वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 1
From जैनकोष
नम: श्रीवर्द्धमानाय, निर्धूतकलिलात्मने ।
सालोकानां त्रिलोकानां यद्विद्या दर्पणायते ।।1।।
रत्नकरंड ग्रंथ के आदि में श्री वर्द्धमान स्वामी को नमस्कार―इस ग्रंथ का नाम है रत्नकरंड। इसके रचयिता हैं स्वामी समंतभद्राचार्य । रत्नकरंड का अर्थ है रत्न का पिटारा । रत्न क्या? सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र, इन तीन का जिसमें कथन है उसे कहते हैं रत्नकरंड । रत्नकरंड के आदि में मंगलाचरण करते हुए आचार्यदेव कहते हैं कि श्री वर्द्धमान के लिए मेरा नमस्कार हो । श्री वर्द्धमान का मुख्य अर्थ तो यह है कि इस चतुर्थ काल के अंत में 24 वें तीर्थंकर राजा सिद्धार्थ के नंदन, त्रिशला माता के नंदन श्री वर्द्धमान तीर्थंकर हुए है, उनका स्मरण किया । दूसरा अर्थ यह है कि श्री वर्द्धमान मायने सब कोई जो अंतरंग श्री ज्ञानलक्ष्मी से वर्द्धमान हो, बढ़ा हुआ हो वह श्री वर्द्धमान है । तो श्री वर्द्धमान के कहने से सभी तीर्थंकरों का, अरहंतदेव का अंतरंग, बहिरंग लक्ष्मी की अपेक्षा तीर्थंकरों का और मात्र अंतरंग लक्ष्मी की अपेक्षा सिद्धों का इसमें ग्रहण हुआ है । उनमें एक श्री वर्द्धमान स्वामी को ही विशेषण कर दें, और विशेष्य कर दें, तो अंतरंग बहिरंग लक्षी से बढ़ हुए वर्द्धमान स्वामी को नमस्कार किया है । आज इस पंचमकाल में जो कुछ भी तत्त्वज्ञान चल रहा है वह वर्द्धमान स्वामी की परंपरा से चला आया हुआ चल रहा है । जो यह तत्त्वज्ञान न मिलता तो यह जीव अज्ञान अंधेरे से हटकर कैसे मोक्षमार्ग में लगता? तो वर्द्धमान प्रभु का हम सब पर बड़ा उपकार है ।
श्री वर्द्धमान भगवान के शासन में सम्यक् आचार व विचार का प्रतिपादन―लोक में दो बातों की महत्ता होती है―(1) आचार और (2) विचार । जिसका आचार और विचार सुंदर हो वह उत्तम माना जाता है और इन दो बातों में सब कुछ आ गया । भावना, सद्भाव, विचार―ये सब विचार बनें और मन, वचन, काय की चेष्टा आत्मा का व्यापार ये सब आचार बने, तो जैन शासन में आचार के लिए मुख्यता है अहिंसा की और विचार के लिए प्रधानता है स्याद्वाद की । स्याद्वाद से वस्तु का निर्णय करिये । चूंकि वस्तु बनी रहती है और बनती बिगड़ती है । अगर बनना, बिगड़ना न हो पदार्थ में तो बना रहना भी नहीं हो सकता और यदि बना रहना न हो पदार्थ में तो बनना बिगड़ना भी नहीं हो सकता । तो जब हमेशा रहता है और उसकी अवस्थायें बनती बिगड़ती है तो बस द्रव्य और पर्याय इन दो दृष्टियों से वस्तु की पहिचान बनाई गई । द्रव्यदृष्टि से पदार्थ नित्य है और पर्याय दृष्टि से अनित्य है । यदि नित्य ही है, अनित्य ही है, ऐसा सिद्धांत माना जाय तो पदार्थ किस मुद्रा में रहेगा? और फिर आत्मा का रागद्वेष सुधार बिगाड़ मुक्ति कुछ भी न बन सकेंगे? तो क्या आत्मा क्षण-क्षण में नया-नया है? यदि ऐसा माना जायेगा तो क्षण-क्षण में जब नया-नया आत्मा बन रहा तो धर्मकार्य करने की, मोक्ष मार्ग की आवश्यकता ही क्या रही? कोई भी आत्मा एक क्षण को रहे दूसरे क्षण न