्ध पूर्ण विकसित हो गया है, ऐसे आत्मा को भगवान कहते हैं। उनका हम शरण क्यों गहते हैं कि चूँकि हम आप सभी जीव ऐसे ही स्वरूप वाले हैं, उनका ध्यान करने से हमें अपने स्वरूप की सुध होती है, और ज्यों ही अपने इस ज्ञानदर्शन स्वरूप की सुध हुई त्यों ही अनेक विकल्पोपसर्ग शांत हो जाते हैं। जब तक अपने आपके स्वरूप की सुध नहीं रहती तब तक यह उपयोग लगेगा। सो बाहर ही बाहर यह उपयोग लगा रहता है जिससे संसार में इस जीव का परिभ्रमण चलता रहता है। तो अपने आत्मस्वरूप की सुध रहने से अपने आत्मा का विशिष्ट लाभ प्राप्त होता है। सारभूत बाहर में कोई चीज नहीं है। कुछ भी यहाँ शरण नहीं है। शरण है एक तो प्रभु का और दूसरा शरण है योगीराजों का। जिन्होंने प्रयोगात्मक अध्यात्मयोग की साधना की है बाह्य या आभ्यंतर समस्त परिग्रहों का त्यागकर अपने आपमें शाश्वत विराजमान चैतन्यस्वरूप की उपासना जिन्होंने की है, उसके लिए ही जिनकी निरंतर भावना बन रही है, जो संसार में किसी भी विषयादिक की चाह नहीं रखते हैं वे पवित्र आत्मा योगी हैं। उनकी उपासना करना, उनकी शरण गहना भी एक ठीक शरण है।
योगियों की विशुद्ध दृष्टि- परमार्थ और व्यवहार अथवा शुद्ध और विशुद्ध दोनों शरणों में वस्तुत: योगीजन उस मोक्षमार्ग की शरण लेते हैं जिस मार्ग से चलकर हम आप संकटों से दूर हो सकते हैं, पर मोहवश संसारी प्राणी उसकी दृष्टि नहीं कर रहे हैं। अपने स्वरूप से चिगकर किसी भी बाह्यपदार्थ में दृष्टि लगाना, उसका चिंतन करना, मनन करना, उसे ही उपादेय मानना, उससे भलाई समझना, ऐसी जो समझ है यह समझ ही बड़ी विपत्ति लगी हुई है, क्योंकि समागम तो कुछ समय का है, अंत में वियोग तो होना ही पड़ेगा। कोई समागम किसी के साथ सदा रहता नहीं। तो इन परपदार्थों का विकल्प कर करके जो अपने में आकुलता मचाई है इसका फल भोगने कोई दूसरा न आयगा। जिनका आश्रय करके, जिनको नजर में रखकर हमने विकल्प मचाये वे तो साथ देने वाले नहीं हैं। वे सब उतने ही जुदे हैं जितने संसार के अन्य अनंतानंत जीव जुदे हैं। ये खास लोग हैं, ये मेरे प्रेमपात्र हैं, अथवा इनके लिए ही मुझे सब कुछ करना है, अपना तन, मन, धन, वचन सब कुछ इन्हीं को अर्पण करना है आदिक। पर ऐसी समझ नहीं बन पाती कि ये मेरे घर के लोग भी मेरे से उतने ही भिन्न हैं जितने की अन्य समस्त जीव भिन्न हैं, रंच भी अंतर नहीं है, ऐसा जिन्होंने स्वरूप समझा था अतएव उनका उत्कृष्ट वैराग्य बढ़ा था, सब कुछ त्यागकर योग धारण किया था, उनका ही नाम योगी है। और वे योगी किसी भी चीज का मद नहीं करते। उनके क्रोध भी नहीं रहता। किस पर वे क्रोध करें, क्यों क्रोध करें? क्रोध का कोई कारण ही नहीं है। वस्तुत: कोई जीव किसी का विरोधी नहीं है, सभी जीव अपने-अपने कषाय के अनुसार अपनी-अपनी चेष्टा करते हैं। हमारा कोई विरोधी नहीं, ऐसी योगियों की दृष्टि रहती है, इस कारण वे समस्त विश्व के मित्र कहलाते हैं। तब फिर क्रोध का क्या प्रसंग वहाँ? मद का प्रसंग यों नहीं है कि उनकी दो दृष्टियाँ हैं- पाये हुए समागमों को वे तुच्छ मानते हैं। जो ज्ञान पाया है उसे भी वे न कुछ जैसा समझते हैं। पाये हुए जाति कुल को भी वे तुच्छ समझते हैं। उनमें वे योगीजन मद नहीं करते।
