वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 122
From जैनकोष
उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च नि: प्रतीकारे ।
धर्माय तनुविमोचनमाहु: सल्लेखनामार्या: ।।122।।
उपसर्ग और दुर्भिक्ष, जरा रोग में जो नि:प्रतिकार।
धर्म हेतु तनमोचन, सो कही सल्लेखना आर्य ।।
जीव का एकेंद्रियभवों में अनंतकाल का यापन―हम आपको आज का यह मनुष्यभव बहुत काल में दुर्लभता से मिला है । इस भव के अतिरिक्त हम आपकी बहुत पहले की स्थिति निगोदिया जीवों की थी । निगोद जीव वे कहलाते हैं जिनका बहुत सूक्ष्म शरीर है । एक श्वांस में 18 बार जन्म मरण करते है और वह भी श्वांस कौनसी? नाड़ी के एक बार उचकने में जितना समय लगता है उतने समय का श्वांस । उतनी ही देर में 18 बार मरण हो गया । उसी का नाम जन्म है, और सिर्फ एक स्पर्शनइंद्रिय है । कितना सा ज्ञान, कितना कठोर दुःख । एक दृष्टि से देखें तो नरकों से कठिन दुख है निगोद जीवों का । किसी को कोई पढ़ा लिखा व्यक्ति गाली देता है तो वह यों कहता है कि तू नरक निगोद जायगा । तो नरक जाने की भी गाली, निगोद जाने की भी गाली । अब इन दोनों में बड़ा अंतर है । नारकी जीव तो संज्ञी पंचेंद्रिय होते, कितने ही नारकी सम्यक्त्व उत्पन्न कर लेते, सम्यग्दृष्टि होते, पर निगोद जीवों की तो बड़ी दुर्दशा है । यों समझिये जैसे कि अचेत से हों । तो ऐसी स्थिति में हम आपने अनंतकाल व्यतीत किया । वहाँ से सुयोग से निकले तो पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय वायुकाय, प्रत्येक वनस्पति इन स्थावरों में गए । ये निगोद भी एकेंद्रिय हैं, किंतु साधारण वनस्पति है सो वहाँ भी बड़ी दुर्दशायें हैं । पृथ्वी हुए तो किसी ने कूटा, खोदा, पकाया । लोहा, सोना, चांदी आदिक निकालने के लिए पृथ्वी को तो भट्टियों में पकाया जाता है । जल हुए तो गरम किया, खौलाया, अनेक प्रकार के कष्ट हम आपने भोगे, पर आज कुछ पुण्योदय है, भोग सामग्री मिली है तो पूर्वभव के दुःखों का स्मरण नहीं रखते । अग्नि हुए तो उस पर पानी डाला, उसे बंद हवा में कर दिया, वहाँ भी दुःख । वायु हुए तो उसे रबड़ में रोक दिया गया, या पंखे द्वारा बिलोया गया, वहाँ भी कठिन दुःख । वनस्पति के दुख तो देखते ही हैं । फल फूल छेदना भेदना पकाना, तो ऐसे कठिन दुःख पाये ।
त्रस जीवों की दशा में भी कष्टों की भरमार―एकेंद्रिय से निकले तो दो इंद्रिय हुए, तो वहाँ इतनी प्रगति हुई कि जिह्वा मिल गई । मगर उस जिह्वा का करना क्या है? थोड़ा मिट्टी वगैरह खा लेते । केंचुवा, जोक, शंख, कौड़ी, सीप ऐसे दो इंद्रिय जीव हुए तो वहाँ भी कठिन दु:ख। मछली मारने वाले लोग डोरी में लोहे के पास केंचुवा चिपका देते हैं और उसे पानी में डाल देते हैं मछली उस केंचुवे को खाती है । कितने ही हिंसक क्रूर लोग उन केंचुवों को पीस डालते है तो कितने कठिन दुःख पाये । वहाँ से कुछ प्रगति हुई तो तीन इंद्रिय जीव बने । एक नाक और मिल गई, जैसे कि चींटा, चींटी, खटमल, बिच्छू, कानखजूरा आदिक जिनके चार से अधिक पैर होते हैं, प्राय: ऐसे जीव तीन इंद्रिय होते हैं, तो वहाँ भी बड़े दुःख । जो उड़ते नहीं और चार से अधिक पैर हैं, ऐसे जीव मिलेंगे तीनइंद्रिय में । वहाँ भी कूटा मारा । बिच्छुवों को तो लोग कुचल देते हैं । कुछ और प्रगति हुई तो चार इंद्रिय जीव हुए, इसमें आंखें और मिल गईं, सब कुछ देखने लगे बस इतनी भर प्रगति हुई, पर मन के बिना सब बेकार है । उन्हें भी लोग जला देते हैं, पीस देते हैं, वहाँ भी बड़े दुःख है । वहाँ से कुछ प्रगति हुई तो असंज्ञीपंचेंद्रिय हुए और प्रगति हुई तो संज्ञी पंचेंद्रिय हुए, पशु पक्षी हुए । अब पशुपक्षियों की भी दुर्दशायें देख लो, पशु कितना जुतते पिटते बोझा ढोते, और जब किसी काम के नहीं रहते तो कसायियों को दे दिये जाते । क्या जिंदगी है उनकी? भेड़, बकरी, मुर्गा, मुर्गी आदिक की दशायें देख लो कितना इनकी निर्मम हत्यायें की जा रही हैं । ये सब दुर्दशायें हम आप जीवों की भी हुई।