रहे तो उसे मोक्षमार्ग में बढ़ने की आवश्यकता ही क्या रहेगी, और यह व्यवहार चलेगा ही क्यों? सब अव्यवस्था है । अत: पदार्थ आत्मा नित्यानित्यात्मक है और इसी तरह स्याद्वाद में आत्मा के स्वरूप को समझने के लिए अनेक दृष्टियाँ ली, अनेक धर्मो का परिचय कराया गया । तो स्याद्वाद से तो वस्तु का निर्णय करना और अहिंसा से अपने आत्मा को पवित्र करना धर्म का स्वरूप भी जैन शासन में मूलत: यह बताया है कि अपने परिणामों में रागद्वेष इष्ट अनिष्ट मोह भाव नहीं सो अहिंसा हैं ।
अहिंसा के स्वरूपनिर्णय में और मार्गानुसरण में सर्वविधेय समस्यावों का समाधान―तो एक समस्या का समाधान मिल गया जिससे किसी को बहुत अधिक समझाना भी न पड़ेगा कि भाई इससे यों बोलो, इससे यों करो, अमुक की रक्षा करो । अनेक बातें कहनी ही नहीं पड़ेगी । जो कुछ होना है वह स्वयं हो जायेगा उस जीव को जिसने वास्तविक अहिंसा को चित्त में उतारा है । अपने में विकार न लावे, रागद्वेष भाव न करें । ऐसा कोई करके रहे तो उसका मन कैसे चलेगा? उसके वचन कैसे निकलेंगे? शरीर की कैसी चेष्टा होगी । बस यही चरणानुयोग में दिखाया है । दोनों बातों का मेल है । शास्त्रों में लिखा है सो करना चाहिए और ज्ञानी आत्मा के द्वारा जो प्रवृत्ति बनती है सो शास्त्रों में लिखी है । जैसे स्वानुभव का मेल शास्त्रों में देख लो जिस प्रकार आत्मा का स्वरूप दिखाया है उस प्रकार अपने आत्मस्वरूप का चिंतन करना और आत्मस्वरूप का चिंतन करते हुए उस अनुभव का अलौकिक आनंद पाया तो उसका मेल शास्त्रों में देख लो, यही लिखा है ना? हां तो इस प्रकार का समन्वय बना । अपने आपको ठीक ज्ञानप्रकाश में लाये बिना अपना परिणाम, परिणमन शांति का नहीं बन सकता । तो अहिंसा और स्याद्वाद इन दीनों का जो विस्तार पूर्वक विवेचन है उससे हम आप लोगों ने ज्ञानप्रकाश पाया यदि पशु पक्षियों की भाँति खाना पीना, रागद्वेष करना, झगड़ा करना, मोह करना, मर जाना, फिर जन्म पाना, फिर रागद्वेष करना... इन ही में अगर रुचि है तो ठीक है, तब तो जो पशुओं का काम है सो अपन भी कर रहे, उससे आगे कुछ नहीं सोचा । यदि इस संसार में जन्म मरण करते रहना और नानाप्रकार की यातनायें सहते रहना ही मंजूर है तो बस ठीक है, इन पशु पक्षियों की भाँति ही कार्य करते रहो, वे सब बातें मिलती रहेंगी, और यदि नहीं इष्ट है, और अपने आपको संसार के संकटों से सदा के लिए छुटकारा दिलाने का परिणाम हुआ है तब तो वीर प्रभु के शासन में, उसकी छाया में आयें और ज्ञानमार्ग में चलें ।
सर्वोत्कृष्ट ज्ञान के प्रभु श्री वर्द्धमान प्रभु को नमस्कार―जगत में केवल ज्ञान ही एक ऐसा वैभव है कि जिसकी उपमा तीन लोक तीन काल में किसी अन्य वस्तु से नहीं दी जा सकती । मानो वे बाह्य चीजें उसके आगे कुछ नहीं हैं । फक्कड़ है, दिगंबर है और अपने खाने पीने की कुछ परवाह नहीं है, ज्ञान सही है, ज्ञान से ज्ञान में ज्ञान ही हो यह स्थिति बनाने की योग्यता है तो वह तो अंत: ऐसा उद्यम कर रहा कि शरीर का झगड़ा भी खतम हो जायेगा । जिस शरीर से आज प्रेम किया जा रहा है वह शरीर