वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 104
From जैनकोष
अशरणमशुभमनित्यं दुखमनात्मानमावसामि भवम् ।
मोक्षस्तद्विपरीतात्मेति, ध्यायंतुसामायिके ।। 104 ।।
सामायिक में भवभ्रमण की अशरणता व मोक्ष की शरणरूपता का ध्यान―सामायिक करता हुआ यह श्रावक संसार के स्वरूप का और मोक्ष के स्वरूप का किस तरह ध्यान करता है, इसका दिग्दर्शन इस छंद में किया गया है । यह संसार अशरण है, यहाँ इस जीव का बाहर में कोई शरण नहीं, दूसरा पुरुष कितना ही प्रेमी हो वह अपने में प्रेम विकार कर पाता है? वह मुझ में क्या कर सकता है? ध्यान कर रहा है सामायिक में श्रावक । मेरा शरण मेरा भाव है । मैं अपने को ज्ञानभाव में रखूँ तब तो मेरे को सब शरण है, यह ही खुद और मैं अपने ज्ञानभाव से चिगकर किसी बाह्य पदार्थ की कल्पना में लगूँ तो मैं खुद अशरण बन रहा हूँ । मेरा दूसरा कौन सहायक है? यह जगत अशरण है, बाह्य दृष्टि से भी देखें―जब यह जीव मरता है, छोटी उम्र में ही मरता है तो घर के लोग सब उसको चाहते हैं कि यह न मरे, पर किसी का कुछ वश चलता क्या? लाखों करोड़ों रुपया भी कोई खर्च करे तो क्या उसे कोई बचा सकता? जब जिस पर जो बीतती है उसे यह ही तो सहन करता है । कोई दूसरा मदद करने न आयगा । तो यह गृहस्थ चिंतन कर रहा कि यह जगत अशरण है । किंतु यह मोक्षपद शरण है । यहाँ आकुलता का नाम नहीं, जो मेरा सत्त्व है, एकत्व में गत है, अपने आप जो कुछ हूँ वह ही तो मोक्ष में प्रकट व्यक्त है, केवल आत्मा ही आत्मा है । उसके साथ कोई उपाधि नहीं है । ऐसा निरुपाधि वह सहज आत्मा यह ही तो मोक्ष का साधन है वह शरण है । क्योंकि इस जीव को फिर अनंतकाल तक भी आकुलता नहीं है ।
सामायिक में भवधारण की अशुभता व मोक्ष की परमशुभरूपता का ध्यान―यह संसार अशुभ है, अशुभ कर्म का बंध कराने वाला है । अशुभ देहरूपी पिंजड़े में फंसा है, अशुभ कषायों में, अशुभ भावों में लीन है, निरंतर अशुभ ही अशुभ का प्रभाव पा रहा है । यह संसार किस तरह शुभ कहा जा सकता? यदि यहाँ सुख मिले तो वहाँ तो आकुलता प्रकट ही है । अपने आपके स्वरूप का परिचय न पाने से यह उपयोग किस ठिकाने ठीक बैठेगा? तो इसको पाये बिना ही तो संसारी जीव संसार में रुल रहे है और जो कुछ संसारचक्र है मायाजाल है वह सब अशुभ है, किंतु यह मोक्षसाधन आत्मा का यह स्वचतुष्टय का शुद्ध स्वरूप जहाँ अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतशक्ति और अनंत आनंद प्रकट हुआ है ऐसा वह निराकुल पद यह शुभ है, ठीक है, कल्याणकारी है, इसके अतिरिक्त जगत में जो कुछ भी है, कोई भी पदार्थ वह कैसे शुभ हो सकता, जो पापकर्म का बंध कराने का कारणभूत हो, जिसका आश्रय कर के जीव कर्म बंधन से युक्त हो जाय वह सब कुछ कैसे शुभ कहा जा सकता है? लोग द्वेषभरी बातों को अशुभ कहते है और रागभरी, मौज भरी बातों को शुभ कहते है । द्वेषभरी बातों में जितना कर्मबंधन होता है मौज भरे लगाव लपेट में उससे कम नहीं होते, अधिक ही संभव है, तो यह जगत कैसे शुभ कहा जा सकता है? यह चिंतवन सद्गृहस्थ सामायिक में कर रहा है ।