वर्तमान सुयोग से हितप्राप्ति का उपाय बनाने का कर्तव्य―उक्त सब दशाओं से पार होकर आज हम आप मनुष्य हुए हैं, सो मनुष्य होकर केवल एक ही काम है कि धर्मबुद्धि से रहें, मंद कषाय से रहें, किसी का बुरा न विचारें, किसी से ईर्ष्या न करें, चोरी न करें, सबके प्रति विनयभाव से रहें । जैसे चार भावनायें कही हैं―सब जीवों में मित्रता रखना, गुणियों को देखकर उनमें प्रमोद रखना, दुःखियों को देखकर दया करना, उद्दंडता का व्यवहार करने वालों के प्रति मध्यस्थभाव रखना । और विशेष प्रगति के लिए वस्तुस्वरूप की जानकारी करना, और उसका प्रयोग करें अपने आपपर । प्रत्येक पदार्थ स्वतंत्र सत् हैं । उनका उन ही में अपनी गुण पर्याय है । एक की कुछ भी चीज दूसरे में प्रवेश नहीं करती । फिर किसी दूसरे से मेरे में क्या सुख और क्यों दुख? जितने सुख दु:ख होते है वे हमारे ही उपयोग के उस तरह के परिणमन से होते हैं । दूसरा कोई मेरा न विरोधी है और न बंधु है । मैं सब कुछ अपना ही जिम्मेदार हूँ, जैसा करता हूँ, वैसा भोगता हूँ । घटाइये अपने आपपर । और वास्तव में अमूर्त ज्ञानमात्र हूँ । यह शरीर, ये उपाधियां, ये कर्मविकार मेरे से अत्यंत पृथक हैं, मेरे स्वरूप नहीं है, मैं तो अमूर्त हूँ, ज्ञानमात्र हूँ, मेरा यहाँ कौन पहिचानने वाला है । किसमें राग करना किसमें द्वेष करना, किसका बुरा मानना । मैं स्वयं अपने आप में परिपूर्ण हूँ । मेरा सब कुछ मेरे में है, मेरे से बाहर नहीं, बाहर का मेरे में कुछ नहीं । निर्णय बनाकर मनन करके कभी सम्यक्त्वलाभ लेना, सम्यक्त्व लाभ लेकर चारित्र में बढ़ना ये मनुष्यजन्म के कर्तव्य है ।
विनश्वर देह पाकर तप संयम के आचरणों से नरभव सफल करने का कर्तव्य―लोग प्राय: प्रमाद में या विषयों की आसक्ति में व्रत आदिक से उपेक्षा रखते हैं, पर यह तो जानें कि इस शरीर का आखिर होगा क्या जिस शरीर से प्रेम रखा जा रहा है । जिसको जरा भी कष्ट नहीं होने देते । कहते कि रात्रि को न खायेंगे तो कैसे काम चलेगा, सर्विस करते हैं, देर में आते हैं, रात को खाना पड़ता है, अरे भाई यह तो एक खोटे विचार वाली बात है कि खाना पड़ता है । आखिर एक बार तो दिन में भोजन मिल ही जाता है, क्या एक बार से प्राण न टिकेंगे? न मिला अनेक बार भोजन तो क्या हर्ज? आखिर कितनी ही सेवा कर लो इस शरीर की फिर भी अंत में क्या होगा? सो तो विचारो । जिस देह की इतनी सेवा करते वह जीर्ण शीर्ण होगा, नष्ट होगा, या तो मरण के बाद इसे जला दिया जायगा या फिर किसी नदी में बहा दिया जायगा, कौवे चोंट जायेंगे । क्यों इस देह पर इतनी प्रीति की जा रही है? जिस प्रीति के कारण छोटे छोटे व्रत भी नहीं ग्रहण कर पाते । जरा सा भी कष्ट नहीं सह पाते । अरे उन व्रतों में कष्ट भी कुछ नहीं है बल्कि व्रतों में आनंद रहता है क्योंकि अनेक बाह्य पदार्थों का त्याग होने से उपयोग अपने आत्मा की ओर आता है और एक अलौकिक आनंद जगता है । तो जो देह मिटने वाला है उससे तो काम निकाल लें आत्मा का । व्रत तप में इसे जुटायें यह तो है बुद्धिमानी और विषयों के प्रेम में आकर इस देह को आराम में रखना । मौज में रखना यह है अविवेक ।