योगियों की पूजामदरहितता- पूजा प्रतिष्ठा का मद भी वे योगीजन नहीं करते। मेरा तो कोई नाम ही नहीं, वस्तुत: मैं जो सत् हूं वह निर्नाम है, ऐसे ही सद्भूत सभी पदार्थ हैं जैसे हम आप सब है। स्वरूपदृष्टि से निरखने पर ही आत्मा जाना जाता है। आत्मा की जो वर्तमान दशा है, नरक, तिर्यन्च, मनुष्य, देव, पशु, पक्षी आदिक, इनको निरखकर आत्मा का स्वरूप नहीं समझ पा रहे हैं कि वस्तुत: आत्मा क्या है? इसी प्रकार जो पर-परिणतियां चल रही हैं उन्हें भी देख करके हम परमार्थ आत्मतत्त्व को नहीं समझ सकते हैं कि हम परमार्थ आत्मा क्या हैं? और की तो बात दूर रहो, आत्मा का जो वर्तमान में आकार बन गया है, नाना शरीरों रूप में तो इन शरीरों को ही देखकर आत्मा के शरीर को नहीं निरख पाते। जिसका अनुभव करने पर ज्ञानानुभूति होती है। देखते रहें कि मैं आत्मा तो इतना लंबा चौड़ा हूं? यद्यपि यह प्रदेशित्व गुण को छोड़कर कहां अन्यत्र रहेगा, लेकिन इस दृष्टि से निरखने पर भी यह अनुभूति नहीं जगती जहाँ आनंद ही आनंद बसा हुआ है। रंचमात्र भी जहां आकुलता नहीं हो सकती। कोई विकल्प बाधा नहीं। यह बात तो एक ज्ञानमात्र अपने को अनुभव करने पर होती है। तो इन योगियों को पायी हुई पूजा प्रतिष्ठा में भी मद नहीं है।
भैया ! क्या है? यहां पर्याय का नाम लेकर किसी ने कुछ कह दिया- यह बहुत ठीक है, इसका बड़ा प्रभाव है, कुछ नाम लेकर भी प्रशंसा कर दिया तो उससे क्या लाभ है? उनकी चेष्टावों से मेरी आत्मा को भी क्या लाभ होता है? जितना मैं अपने को ज्ञानमात्र अनुभव कर करके एकरस कर लूँगा, अपने उपयोग को ऐसा बलवान् बना लूँगा कि जब चाहे अनायास ही शीघ्र अपने को ज्ञानरूप अनुभव कर सकते हैं। ऐसी बात पायी जा सकी उसी का नाम योग है और यही योग इस जीव को शरण है। जगत में अनेक कार्य हैं, अनेक व्यापार हैं। नेतागिरी, नाम फैलाने आदिक के जो काम हैं वे सब अनर्थभूत काम हैं, इससे आत्मा को कुछ भी लाभ नहीं है। आत्मा का लाभ आत्मदृष्टि से है। यद्यपि लोक में रहकर, गृहस्थी में रहकर ये सब कुछ करने पड रहे हैं लेकिन व्यापार के समय व्यापार किया जाता है, घूमने के समय घूमा जाता है। किंतु अपने आपके अनुभव के लिए भी कुछ समय चाहिये। यह मन हर जगह दौड़ दौड़कर खूब थक जाता है, इस थके हुए मन को आराम भी तो देना चाहिये। अब आप विचार करें कि मन को आराम देने का ढंग क्या है? पुत्र मित्र में राग करने लगें, इससे मन को आराम मिलेगा क्या? अरे इनके पीछे विकल्प करके तो मन थक जाता है। तो थके हुए मन को विश्राम देने का उपाय केवल यह है कि ऐसा ज्ञान प्रकाश पायें कि पर के विकल्पों को छोड़कर विश्राम से बैठ सकें, अपने आपका अनुभव जगे।