सामायिक में संसार समागम की अनित्यता व मोक्ष की ध्रुवता का चिंतन―यह जगत अनित्य है, जो कुछ यहाँ मिला है वह सब अनित्य है । आज जो समागम प्राप्त है, अनंतानंत काल संसार में परिभ्रमण कर करके बड़ी मुश्किल से प्राप्त हुआ है, अच्छे क्षेत्र में निवास जहाँ मद्यमांस की प्रवृत्ति नहीं, जहाँ धर्म के वातावरण में बात चलती है ऐसे उत्तम क्षेत्र में आज हम आप उत्पन्न हुए हैं, और इसमें भी उत्तम कुल प्राप्त हुआ है जिस कुल में उत्पन्न हुए पुराने धर्मात्मा रहे और बड़े प्राचीन पुरुष तपश्चरण करके मोक्ष को प्राप्त हुए, उस परंपरा में हम आप आज हैं । उत्तम कुल मिला है और फिर कुल भी मिले पर इंद्रियां परिपूर्ण न मिलें तो क्या कर लेंगे? वहाँ भी दुखी संक्लिष्ट रहेंगे । सो इंद्रियां भी हम आपको परिपूर्ण मिली है, साथ ही कुछ बुद्धि भी मिली है, इज्जत भी मिली है, योग्य साधर्मीजन, मित्रजन का समागम मिला है । कुटुंब भी योग्य है, सब चीजें योग्य प्राप्त हुई है मगर ये सब अनित्य है तब इस योग्य समागम का कुछ लाभ उठायें । वह लाभ मिलेगा धर्मपालन में । धर्म है अपने आत्मा में । आत्मस्वरूप का ज्ञान करके आत्मस्वरूप का मनन करके अपने आप में अपने आपको निरखा करें तो इन समागमों का पाना सार्थक है अन्यथा ये मिले हैं, मिटेंगे तो अवश्य ही । तब फिर जो मिटने वाले है उनसे अगर न मिटने वाले मोक्षपद का उपाय बना लें तो यह तो कितनी अच्छी बात है और फिर जब अनित्य है यह सारा समागम तो फिर रागमोह करने लायक यहाँ कुछ नहीं है । अपने आप आत्मा की पर्याय में प्राप्त भी चीज अनित्य है । देहादिक भी अनित्य हैं, किंतु मोक्ष जो हुआ वह नित्य है, सदा रहेगा यह मोक्ष । उस मोक्ष में शुद्ध परिणमन है, समान परिणमन है, विसमता नहीं है, ऐसी यह शुद्ध अवस्था मोक्ष यह नित्य है और यह संसार समागम जिसके बीच हम आप पड़े है यह सब अनित्य है, ऐसा संसार का स्वरूप और मोक्ष का स्वरूप सामायिक में बैठा हुआ सद्गृहस्थ चिंतन कर रहा है।
सामायिक में संसार की दुखरूपता व मोक्ष की परमानंदमयता का ध्यान―यह संसार दुःखरूप है । कहीं भी देखो किसी भी जगह हो, किसी भी भूमिका में जीव हो संसार में तो सर्वत्र कष्ट ही कष्ट है । लोग सब मुख से बोल भी देते हैं―क्या रखा है गृहस्थी में, क्या रखा है संसार में? सारे कष्ट ही कष्ट हैं, मगर ऐसा चिंतन करना वैराग्य के लिए नहीं बनता, किंतु दुख बढ़ाने के लिए बनता है, बस यह ही कमी है । अन्यथा संसार को दुःखरूप चिंतन करना यह वैराग्य वर्द्धक हो तो यह चीज लाभदायक है । यहाँ जो कुछ समागम प्राप्त हुए हैं कर्मविपाकवश उनमें यह जीव किसी को इष्ट मानता किसी को अनिष्ट मानता । जिसे इष्ट मानता है उसका वियोग होने पर यह कष्ट मानता है, जिसे अनिष्ट मानता है उसका