शक्ति न छिपाकर व्रतादि धारण करने का अनुरोध―भैया, कर्तव्य यह है कि सम्यग्दर्शन प्राप्त करें और अपनी वर्तमान स्थिति को न छिपाकर व्रत संयम में प्रवेश करें । एक शब्द आता है शक्ति के अनुसार त्याग करना । पर लोग इससे उल्टा अर्थ लगाते, शक्ति के अनुसार त्याग करना याने शक्ति नहीं है तो त्याग ही न करना अर्थात् शक्ति से कम त्याग करना, अधिक न करना, शक्ति से बाहर न करना । यह तो शक्ति अनुसार त्याग बताया है । अब पूछो तो सही अपने से कि क्या शक्ति आप में है या नहीं, जरा-जरासी बातों का त्याग करनेका? शक्ति है तभी तो कोई झंझट सामने खड़ा हो जाय तो कहो दो तीन दिन भी भूखे रहलें । या कोई बड़ा बोझा उठाना पड़ जाय तो उसे भी उठा लें । वैसे बड़ी सुकुमालता बगारते है । तो शक्ति तो है पर जरा-जरा से व्रत तप करने की शक्ति नहीं है तो यह सोचिये कि आखिर इस मर मिटे देह का जो कि किसी कार्य में न आयगा उस देह की प्रीति के पीछे आत्मा को उत्साहहीन रखना यह कोई विवेक नहीं है । जैन शासन पाने के मायने तो है उसका अनुयायी बनना और शक्ति न छिपाकर कार्य करना । त्याग में तपश्चरण में ज्ञान में यह कार्य करना उचित है सो क्या करना चाहिए । उसके लिए आचार्य महाराज ने बड़े क्रम से सारी बातें बताया है । पहली दूसरी तीसरी आदि प्रतिमावों का आचरण करना अपनी शक्ति अनुसार आगे बढ़ते जाना । इस ढंग से वर्णन है ।
देवभक्ति, सत्संग, व्यसन-त्याग आदि प्रक्रियावों की प्रारंभ से ही आवश्यकता―जो लोग यह सोच बैठते है कि आजकल जमाना और किस्म का है, व्रत तप करने का जमाना नहीं है तो उनकी यह बात गलत है । धर्मसाधना का कैसे जमाना नहीं है? क्या इसका जमाना है कि मद्य, मांस, मधु वगैरह अभक्ष्य पदार्थों का सेवन किया जाय? अरे जमाना इसमें आपका क्या कर रहा है । अपना पक्का चित्त बनायें । रात्रि भोजन न करें । जल छानकर पिये, प्रतिदिन मंदिर आयें, ऐसा कार्य करने में तो कुछ कष्ट ही नहीं इसमें कोई जमाने की रोक नहीं । पर छोटी छोटी बातों के लिए आलस्य होना, प्रमाद होना यह तो खेद की बात है । कोई एक जमाना था जबकि बिना देवदर्शन किए कोई एक भी दिन न रहता था । और यह बात देखना हो तो बुंदेलखंड के देहातों में आज भी देख सकते हैं । करीब-करीब वही प्रथा आज भी देखने को मिलती है । पहले तो ऐसा होता था कि यदि किसी दिन मानों दर्शन न कर सके तो उसका बड़ा खेद मानते थे, पर आज ऐसा हो गया कि उसकी ओर लोगों का विशेष ध्यान नहीं है । मंदिर आकर देवदर्शन करने से लाभ कितने है सो तो विचारो । जो बालक रोज मंदिर आते हैं, कुछ धर्मध्यान करते हैं उनके आचार विचार पर भी बड़ा प्रभाव पड़ता है । उद्दंड नहीं हो पाते, विनयशील रहते, गुरुजनों का समागम भी मिलता रहता है । जो घर व्यसनों से बचा रहता वह स्वर्ग समान बन जाता क्योंकि जहाँ शांति का वातावरण हो, जहाँ एक दूसरे के प्रति विनय का व्यवहार हो वह घर उत्तम है । और जो लोग मंदिर नहीं आते 8-10 बजे दिन तक घर में पड़े रहते हैं अथवा सोते रहते हैं उनमें स्वच्छंदता बढ़ जाने से उनके सभी कार्यों में बाधा आती है । मंदिर का आना लौकिक कामों के लिए भी ताजा बना देता है और परमार्थ काम के लिए भी तैयार बना देता है ।
रत्नत्रयधर्म की आराधना का कर्तव्य―भैया, ऐसा दुर्लभ मानवजीवन पाया तो कर्तव्य क्या है इस बात पर बहुत ध्यान देना और कर्तव्य का पालन करना । कर्तव्य यह है कि सम्यग्दर्शन प्राप्त करें और अपनी शक्ति अनुसार चारित्र में लगें । जीवन की कई छोटी-छोटी बातें जिन में न आजीविका का सहयोग है, न धर्म का सहयोग है, बल्कि आजीविका में भी फर्क आये और धर्म में भी फर्क आये ऐसे कितने ही फालतू काम करने के लिए लोगों की उमंग होती हैं, और उनमें उनको कषाय जगती हैं, ये बातें सब उसे धर्म से दूर रखती हैं । जितना बने उतना दूसरों के उपकार के काम आये, यदि काम न आयें तो सब जीवों के सुखी होने की भावना रखें । स्वप्न में भी किसी जीव के विरुद्ध चित्त में बात न आये । कषाय या विरोध रखने से आखिर नुकसान किसका है? खुद का । क्योंकि इस जीव के साथ कार्माण वर्गणायें विस्रसोपचय के रूप में पड़ी रहती है । जो कर्म बंधे हुए पड़े है वे तो बंधे हुए है ही पर उनसे अनंतगुनी कार्माण वर्गणायें विस्रसोपचय के रूप में पड़ी रहती हैं । जो कर्म बंधे हुए पड़े हैं वे तो बंधे हुए हैं ही पर उनसे