आत्मकरुणा करने के कर्तव्य का अनुरोध- एक राजा पर किसी शत्रु ने चढा़ई कर दी, तो राजा सेना लेकर शत्रु का सामना करने चल पड़ा। राज्य में रानी रह गयी। दूसरी ओर से एक शत्रु ने और भी आक्रमण कर दिया। तो रानी ने सेनापति से कहा कि जावो, सेना लेकर इस शत्रु का मुकाबला करो। तो वह सेनापति हाथी में बैठकर उस शत्रु का मुकाबला करने चल पड़ा। वह सेनापति जैन था। सो संध्या के समय वह हाथी पर बैठा हुआ ही सामायिक पाठ करने लगा। उस सामायिक में वह कहने लगा- ऐ पशु पक्षी, मनुष्य कीड़ा मकोड़े, पेड़, पौधे आदि प्राणियों ! मेरे द्वारा तुम्हें जो कुछ भी कष्ट पहुंचा हो तो क्षमा करना। यही तो सामायिक पाठ में बोला जाता है। तो इस बात की चुगली किसी ने रानी से कर दी कि तुमने तो ऐसा सेनापति शत्रु का मुकाबला करने के लिए भेजा कि वह तो रास्ते में छोटे मोटे कीड़ा मकोड़ा, पेड़, पौधा आदिक से भी क्षमा मांग रहा था, वह क्या शत्रु का मुकाबला करेगा, पर हुआ क्या कि वह सेनापति एक दो दिन बाद ही उस शत्रु पर विजय प्राप्त करके आ गया। उसके आने पर रानी ने कहा- ऐ सेनापति, हमने तो सुना था कि तुम रास्ते में छोटे मोटे कीड़ा मकोड़े, पेड़, पौधे आदिक से भी क्षमा मांग रहे थे, पर तुम तो इतने बड़े शत्रु से जीतकर आये, यह कैसे? तो सेनापति बोला- ऐ रानी जी मैं आपके 23।। घंटे का नौकर हूं, खाते, पीते, सोते, उठते, बैठते, सभी स्थितियों में आपकी आज्ञा में हाजिर रहता हूं, पर रात दिन के 24 घंटे में आधा घंटे तक मैं अपनी नौकरी करता हूं। अपने आत्महित की बात सोचता हूं। सो जिस समय मैं कीड़ा मकोड़ा, पेड़, पौधे आदिक से क्षमा माँग रहा था उस समय मैं अपने आपकी नौकरी कर रहा था, अपने आत्महित का काम कर रहा था और जब युद्ध का समय आया तो डटकर शत्रु से मुकाबला किया। तो इस कथानक से हम आप भी यह शिक्षण लें कि इस रात दिन के 24 घंटों में बाहरी झंझटों में ही हम आप फंसे रहा करते हैं। कुटुंब के, समाज के, देश के, अनेक प्रकार के कामकाज में लगे रहा करते हैं पर इन सब कामों के करते हुए में यही सोचना चाहिये कि कम से कम एक आध घंटा अपने आपकी नौकरी करें। इन कामों में पड़कर तो हम अपने आपको बरबाद किये जा रहे हैं, रात दिन रागद्वेष विकल्प मोह ममता में ही पड़े रहते हैं। इन सारे कार्यों से अपने आत्मा की कुछ भी भलाई न होगी। तो अपनी भलाई तो अपनी आत्मदया करने में है और आत्मदया यही है कि अपने आपकी ओर दृष्टि दें। ऐसा करने में ही अपने जीवन की सफलता है। इंद्रियविषयों के सेवन के कार्य तो पशु पक्षी वगैरह भी करते हैं। यही प्रक्रिया यदि मनुष्यभव में भी रही तो उन पशु पक्षियों से मनुष्यों में श्रेष्ठता क्या रही? तो इन इंद्रियविषयों में पड़कर तो अपना जीवन व्यर्थ ही खोया जा रहा है। यहाँ के समस्त इंद्रियविषयों के समागम पुण्याधीन हैं। जैसा पूर्वभव में किया अथवा जैसा अब कर रहे हैं उसके उदय के अनुसार ये सब समागम प्राप्त होते हैं। तो अपने उदयवश जो कुछ भी आय हो उसी में समुचित व्यवस्था बनाकर संतुष्ट रहें। कुछ हिंसा दान परोपकार आदिक धर्म कार्यों में लगे, कुछ अपनी बचत का रखें, कुछ हिस्से में अपना गुजारा करें, और रात दिन के 24 घंटे में कम से कम एक दो घंटे का समय अपने आत्मकल्याण के लिए रहा करे।