संयोग होने पर यह जीव कष्ट मानता है । यह ही दुःख चल रहा है । और है दुःख सब व्यर्थ का । जिस किसी को माना कि यह मेरा है बस यह उसके विचार में अपने ज्ञानस्वरूप से चिगकर बाहर-बाहर डोलता है । उसका फल क्या है? कष्ट, शरीर का दुःख, मानसिक दुःख, किसी ने कुछ वचन बोल दिया तो उसके प्रति यह चिंतन नहीं चलता कि ये वचन भाषावर्गणा के परिणमन हैं, और यह आत्मा स्वरूप में तो परमात्मा है पर कर्मोदय ऐसा है कि कषायभाव चल रहा है और उसकी प्रेरणा में निमित्त नैमित्तिक योगवश भाषा वर्गणा के परमाणु परिणम रहे हैं, यह ध्यान में कहां रहेगा? और बाहर की वाणी सुनकर यह अपने में घटाता कि मेरे को कहा । अरे मैं तो अमूर्त ज्ञानमात्र हूँ, इसको तो दुनिया जानती नहीं । इस मुझ को कोई कह क्या सकेगा? जिस मूर्ति को देखकर दुनिया कुछ कहती है यह मैं नहीं हूँ, यह तो पौद्गलिक आकार है । देखो―यह जीव पद-पद पर अपने अज्ञान भाव से कष्ट को सहता है । कुछ धन कम हो गया अथवा कोई ऐसी विड़ंबना चल रही, कुटुंबीजन कोई नाराज हो रहे, सर्वत्र कष्ट ही कष्ट मानते है किंतु मोक्ष कष्ट से रहित है, क्योंकि वहाँ कष्ट के कारणभूत बाह्यपदार्थ रंच भी साथ नहीं है । केवल आत्मा ही आत्मा है । तो बुद्धिमानी इसमें है, बड़प्पन इसी में है कि मोक्ष की तैयारी बनायें, इस शरीर से मोह हटायें, यह ही एक अपने आत्मा को कल्याण का मार्ग है । यह सब चिंतन सद्गृहस्थ सामायिक में कर रहा है ।
सामायिक में स्वातिरिक्त समस्त पदार्थों की अनात्मता का चिंतन―यह सारा संसार अनात्मा है, इसमें मेरा कुछ संबंध नहीं, कोई अधिकार नहीं, अत्यंत भिन्न तत्त्व हैं । जगत में अनंत पदार्थ हैं जो कि 6 प्रकार के हैं―(1) जीव, (2) पुद्गल, (3) धर्म, (4) अधर्म, (5) आकाश और (6) काल । जीव अनंतानंत है । कितना अनंतानंत हैं कि अनादिकाल से अब तक उतने सिद्ध हुए हैं जिनकी गणना अनंत है और निगोद जीव को छोड़कर जितने संसार में जीव हैं―पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय, प्रत्येक वनस्पतिकाय, दोइंद्रिय, तीन इंद्रिय, चार इंद्रिय, पंचेंद्रिय, सब नारकी, देव, मनुष्य, पशुपक्षी आदिक इन सबकी जितनी गणना है उससे अनंतगुनी गणना है सिद्ध भगवान की । इतने सिद्ध हुए हैं और उन सिद्धों से अनंत गुणे हैं निगोदिया जीव । कितने हैं निगोदिया जीव? निगोद जीव का जो एक शरीर है, जिसके अनंत निगोदिया जीव मालिक होते हैं वह शरीर बहुत सूक्ष्म होता है । यों समझिये कि जैसे सूई की नोक बराबर जगह है तो उसमें उतने निगोदिया जीव हैं कि सिद्ध से अनंत गुने है । फिर कितने शरीर हैं, कितनी जीव संख्या है । तो जीवों की संख्या अनंत है । पुद्गल की संख्या जीवों से भी अनंतगुनी है । एक इस जीव के साथ जो शरीर लगा है उस ही में अनंत परमाणु हैं, तो शरीर के साथ शरीर के उम्मीदवार में भी अनंतगुणे परमाणु हैं । उससे अनंतगुने तैजस शरीर के परमाणु हैं, उससे अनंतगुणे कर्म