अनंतगुनी कार्माण वर्गणा के विस्रसोपचय उम्मीदवार कर्म पड़े हुए है । तो जहाँ जीव ने जैसा कषाय किया, जैसा भाव किया उसही समय वे कर्मरूप बंध रहे । थोड़ीसी गल्ती में, थोड़ीसी स्वच्छंदता में कर्म बंध तो गए मगर उनके उदयकाल में कितना कष्ट भोगना पड़ेगा । वह बड़ी असह्य बात होगी । इससे यह जानकर कि मेरे जीव के साथ विस्रसोपचय की कार्माणवर्गणायें लगी है । जहाँ ही मेरे से गलती हुई, विषय कषाय के भाव रहे कि वे कर्मरूप बंध जायेंगे, फिर मुश्किल पड़ेगी । तो इस नरजीवन में करने योग्य काम है अभक्ष्य से दूर रहना, किसी का बुरा न विचारना, गुणियों के गुणों में प्रेम और हर्षभाव बढ़ाना । जो अच्छे काम करेंगे तो भविष्य अच्छा रहेगा । जिनकी आज परिस्थिति खराब हैं उनका वह पूर्वजन्म के पाप का फल है कितने ही दरिद्र है । कितने ही अनेक कारणों से कष्ट में पड़े हैं जिनको देखकर दया उत्पन्न होती वह किसका फल है? धर्मभाव में न रहे, अधर्म में रहे, विषयकषायों की उमंग में रहे, दूसरों का दिल दुःखाया, धर्मकार्यों में विघ्न डाला, मुनियों पर उपद्रव किया । अनेक कार्य ऐसे खोटे बने जिनका फल है कि आज यह जीव दुर्दशा में पड़ा हुआ है । जीवन में यह ही कर्तव्य है कि हम अपने सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र, सम्यग्ज्ञान को सम्हालें ।
अपने भविष्य की अपने आप पर जिम्मेदारी होने से सद्भावना का प्रभाव―जिस बात को हम प्रभु के सामने कह सकते जनता के सामने कह सकते वह बात भली हुआ करती है और बुरी बात न भगवान से कह सकते और न जनता के बीच कह सकते । तो जो बात कहने में एक शोभा होती है या कुछ आनंद जगता है उस काम के करने में जो आनंद होता उसका क्या कहना? अब इस सभा के बीच किसी को व्याख्यान देने के लिए खड़ा कर दिया जाय तो क्या वह यह कह सकेगा कि जितना दूसरों की बुराई करते बने उतना करना चाहिए । उसमें मौज आता है ऐसा तो कोई नहीं कह सकता । तो इससे समझना चाहिए कि जो बात नहीं कही जा सकती वह अत्यंत बुरी है और अपने कष्ट के लिए है । एक यह निर्णय बनावो कि जो बुरा करेगा, जो दूसरों से ईर्ष्या करेगा, उनके कार्यों में विघ्न डालेगा, सतायेगा, उसका फल कौन भोगने आयगा? जो अन्याय से धन कमायगा, जो दूसरों का दिल दुखायगा उसका फल दूसरा कौन भोगने आयगा? कोई दूसरा न भोगने आयगा, जो आपके बड़े हितैषी हैं, घर के ही लोग हैं, जिन पर आपको बड़ा विश्वास है । लड़के, स्त्री, भाई, मित्रजन कोई भी पाप के बंधते समय या कर्मों के फैलाव में हिस्सा लेने वाले नहीं हैं, हो ही नहीं सकते । वस्तु का स्वरूप ही नहीं ऐसा कि आपकी परिणति को कोई दूसरा भोग सके जब ऐसा एक स्पष्ट न्याय है तो क्यों अपने को विपत्तियों के कुवें में ढकेला जाय?
देवभक्ति, स्वाध्याय और सत्संग के बिना उन्नति की अपात्रता―भैया, अच्छे बनना, ज्ञान पाना, कषाय मिटाना, प्रभु भक्ति से यह ही तो फायदा है । भगवान की भक्ति करें गुणस्मरण करें, दर्शन करें और अपने आपके विचार में आचरण में जो चले आये हैं शुरु से, वासना से उनमें अंतर न डालें तो यह क्या कहा जाय? या यों कहो कि हम प्रभु को बहकाते हैं जो रोज-रोज प्रभु के सम्मुख आकर कहते है कि आतम के अहित विषय कषाय, इनमें मेरी परिणति न जाय । और घर जाकर कहीं जाकर मंदिर से निकलकर वही कषाय, वही आसक्ति, वही विरोध, वही दुर्भावना रहती है तो क्या फल पाया उसने? धर्म समागम पाने का लाभ क्या पाया? कहते तो हैं कि मुझे मोक्ष चाहिए, पर ये मोक्ष का रास्ता पाने के लक्षण हैं क्या? जैसे बहुत प्रारंभ में विषयकषाय के भाव थे वैसे ही 30-40 वर्ष के बाद भी धर्म का नाम लेकर भी वही का वही रहे तो इस पर कुछ अपने पर तरस आना चाहिए । क्यों नहीं उन्नति हुई? उसके मूल दो कारण हैं? एक तो विधि से स्वाध्याय नहीं हुआ और दूसरे सत्संग नहीं मिला । ये दो अभाव