परमात्मतत्त्व की उपासना से जीवन की सफलता- अहंकार सबसे बड़ा शत्रु है। जो मैं नहीं हूं उसको मानें कि यह मैं हूं, इसका भी नाम अहंकार है। सच पूछो तो इस अहंकार से हम आप संसारी जीवों की बरबादी हो रही है। अहंकार दूर हो तो परमात्मदर्शन में फिर देर नहीं लगती। जहाँ पर को मैं मान रहा हूं, यह मैं हूं, यह मेरा है। जब उपयोग ही बाहर की ओर खींच गया तो भीतर में बसा हुआ यह परमात्मतत्त्व तुझे कहाँ दिखेगा? तो प्रभु की सुध लेने से हमें अपने आपकी सुध आती है और योगियों की उपासना करने से हममें एक उत्साह जगता है कि मैं ऐसा ही करूँ, मैं भी ध्यान में रहूं, मैं भी सच्चे आनंद को प्राप्त करूँ। तो योगिभक्ति से, योगियों की उपासना से अपने आपमें अपने को निरखना यही मात्र जीव का शरण है। बाहर में जो अनेक श्रम किए जाते हैं वे श्रम हम आपको शरण नहीं हैं। तो किसी समय जब भी शांत चित्त से बैठे हों, दिल में किसी भी परपदार्थ की चिंता विकल्प न कर रहे हों, ऐसी ही स्थिति में आत्मा का ध्यान बनता है, और यही आत्मा की सच्ची दया है। हम अपने आपको कुछ कर जायें तो यह मानवजन्म सफल है और अगर कुछ न कर सके तो जैसे अनेक जन्म खोये ऐसे ही यह मानव जन्म भी बेकार में ही खोया समझिये। सब दिन घर घर में ही रहकर, रागद्वेष मोहादिक के प्रसंगों में ही रहकर इस मानवजीवन को गंवा देने में कुछ भी लाभ न मिलेगा।
योगियों के बलमद का अभाव- योग कहते हैं जोड़ने को।जैसे हिसाब में कहते कि इसका योग कर दो, मायने इसे जोड़ दो, इसी प्रकार आत्मा के स्वरूप में अपने उपयोग को जोड़ दो, स्वरूप तो था ही, उसमें उपयोग और जुड़ गया, इसे कहते हैं योग। इस योग को जो धारण करते हैं ऐसे पुरुषों के ज्ञानमद, पूजामद, कुलमद, जातिमद आदिक नहीं रहते। इसी प्रकार बलमद भी नहीं है। बड़े वीर क्षत्रिय बहादुर अपनी गृहस्थावस्था में थे जिन्होंने बड़ी वीरताओं का परिचय दिया, ऐसे पुरुष जब निर्ग्रंथ योगी हो जाते हैं तो कोई शत्रु अथवा बलवान उन पर प्रहार कर दे तो उस पर क्षमा धारण करते हैं, न अपने बल के ओर ध्यान भी देते, आत्मस्वरूप में रत रहने की धारणा रखते हैं, उनके बलमद नहीं है। जैसे पांडव आदिक अनेक योगीश्वर हुए, अपने बल के द्वारा कौरव सेना को परास्त कर दिया। साम्राज्य पाकर वे उसमें टिक न सके, वैराग्य की प्रेरणा हुई, विरक्त हुए, उन पर कौरववंश से संबंधित छोकड़ों ने उपसर्ग किया। ताते लोहे के कड़े आदिक आभूषण पहिनाये। उनमें क्या इतना बल न था कि उन छोकड़ों को भगा देते? पर उन्होंने अपने बल की ओर कुछ भी ध्यान न दिया। अपने में ऐसी सावधानी रखी कि मेरे आत्मा में इस प्रकार के विकल्प न जगने चाहिएँ। जिन विकल्पों ने ही संसार बढ़ाया उन विकल्पों की भावना नहीं है। निर्विकल्प समाधि में और दृढ़ता स्थित हो गयी, तो ऐसे योगियों के बलमद कहाँ?
