वर्णीजी-प्रवचन:योगिभक्ति - श्लोक 9
From जैनकोष
भूदेसु दयावण्णे चउदस चउदससुगयपरिसुद्धे।
चउदसपुव्वपगंभे चउदसमलवज्जिदे।।9।।
योगियों की चतुर्दशजीवदयापरता व चतुर्दशपरिग्रहवर्जितता- ये योगी 14 प्रकार के प्राणियों की दया से सहित हैं। 14 जीव समास- जीव समास में सभी संसारी जीव आ गए। समस्त संसारी जीवों के प्रति उनके क्षमाभाव है। जो जीव व्यवहार में नहीं आ रहे, जो पकड़ में भी नहीं आते ऐसे जीवों पर उनकी क्या दया होती है? चूँकि सर्वजीवों के संबंध में इन सबका उद्धार हो, ऐसी भावना रहती है। अतएव वे सर्वजीवों पर दया करने वाले हैं। तो ये योगीश्वर 14 प्रकार के इन संसारी जीवों के प्रति दया से सहित हैं। ये 14 प्रकार के परिग्रहों से रहित हैं। क्रोध, मान, माया, लोभ और मोह और 9 नोकषायें- हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरूषवेद, नपुंसकवेद इन सब 24 प्रकार के विकल्पों से भी वे निवृत्त हैं। इनका वे ग्रहण नहीं करते। एक तो कोई विकल्प को जकड़ लेना, राग करना- इन दो बातों में अंतर है।
राग व रागानुराग सभी रागों से योगियों की दूरवर्तिता- कोई पुरुष यह समझकर कि यह मानवजीवन बड़ा दुर्लभ है, सुयोग से प्राप्त किया है, तो ज्ञानभावना करके, परमात्मदर्शन करके अपने इस दुर्लभ मानवजीवन को सफल करना चाहिये। इसकी साधना करने का यह सुंदर अवसर है। जिस साधना के प्रताप से निकटकाल में ही संसार के समस्त संकटों से छुटकारा पाया जा सकता है। तो इस मानवजीवन को कुछ समय रखना उपयोगी समझ करके जो देह का राग करते हैं, वह राग मूढ़ता भरा राग नहीं है, राग अवश्य है, किंतु उस राग में भी यदि राग हो और अपने उद्देश्य की सुधि भूलकर विकल्प मचाये जायें तो वे सब मूढ़ता भरे राग हैं। ऐसे ही गृहस्थी में धन का रखना भी उपयोगी है, उससे जीवन चलता है। तो जीवन चलाना है एक आत्मसाधना के लिए, क्योंकि इस जीवन में एक सुबुद्धि प्राप्त की है, और कुछ ज्ञानस्वरूप का परिचय भी हुआ है तो इस अवसर से लाभ उठाना है, ऐसा जानकर गार्हस्थ्य जीवन में उपयोगी होते हुए इस धन आदिक का कोई राग करे तो यह मूढ़ता भरा राग नहीं है। राग है, विभाव है, किंतु अपने आपकी सुधि न रखकर केवल लोक में धनी कहलाने के लिए और उसमें अपना बड़प्पन जताने के लिए जो चाह होती है वह मूढ़ता भरा राग है। जैसे कोई परिजन मित्रजन के संपर्क में यहाँ रहना पड़ रहा है तो वहां तो प्रेमपूर्वक व्यवहार करने से गुजारा है और ऐसा शांत प्रसन्न रहकर गुजारा करने की स्थिति में धर्मदृष्टि रह सकती है। अतएव परिजन का, कुटुंब का राग करना मूढ़ता भरा नहीं है, राग अवश्य है, किंतु अपना उद्देश्य ही भूलकर जो परिजन मित्रजनों में रति करते हैं, उनमें मोह रखते हैं उनका राग मूढ़ता भरा लगा है। ये योगीश्वर इन सब रागों से भी दूर हैं। वे अपने में विभावपरिणमनों से विरक्त ही रहना चाहते हैं।
योगियों की चतुर्दशपूर्वगर्भता व चतुर्दशरागल वर्जितता- ये योगेश्वर 14 प्रकार के पूर्वो को अपने गर्भ में रखे हुए हैं। 14 पूर्वों का बहुत बड़ा विस्तार है। हैं ये 12 अंग के भेद, 12 वें अंग के भेदों से एक भेद है पूर्व का किंतु इसका प्रमाण सबको मिलाकर उसके मुकाबले में भी विशेष रहता है ऐसे 14 पूर्वों के ज्ञाता योगीश्वरों का मैं वंदन करता हूं। ये 14 मलों से रहित हैं, दोषों से रहित हैं, विकल्पों से दूर हैं। जिनको एक सहजज्ञान के दर्शन की कला प्राप्त है और इसी कारण जिनकी परमात्मत्त्व की ओररहने की धुनि रहती है उनको बाह्यविकल्पों में फंसने की आवश्यकता ही क्या है? वे विकल्पों से दूर रहते हैं। फंसा कोई भी बाहरी बातों से नहीं है। जो लोग गृहस्थी में हैं वे गृहस्थी में फंसे नहीं है किंतु अपने विकल्पों से फंसे हैं। कोई बहुत बड़ा चक्रवर्ती भी हो, अटूट वैभव का स्वामी हो फिर भी यदि उसके पास सही ज्ञान है तो वह तो उस सब वैभव से, समस्त परिजनों से अपने को पृथक् निरखता है। वह तो यही समझता है कि ये सब कुछ मैं नहीं हूं। उसे तो एक ऐसी सहज कला प्राप्त हुई है कि क्षण भर में ही सर्वप्रकार के विकल्पों से दूर हो जाया करता है। तो ऐसे ही आत्मगुणों के अधिकारी वे योगीश्वर हैं। उनका मैं वंदन करता हूं।