मनुष्य के ज्यों के त्यों पतन की स्थिति में बने रहने के कारण हैं । भले ही स्वाध्याय का नाम लेकर स्वाध्याय किया, पर स्वाध्याय की विधि यह है कि जो भी दो चार लाइनें पढ़ें उनका जो अर्थ है उसे अपने आप पर घटित करें । सभी विषय अपने आप पर घटित किए जा सकते । यदि अपने आप पर घटित करते हुए स्वाध्याय किया गया होता तो अवश्य ही हमारे बर्ताव में अंतर आ जाता । दूसरी बात-सत्संग नहीं किया । जो पुरुष विरक्त हुए आत्मा की धुन वाले हुए कल्याण के अभिलाषी हुए जैन शासन के अनुसार प्रवृत्ति रखने वाले हुए उनका संग अधिक करना।
विनय व गुणानुराग से धर्मलाभ की पात्रता―भैया । सत्संग व धर्म जागरण बनता है भक्ति अनुराग और सेवा की बुद्धि में । कहीं जैसे अन्य जगह जबरदस्ती से काम बना लेते, जैसे गाय दूध नहीं देती तो उसके दोनों पैर रस्सी से बांध देते, एक आदमी डंडा लेकर खड़ा हो जाता और एक आदमी दूध निकालने लगता तो गाय डर के मारे दूध दे देती, बाद में उसके पैरों की रस्सी खोल देते और ऊपर से एक डंडा भी गाय के मारते, तो जैसे जबरदस्ती से वहाँ दूध निकाल लेते इस तरह की जबरदस्ती यहाँ न चलेगी । धर्म की बात पाने के लिए बड़ी भक्ति चाहिए, विनय चाहिए कृतज्ञता चाहिए । इन गुणों से अगर हृदय पात्र बनें तो वहाँ धर्म की बात निकल पायेगी वहीं किसी जगह से भगवान की पूजा से धर्म निकलता होता तब तो खूब भगवान की पूजा करते और वहाँ से धर्म निकालते, लेकिन जबरदस्ती यों धर्म नहीं मिलता । यदि प्रतीति है, गुणानुराग है प्रभु के गुणों का स्मरण करके और प्रभु के लिए, मंदिर के लिए, प्रभु की भक्ति के लिए, प्रभु की वाणी के लिए, प्रभु के उपदेश प्रचार के लिए आपका सर्वस्व भी लग रहा, यदि इतनी हिम्मत है इतनी तैयारी है तो वह प्रभु के गुणस्मरण रूप सत्संग से, धर्म पाल लेता है । धर्म का मिलना किसी स्थान से जबरदस्ती नहीं होता किंतु अपने आपकी तैयारी से होता है । तो एक ही कुंजी यह जानकर कि जैसा मैं करूँगा वैसा ही भरूंगा, मेरा मैं ही जिम्मेदार हूँ । हमेशा अच्छे कार्य करें, बुरे कार्य न करें । अच्छे के लिए हां-हां और बुरे के लिए ना-ना, ऐसा एक दृढ़ संकल्प बने तो हम अपने इस दुर्लभ मानवजीवन को सफल कर सकते है।
श्रावक का व्रतपालन सहित जीवनयापन पूर्वक अंत में समाधिमरण के कर्तव्य का निर्णय―इस भव्य श्रावक ने अपने जीवन में सार तत्त्वमात्र अपने चैतन्यस्वरूप में अपने आपका अनुभव करना माना है एक सहज चित्स्वरूप के अनुभव के सिवाय शेष समस्त, कार्य मेरे लिए प्रयोजनवान नहीं हैं, यह जिसके चित्त में भली भांति निर्णीत है ऐसे इस श्रावक ने अपने जीवन को व्रती रूप में बिताया और अंत समय में इसका निर्णय है कि मैंने जीवन में सदाचार पाला, व्रत धारण किया । आत्मतत्त्व की भावना की, यदि अंत समय में परिणाम विचलित हुए तो मेरा किया कराया यह सब व्यर्थ रहेगा । यद्यपि पूरा व्यर्थ नहीं रहता फिर भी आगे धर्मपरंपरा, मोक्षमार्ग परंपरा तो न बनेगी इस कारण श्रावक के मन में यह दृढ़ निर्णय है कि अंत समय में मैं समाधिभाव ही रखूँगा, जिसे कहते हैं समाधिमरण । देखिये―दोनों बातें आवश्यक हैं, कोई सोचे कि मरण समय में समता परिणाम रख लूँगा, जीवन में क्यों व्रतादि का कुछ कष्ट करूं, तो ऐसा जिसके प्रमाद अभी से है उससे ऐसा नहीं हो सकता कि मरण समय में अपने परिणाम अच्छे रख सकेंगे । जैसे कितने ही लोग ऐसा विचार करते हुए पाये जाते हैं कि उम्र तो अभी बहुत है, धर्म पालन तो वृद्धावस्था में किया जायगा । अभी जवानी है तो अनेक प्रकार के आराम, सुख ये सब भोगने चाहिए, और धर्मपालन तो वृद्धावस्था में कर लिया जायगा, ऐसा जिसके अभी से प्रमाद है वह न जीवन में कर पाता है न वृद्धावस्था में करता है । तो ऐसे ही कोई सोचे कि मरते समय अच्छे भाव रहेंगे तो आगे की गति भली होगी सो मरते समय परिणाम ठीक कर लिए जायेंगे, ऐसा जिसका अभी से भाव है कि पहले से क्यों व्रतादिक धारण करना? भले प्रकार धर्मध्यान करना यह तो उसी समय कर लिया जायगा वह नहीं कर पाता ।