के परमाणु है और उससे भी अनंतगुणे कर्म के उम्मीदवार परमाणु हैं, ऐसे तो प्रत्येक संसारी जीव के साथ लगे हैं, फिर उनमें तीन इंद्रिय आदिक हुए तो भाषावर्गणा के परमाणु भी अनंत प्रदेशी हैं और उनमें कोई सैनी जीव है तो उसके साथ मनोवर्गणा के भी अनंत परमाणु साथ है, इतने तो एक जीव के शरीर के साथ लग रहे हैं पर उससे बाकी और भी तो पुद्गल बचे हैं जिनको अभी ग्रहण नहीं किया, जिनको ग्रहण करके छोड़ दिया । ये जगत में जितने पदार्थ दिख रहे हैं तखत, दरी आदिक ये सब जीव के द्वारा छोड़े गए स्कंध हैं, फिर अग्राह्य भी हैं । मतलब यह है कि जीवों की संख्या से अनंत गुने अधिक पुद्गल है । एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य एक आकाशद्रव्य और असंख्यात कालद्रव्य है । इन अनंत पदार्थो में से मैं केवल एक स्व हूँ । इसके अतिरिक्त समस्त अनंते जीव सब पर हैं और पुद्गल आदिक तो पर है ही । ऐसे ये जगत में जितने भी समागम हैं वे सब पर हैं, अनात्मा हैं किंतु मोक्ष में केवल यह ही यही है । सर्वस्व आत्म स्वरूप ही है, ऐसा सामायिक में श्रावक ध्यान कर रहा है । यह श्रावक अपने आपके बारे में चिंतन कर रहा है कि ऐसे संसार में मैं क्यों दु:ख भोगूं ।
दुःखरूप संसार से छूटकर परमानंदमय मोक्ष के मार्ग में लगने की भव्यजीव की उमंग―देखिये, संसारी प्राणी की कितनी विडंबना चल रही है । अभी जी रहे हैं, कुछ वर्ष बाद गुजरेंगे, मरण हो जायगा, मरण के बाद फिर कोई दूसरा जीवन चलेगा । तो जैसे इस भव में इस शरीर के योग में बहुत-बहुत मोह रागद्वेष करके दुःख बनाये जा रहे है ऐसे ही आगे भी उस जीवन में बहुत-बहुत कष्ट करके मोह रागद्वेष बनाये जायेंगे । और यह परंपरा जैसी चली आ रही है वैसी ही आगे चलती जायगी, यदि अपने आपकी सुध न ली । अब सोचिये कि सारा जगजाल इस आत्मा के लिए व्यर्थ है । धर्मधारण करने के लिए महाभव्य जीव के उमंग तो चल रही है, पर इस जीव को रास्ता ऐसा नहीं मिल रहा है कि जिस रास्ते से एकदम इस धर्मसागर में स्नान करके संसार के संताप समाप्त कर दे । यह उपाय कहीं बाहर नहीं है । हम अपने आप में ही और इसके लिए दृढ़ता कर लें तो यह प्राप्त अभी भी कर सकते है । स्थिरता न रहेगी, आगे स्थिरता हो जायगी, मगर सच्चा निर्णय तो कर लें । सच्चा ज्ञान, सच्चा विश्वास यह हम आपको शरण बनेगा । जगत का कोई पदार्थ अपने को शरण न बनेगा । मानों कितना ही वैभव हो जाय, कितना ही परिकर जुड़ जाय, राजा हो गए, लोग जयजयकार कर रहे, बहुत-बहुत सत्कार कर रहे, यह सब क्या है? विडंबना है, मायामय है उसमें कुछ मिला है क्या आत्मा को । अरे सर्व विकारों से परे इस ज्ञानमात्र अंतस्तत्व का विचार तो करो । सामायिक में सद्गृहस्थ ऐसे ही अंतस्तत्व का चिंतन कर रहा है ।