अभी कुछ ही दिनों बाद अग्नि से जला दिया जायेगा । यह शरीर रखने योग्य नहीं फिर इससे प्रीति क्यों करना? हां संयम की साधना के लिये, जीवन निर्वाह के लिये इस शरीर के नाते से कुछ कुछ करना भी पड़े सो तो ठीक है पर यह शरीर ही मैं हूँ, यही मेरा सर्वस्व है, उसके ही सम्मान अपमान की बातों का ध्यान बनाये रहना यह इस जीवन की भारी भूल है । यह तो है घोर अज्ञान अंधकार की बात, इससे कोई शांति का अनुभव नहीं कर सकता । शांति का उपाय तो वीर प्रभु ने बताया है सो शांति की प्राप्ति के वर्णन में सर्वप्रथम वीर प्रभु का स्मरण किया गया है ।
निर्धूतकलिलात्मक श्री वर्द्धमान प्रभु को नमस्कार―श्री वर्द्धमान स्वामी को नमस्कार हो । कैसे हैं वे प्रभु? निर्धूतकलिलात्मने, याने पूर्ण रूप से धो डाला है इन पापों को आत्मा से जिसने वे वर्द्धमान प्रभु । जैसे धुनियां रुई धुनता है तो उस रुई को धुन-धुन कर उसके सारे बिनोले ढूँढकर समाप्त कर देता है ऐसे ही ज्ञानी जीव इन राग भावों को धुनते हैं ज्ञान के यंत्र से । कोई राग द्वेष न रहे । यदि राग द्वेष रहेगा तो मुक्ति नहीं मिल सकती । तो प्रभु ने स्वयं में खुद अपने पाप कर्मों को आत्मा से निकाल डाला है, धो डाला है, दूर कर दिया है और इसी से वर्द्धमान प्रभु को वह दिव्य ज्ञान मिला कि जहाँ यह दिव्य उपदेश चला, कर्म के बारे में यह ध्यान दिलाया कि जब यह जीव अज्ञानभाव में रह रहा, रागद्वेषादिक विकारों को अपना रहा, रागी द्वेषी बंधा रहा तो कार्माणवर्गणा जाति के पुद्गल स्वयं ही कर्मरूप परिणम जाते है, जीव उनको परिणमाता नहीं है । एक द्रव्य दूसरे द्रव्य को परिणमा सकता नहीं है, पर ऐसा ही निमित्त नैमित्तक योग है कि जीव में अज्ञानभाव, रागद्वेषभाव जगा कि कार्माणवर्गणायें स्वयं कर्मरूप परिणम गई । सो प्रभु ने रागद्वेष मोह रूप कलिल को आत्मा से बिलकुल अलग कर डाला है ।
सर्वज्ञेयों के लिये दर्पणायमान वर्द्धमान प्रभु को नमस्कार―निर्धूतकलिलात्मक होने के कारण सालोकानांत्रिलोकानां नाम याने जिसका ज्ञान लोकालोक के सब जीवों को प्रकाशित करने में दर्पण की तरह आचरण करता है । एक दो दृष्टांत सामने रखिये एक तो दर्पण में सामने आये हुए पदार्थ का फोटो आ जाना, प्रतिबिंब आ जाना और एक अग्नि के संबंध से पानी में गर्मी आ जाना, इन दोनों में बड़ा अंतर है । दर्पण में जो फोटो आयी है वह ऊपरी है, छाया है, निमित्त के हटने पर छाया भी दूर हो जाती है और जब तक वह प्रतिबिंब है दर्पण में तो उसको देखकर लोग तो यह कहेंगे कि दर्पण तो लाल नहीं हुआ किंतु लाली दीख रही है । कोई लाल चीज सामने हुई तो दर्पण में लाल प्रतिबिंब आया । तो सभी के मन में यह बसा हुआ है कि दर्पण लाल नहीं हुआ किंतु दर्पण में यह लाल रंग दिख रहा है । किंतु अग्नि से होने वाली गर्मी में यह बात नहीं पायी जाती । अग्नि हट जाये तो भी पानी कुछ देर गरम रहता । भले ही कुछ देर में ही ठंडा हो गया मगर तत्काल तो गर्मी नहीं हट पाती । जबकि दर्पण के सामने की चीज हटने पर तुरंत प्रतिबिंब हट जाता । तो जैसे अग्नि के संबंध से पानी