आवीचिमरण के निरंतर अवसरों पर निरंतर समता समाधिभाव का कर्तव्य―देखिये मरण दो प्रकार का होता है―एक आवीचिका मरण और एक तद्भव मरण । तद्भव मन तो अंत में मर गए, शरीर से अलग हो गए उसका नाम है उद्भव मरण । और आवीचि मरण इनके प्रति सेकेंड चल रहा है, प्रति समय चल रहा है । जैसे कहा करते है ना कि जो आयु गई वह वापिस नहीं आती, तो ऐसे ही समझिये कि आयुकर्म के जितने परमाणु बांधे थे निषेक वर्गणायें, सो जिनका उदय आता है वे निकल गए, समय निकल गया, उस समय की आयु का मरण तो हो गया, प्रति समय हम मर रहे है । आवीचि मरण की दृष्टि से प्रति समय हमारी आयु जा रही है । तो कर्तव्य यह है कि हम प्रति समय समाधि का भाव रखें । समाधिमरण में मुख्य काम रागद्वेष न करने का है और आत्मा के सहजस्वरूप की दृष्टि रखने का है । चूँकि बुढ़ापे में या कठिन रोग में जहाँ कि यह निश्चित सा है कि मरणकाल आ गया है उस काल में फिर आहार वगैरह की वांछा या इनका आरंभ या इनमें दिल लगाना यह बाधक है समाधि का इस कारण इनका त्याग किया जाता है, और समाधि मरण में आहार पानी का त्याग करा देना इसकी मुख्यता नहीं है । ये सहायक हैं, मुख्यता है परिणामों की निर्मलता की । तो चूंकि आवीचि मरण में हमारा पूरा मरण नहीं हो रहा, इस भव से हम नहीं जा रहे, इस कारण आहार आदिक के त्याग की तो आवश्यकता नहीं है इस रोज के मरण में, प्रति समय के मरण में, लेकिन विषयों में आसक्ति न रहे, गुजारे के लिए ही इनका उपयोग है, ऐसी दृष्टि रहे और रागद्वेष मोहभाव न लायें । रागद्वेष तो आयगा जब जीवन है और घर है, पर मोह रंच न आये और रागद्वेष में हीनता रहे, ऐसा प्रयास करें तो आवीचिमरण के लिए समाधि ही समझियेगा ।
सत्संग धर्माचरण द्वारा जीवन को शांति सुवासित रखने का कर्तव्य―इस लोक में जो मनुष्य मनुष्य है ये अन्य जीवों की भांति प्रकृत्या विषयकषाय के वश है और फिर मिले विषयकषाय वाले पुरुषों का संग तो इसके विषय कषायों में वृद्धि बनती है । और यह असत्संग जीवन को बरबाद कर देता है । अच्छा यही है कि जिस प्रकार मेरे विषयों का अनुराग कम हो, कषायभाव कम हो और ऐसे ही संतजनों का, सत्पुरुषों का सत्संग रहे अधिक जो विषयकषायों को पसंद नहीं करते, धर्म के मार्ग में चलने के इच्छुक है तो उनके विषय और कषाय दोनों पर विजय बन सकती है । धर्म गोष्ठी के मायने और है क्या? अपने ही नगर में, अपने ही मोहल्ले में हर जगह दो चार श्रावक ज्ञानी आत्मकल्याणी रहते ही है । अपनी कषाय मंद करके धर्मात्माजनों की गोष्ठी रखना, अर्थात् मिलकर धर्मचर्चा करें । आत्मकल्याण बने उस प्रकार की प्रेरणा बने तो यह एक अलौकिक काम है । पहले समय में तो रोजगार की सीमा रखते थे विवेकी पुरुष । जिसके अनेक दृष्टांत आये है । एक सीमा रख लेते थे कि इतने की बिक्री हो जाने पर दुकान बंद कर देना और मंदिर में पहुंचकर धर्मचर्चा करना। अब तो किसी का यह उद्देश्य ही न रहा कि ऐसा करना हमारा कर्तव्य है, और अधिक समय तत्त्ववार्ता में जाय, पुराण पुरुषों की कथा में जाय, ऐसा जीवन व्यतीत हो तो उससे लाभ है । और गप्पसप्प में समय जाना, यहाँ वहाँ की बुराइयों में समय जाना, यह तो अपने लिए एक घातक कदम है । जीवन में यह ध्यान रहे कि मेरे उपयोग में किसी के दोष का आकार न आवे, आवे तो गुणो का आकार आवे । दूसरे के गुणों की चर्चा से, गुणों के ध्यान से गुणों का आकार आयगा, दूसरे के दोष की चर्चा, दोष का ध्यान रखें तो दोषों का आकार आयगा । भला श्रावक यह चाहता है कि मेरी उपयोगभूमि में दोषों का आकार ही न बने । तो आवीचिमरण के समय यह श्रावक अपने आपको सदैव समाधानरूप रखता है ।