ज्ञानी का अपने में अपने वैभव का दर्शन―यह श्रावक अपने को देख रहा कि मेरे में क्या-क्या रचना भरी हुई है । ज्ञानस्वरूप ऐसा महत्वशाली गुण है कि जिसके कारण यह आत्मा सर्वद्रव्यों में प्रधान माना गया है, मानो कोई जानने वाला पुरुष न हो तो इन पौद्गलिक ढेरों की भी सत्ता कौन जाने? फिर तो सब असत् जैसे हैं । होते हुए भी क्या है । देखिये इन सबको भी प्रकाश में लाता है कोई तो यह आत्मा । इन सबकी महत्ता महिमा बतायी है तो इस जीव ने । यह जीव सर्व द्रव्यों में प्रधान है । और वही केवल अकेला रह जाय, अपनी शुद्ध अवस्था को पाले तो इसके ज्ञान में तीन लोक तीन काल के सर्व पदार्थ युगपत् झलक जाते हैं । ऐसा ज्ञान वैभववान यह आत्मा है । इस ज्ञान में समस्त लोक ऐसा गड़ जाता है, जुड़ जाता है, चित्रित हो जाता हैं कि मानों परिपूर्ण ज्ञान के कारण इस आत्मा का सारा महत्व बढ़ गया है । तो देखिये आत्मा अखंड है, वहाँ कोई भेद नहीं है, वह तो अपनी सत्ता में जो कुछ है सो वही है एक सत् । जो भी पर्याय बनती है, परिणमन होता है वह एक होता है । प्रति समय एक-एक परिणमन होता और वह किस प्रकार का परिणमन होता उसको समझाने के लिए आचार्यों ने दया करके गुणभेद किया और उस गुणभेद के आधार पर पर्याय भेद को समझाया । पर्याय भेद के माध्यम से गुणों को समझाया, पर वहाँ जितने भी समझाये गए गुण हैं वे क्या अलग-अलग हैं? अरे एक गुण में दूसरे का प्रकाश है, एक में दूसरे का अंतर्भाव है । सर्व कुछ ज्ञानमात्र है ऐसा अपना अंत: स्वरूप यह सद्गृहस्थ सामायिक में निरख रहा है सहजज्ञान शक्तिरूप स्वभावमात्र ।
ज्ञानी द्वारा शुद्धशक्तिरूप में अपनी परख―भैया शुद्ध आत्मध्यानी पर्याय को भी नहीं निरख रहा अभेद ध्यान में किंतु शक्तिरूप यह ज्ञानी तक रहा है । वह शुद्ध पर्याय अभी है कहां, पर ज्ञान द्वारा वह अपनी शुद्ध शक्ति को निरख रहा है । मैं हूँ सहज ज्ञानस्वरूप, सहज दर्शन, सहज आनंद, सहज शक्तिमय, जिसका शुद्ध परिणमन हो तो अनंतज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत शक्ति और अनंत आनंद होता है । ऐसा अनंत वैभववान यह मैं आत्मा अपने स्वरूप में अपने को देखूँ । तो वहाँ व्यग्रता का क्या काम रहता है? ऐसा सहज अनंत चतुष्टयमय यह आत्मा कभी तो दृष्टि में आये, इसीलिए तो सामायिक बतायी गई है । प्रत्येक गृहस्थ को सामायिक करना ही चाहिए । मुनिराज के तो हर समय सामायिक है, वह चारित्र ही बन गया उनका, फिर भी चूँकि प्रमाद रहता है सो वे भी सामायिक करते हैं मगर मुख्य कर्त्तव्य है इस श्रावक का कि वह नियम से सामायिक करे और सामायिक में इस अविकार आत्मस्वरूप का चिंतन करे । सर्व कुछ भूलकर परम विश्राम के साथ इस उपयोग को लें जिसमें अपने आप सहज जो कुछ झलके सो झलके । बाह्य पदार्थ तो सहज झलकेंगे नहीं । बाह्य पदार्थ तो उपयोग से बनाकर झलका करते हैं, मगर आत्मा का जो सहज शुद्ध स्वरूप है वह सहज झलका करता है । उसमें जो अलौकिक आनंद प्राप्त होता है उसका अनुभव कर चुकने वाला गृहस्थ प्रतिदिन सामायिक में परम विश्राम लेता हुआ अलौकिक आनंद पाता है ।