गरम हो जाता है इसी तरह कर्म विपाक के संबंध से आत्मा रागीद्वेषी विकारी हो जाता है, और कोई बाह्य पदार्थ ज्ञान में आ गया, ज्ञान में ज्ञेय का संबंध बन गया, यह है एक स्वभाव से होने वाली बात । ज्ञान का स्वरूप क्या है? जानना अगर जानना परिणमन न रहा तो ज्ञान का कुछ अर्थ भी है क्या? ज्ञान कुछ रहा ही नहीं, तो ज्ञान का परिणमन होना, जानना यह स्वभाव से हो रहा है, यह विकार से नहीं हो रहा, जबकि आत्मा में रागद्वेष का होना स्वभाव से नहीं हो रहा किंतु विकार भाव से हो रहा । कर्मविपाक का निमित्त पाकर हो रहा―तो जिसके ज्ञान में सर्वज्ञेय पदार्थ दर्पण की तरह आचरण कर रहे हैं ऐसे श्री वर्द्धमान स्वामी को यहाँ भाव पूर्वक, विनय पूर्वक नमस्कार किया है ।
श्री से वर्द्धमान श्री वर्द्धमान प्रभु को नमस्कार―वर्द्धमान प्रभु श्री से बड़े हुए थे, श्री मायने अंतरंग लक्ष्मी, बहिरंग लक्ष्मी । महावीर भगवान के आत्मा में ज्ञान तो अनंत प्रकट है, दर्शन अनंत, आनंद अनंत, शक्ति अनंत आदिक स्वच्छ स्वरूप यह तो है उनकी अंतरंग लक्ष्मी और बहिरंग लक्ष्मी क्या? बड़े शोभायुक्त समवशरण का होना, समवशरण मायने धर्मसभा, भाषण सभा, प्रवचन सभा, किसी नेता के आने पर या सरकारी किसी ऊंचे पदाधिकारी के आने पर लोग उसके व्याख्यान के लिये बड़ा मंडप तैयार करते है सो कुछ विशेषता करते कि नहीं, फिर तीनों लोक के गुरु जो वास्तविक बात बताने वाले हैं, जो केवल ज्ञानी हुए तीनों लोक में उत्तम हुए उनके धर्मोपदेश के लिए दिव्य ध्वनि खिरे उसके लिए कैसा मंडप बनना चाहिये सो तो बताओ? इन नेताओं का संबंध तो देश नगर के थोड़े लोगों से है सो वे लोग रहते हैं, मंडप बना लेते हैं, पर तीर्थंकर का स्नातक गुरु का संबंध है तीन लोक के जीवों से । तो जिसमें सबका प्रसंग है उसका मंडप कैसा बनना चाहिये? वह मनुष्यों द्वारा नहीं बनाया जा सकता । वह देवों की ही रचना है । तो समवशरण में कैसी अद्भुत रचना है, कैसी शोभा है कि कोई अगर प्रभु का उपदेश सुनने जाय तो निकट पहुंच भी नहीं पाया, पर बाहरी वातावरण को देखकर उसके धर्मभाव बढ़ने लगे । धर्मभाव बढ़ा हुआ हो, धर्मभाव आ रहा हो तो सुनने में विशेषता होती है, और धर्मभाव मन में न हो और बाहरी बात संकल्प विकल्प आरंभ परिग्रह की बात चित्त में बसी हो तो धर्मोपदेश का सुनना थोड़े ही बनता है । तो समवशरण की रचना ऐसी बने कि जहाँ प्रवेश करते ही चैत्यालयों के दर्शन, मुनिजनों के दर्शन और फुटकर चर्चा करती हुई गोष्ठियों का मिलना इस तरह चले जा रहे है, धर्म का वातावरण बढ़ रहा है और जब अपनी बारह सभा में पहुंचे, अपने कोठे में बैठे तो प्रभु का जो उपदेश, दिव्यध्वनि हो, उसके सुनने को पात्रता आ जाती है । तो वर्द्धमान प्रभु अंतरंग और बहिरंग लक्ष्मी से शोभायमान हैं । उनको नमस्कार करके अब आचार्यदेव ग्रंथ में क्या कहेंगे वह बात बतला रहे हैं । जैसे कहते है प्रतिज्ञापन इस ग्रंथ में किस चीज का वर्णन होगा वह बहुत संक्षिप्त शब्दों में सबसे पहले बताया जा रहा है । वही उद्देश्य इस दूसरे श्लोक में बताया जा रहा है ।