निष्प्रतीकार उपसर्ग के आने पर सल्लेखना की अंगीकारता―जिसने अपना जीवन सहज परमात्मतत्व की बड़ी दृढ़ भावना में व्यतीत किया वह श्रावक अब कठिन परिस्थितियों में जिन में कि मरण संभव है इसकी तैयारी कर रहा कि मेरे परिणामों में अब रागद्वेष का प्रसंग रंच मत आवो । वे कौन-कौन सी स्थितियां हैं जिन स्थितियों में समाधिमरण किया जाता है । जिनका कोई उपाय नहीं है दूर करने का ऐसे उपसर्ग आ जाय तो समाधिमरण बताया है । ऐसी परिस्थितियां यहाँ कही जायेंगी उन सबमें निष्प्रतीकार यह विशेषण लगेगा, अर्थात् जिसका कोई प्रतीकार न हो सके, उपाय न चल स के ऐसी कठिन परिस्थितियां आयें तो समाधिमरण स्वीकार करना चाहिए, जिनमें पहली बात कही जा रही है कि कठिन उपसर्ग कोई आये, जिसका कोई उपाय ही नहीं है, जैसे जंगल में किसी शेर ने आक्रमण कर दिया, मुख से खाया, पंजों से नोचा, विदारण कर दिया उस जगह में क्या प्रतीकार । किसी शिकारी ने बाण मार दिया तो अनेक उपद्रव होते ही हैं, निष्प्रतीकार है वह उपसर्ग । जो उपसर्ग कठिन है, जिसका दूर होना संभव नहीं तो ऐसे उपसर्ग के समय समाधिमरण करना चाहिए । श्रावक पर भी कठिन उपसर्ग संभव है । तो पहली परिस्थिति है यह कि निष्प्रतीकार उपसर्ग आया है सर्व का परित्याग करके, शरीर की भी सुध छोड़कर एकमात्र चित्स्वरूप की दृष्टि रहे । कितना पवित्र कार्य है यह कि जो इस शरीर से विदा हो रहा हो वह अपने इस पवित्र सहज ज्ञानानंदस्वरूप अंतस्तत्व को दृष्टि में ले । उस ही का अनुभव करें कि मैं यह हूँ और इस प्रकार से शरीर से विदा हो रहा है तो वह आदर सहित पूज्य है, पवित्र है, यह कार्य चाहिए, पर मरणसमय में ऐसा परिणाम रह सके उसके लिए जीवनभर तैयारी चाहिए ।
अपने में असद्भाव न होने देने की चेतावनी―भैया, जीवन क्यों बुरा बिताया जाय? जो मिला है वह सब विनाशीक है । यह शरीर भी विनाशीक है, और यदि दूसरे का अपकार किया जाय, बुराई की जाय, कष्ट पहुंचाया जाय तो ऐसे तन के पाने को धिक्कार है । उसका परिणाम है कि आगे भी जन्ममरण चलेंगे और खोटा शरीर मिलेगा । सड़कों पर जब देखते हैं जैसे कि आज ही सुबह मैंने देखा कि नीचे दो बालक दो गधों को लिए जा रहे थे, वे एक जगह कूड़े पर बैठ गए, गधे तो उस कूड़े में अपना मुख देकर कुछ खा रहे थे और वे दोनों बालक कूड़े को छितर बितर करके कुछ खोज रहे थे, ऐसी जिंदगी मिलती है खोटे भाव वाले पुरुषों को । आज एक अच्छी मनुष्यपर्याय में हैं, कहीं मान लो कि ऐसी दुर्दशा में पहुंचे तो यह कार्य करना पड़ता है । गधे ही बन गए तो कूड़े में, गंदगी में, खराब चीज में मुख देते रहना पड़ेगा । कोई यह ठेका तो नहीं है कि जो आज मनुष्य है वह मनुष्य ही रहेगा या मनुष्य से बढ़कर ही चलेगा । जैसे कारनामे होंगे वैसा आगे फल भोगना होगा । तो जगत के जीवों को देखकर कुछ अपने आप पर तरस तो करना चाहिए कि मुझे ऐसा ही बने रहना पसंद है या संसार के सारे झंझटों से निवृत्त होना सही है? संसार के जीवों में किसी भी जीव के प्रति अपने चित्त में बुराई का अंश न आये, अहित का अंश मत आये । किसी के द्वारा मेरे को कष्ट भी पहुंचे तो भी उसके एवज में इस जीव को यों कष्ट पहुंच जाय ऐसी भाव कभी न आना चाहिए । कोई कष्ट आया है तो ज्ञानबल से कष्ट को कुछ दूर कर लीजिए । सोचिये अपने ही असाता का उदय है जिससे कि अन्य लोग बाह्य कारण बन रहे हैं । इसमें अपराध मेरा है, दूसरे का अपराध नहीं है । वह अपराध आज का तो नहीं है मगर पूर्व कर्म ऐसे ही बांधे थे जिस बद्ध कर्म के उदय में आज दुख का सामना करना पड़ रहा है, ऐसा सोचकर दूसरे पर क्षमाभाव ही रखना । वह बात कठिन नहीं है । हां जिसके क्रोध की प्रकृति है उसको लगेगा कि यहाँ गप्प मारी जा रही है, पर यह गप्प की बात नहीं है यह की जा सकने वाली बात है । ज्ञानप्रकाश में यह सब बात संभव होती है ।