योगियों के ऋद्धि तप रूप के मद का अभाव और गुणसमृद्धत्व– योगियों के ऋद्धिमद भी नहीं। उन योगियों को यह भी पता नहीं रहता कि मुझे कौनसी ऋद्धि प्राप्त हुई? तपश्चरण के अतिशय में ऋद्धि उत्पन्न हो जाती है तो उन ऋद्धियों का मद भी उन योगियों को नहीं होता। वे जानते हैं कि हमारी अलौकिक ऋद्धि तो अनंतज्ञान, अनंतआनंद का अनुभव है। यह सूक्ष्म ऋद्धि भी क्या चीज है? तप का भी मद उन योगियों को नहीं रहता। कई मास के उपवास करें, सर्दी गर्मी में वन में निवास करें, कठिन से कठिन उपसर्ग भी आयें, उन्हें सहन करें, ऐसे तपश्चरण करके भी वे योगीजन अपने तपश्चरण का मद नहीं करते। इसी प्रकार उनके शरीर का भी मद नहीं है, रूप का भी मद नहीं है। यों 8 प्रकार के मद से वे योगीश्वर रहित है और वे अष्टगुणों के ईश्वर हैं। जो तपोबुद्धि के प्रभाव से विशेष प्रकार की ऋद्धियाँ उत्पन्न होती है उनके ईश्वर हैं या अपने गुणों में बढ़ रहे हैं, वे गुणों के ईश्वर हैं। यह सब योग के प्रताप से हुआ है ना तो वे योग की तरफ ध्यान रखते है, सो ये विकास स्वयं चले जाते हैं।
योगियों की कर्मक्षपणोद्यतता व परमार्थकुशलता- योगीश्वर अष्टकर्मों का नाश करने के लिए उद्यमी हुए हैं। द्रव्यकर्म के नष्ट करने का अर्थ यह है कि जिन जीवों को द्रव्यकर्म का बंध होता है और जिन भावों से द्रव्यकर्म बलवान बनते हैं उन भावों को न करना, उनके प्रतिपक्षी ज्ञान भावों की ओर आना, यह उनकी आंतरिक वृत्ति है। तब वे अष्ट प्रकार के कर्म उनके नष्ट हो जाने वाले हैं। ये योगी परमार्थ में कुशल हैं। कलायें जैसे पुरुष में होती हैं जैसे कोई किसी लिखने, पढ़ने, आदिक कला का अच्छा जानकार है तो उसे सुधार लेना, सम्हाल लेना वह उसकी सहजकला से साध्य है। ऐसे ही उन योगीजनों में ऐसी सहजकला है कि जिसके बल पर अपने, आत्मस्वरूप में अपने उपयोग को जब चाहे तब रमा लेते हैं। वे अपनी इस कला में इतना निपुण हो गए है तभी तो क्षण-क्षण में थोडे़ थोडे़ समय प्रमत्त से अप्रमत्त होते हैं। प्रमत्त से अप्रमत्त हुए, अप्रमत्त से प्रमत्त हुए इस प्रकार छठे 7 वें गुणस्थान में परिवर्तन करते रहते हैं तो वहाँ बारबार अपनी संभाल ही तो करते हैं। वह उनमें सहजकला ही तो है कि झट अपने इस दौड़ते हुए मन को मोड़कर अपने आत्मा का अनुभव करने लगते हैं। तो वे योगीश्वर परमार्थ में निपुण हैं। ऐसे योगीश्वरों का मैं मन, वचन, काय से वंदन करता हूं।