निष्प्रतीकार उपसर्ग आने पर धर्माराधनापूर्वक सल्लेखना का धारण―जिसने अपना जीवन सद्भावों में व्यतीत किया वह पुरुष तो यहाँ भी आदर्श है, पूज्य है, पवित्र है और स्वयं के लिए तो वह कल्याणरूप है, ऐसा ही पुरुष मरण समय में अपने भावों की सम्हाल रख पाता है । कोई पूर्व जन्म का बैरी हो, मनुष्य हो, पिशाच हो, कोई उपसर्ग करे । भील म्लेच्छ सिंह आदिक आक्रमण करे या जल में गिर गया, वन में आग लग गई, ऐसे कितने ही कठिन उपसर्ग होते है, वहाँ क्या करना? समाधिभाव, रागद्वेष का परिहार, अपने चित्प्रकाश की दृष्टि । देखिये जिसने जो मिठाई खायी है उस मिठाई का नाम सुनते ही उसके गले में मिठास उतरने लगती है । उसके घूँट में ही मीठापन आ जाता है, क्योंकि अनुभव है उसको ऐसा ही जिसने जीवन में आत्मा के इस चैतन्यस्वरूप का अनुभव किया है । एक किसी भी समय उसका नाम सुनते ही सच्ची बात सामने आ जाती है । अब सोचिये कि हमें अपने जीवन में क्या करना? एक ध्येय बनाइये कि जितने बार अधिक स्वानुभव मुझे प्राप्त होगा मुझे वह कार्य करना । मित्रजन, कुटुंबीजन अनेक लोग जिन में बैठकर समय गुजारते, वार्ता करते ये सब कोई भी मेरे आत्मा के जिम्मेदार हैं क्या? वे मेरे सहयोगी है क्या? आत्मकल्याण कर देंगे क्या? तो उत्तर आयगा―निल । किसी दूसरे से मेरा कुछ नहीं हो सकता । तब समय अन्य बातों में न गुजर जाय और धुन रहे यह कि मेरे को ऐसा अवसर अधिक प्राप्त हो जिसमें मैं स्वानुभव कर सकूं । ऐसी जिनकी वांछा है उनको कभी कुटुंब में, मित्रों में बोलना पड़ेगा तो ऐसी वाणी उनकी निकलेगी कि जिससे दूसरों का भी उपकार हो । यदि कोई कठिन उपसर्ग आ जाय तो उस समय यह जानकर कि यदि इस शरीर को देखूँगा, इसका लगाव रखूँगा तो मेरे रत्नत्रय धर्म की हानि होगी । तो जब यह शरीर छूटने को ही है और साथ ही इस धर्म के रत्नत्रय की हानि हो तो उसमें तो उसका सब गया । धर्म को न नष्ट करेगा । उस धर्म में और अधिक प्रीति करेगा ।
निष्प्रतीकार उपसर्गादि आने पर सल्लेखना धारण का प्रयोजन धर्ममय अपने को अनुभवना―जब कभी कठिन दुर्भिक्ष आ जाय, दाने-दाने का मुहताज होना पड़े, जिसमें जीवन संभव न रहे वहाँ ही समाधिमरण स्वीकार करना चाहिए । कहीं किसी जंगल में ही फंस गए जिसका ओर छोर नहीं विदित हो रहा, जहाँ अनेक हिंसक पशु रहते हैं, खूब चलने पर भी फंसाव ही फंसाव अधिक बढ़ता जाय, कहां जायें, क्या करें? जंगल से निकलना दुश्वार हो गया, तो ऐसी स्थिति में भी समाधिभाव रखना, खाना पीना तो वैसे ही नहीं मिलता है, जंगल में फंस गए हैं तो उस स्थिति में यह करे क्या? अपने रत्नत्रय धर्म की रक्षा करें, यह ही हुआ एक समाधिमरण । जब निष्प्रतीकार बुढ़ापा आ जाय, जैसे वृद्धावस्था में इंद्रियां जीर्णशीर्ण हो गईं, उठा बैठा भी नहीं जा सकता अन्न-पानी भी नहीं चल सकता, कठिन व्याधि जरा भी हुई तो वहाँ यह ही समाधिमरण स्वीकार करें अर्थात् रागद्वेष परिणाम तजकर अपने सहज परमात्मस्वरूप की इष्टि का ही प्रोग्राम रखें और ऐसी सद्भावना की जब दृष्टि चलती है तो अन्य आहार आदिक का भी त्याग होता है । समाधिमरण शब्द सुनते ही मुख्यता लाना चाहिए कि शरीर से भी ममता लगाव का त्याग कर दें । जो लोग समाधिमरण के लायक परिस्थिति में न हो और समाधिमरण की ठान लें तो वे तो जिन आज्ञा से बाहर काम कर रहे, जैन शासन के अंतर्गत नहीं हैं । क्या प्रयोजन है? जब शरीर चल रहा है और धर्मध्यान चल रहा है फिर भी समाधिमरण कर रहे इसका कारण क्या है? असमय में जबरदस्ती मरण, इसका फल है किं असंयमी जीवन मिलेगा आगे । मान लो देव भी हो गए तो कौन सा लाभ बहां लूट लिया? मनुष्यों से भी अधिक लोभ है देवों में । लोभ कहीं वस्तु के रखने का ही नाम नहीं है, किंतु बाह्य पदार्थों की तृष्णा हो उसे लोभ कहेंगे । देवगति में लोभकषाय अधिक बताया है । यद्यपि वहाँ रोजगार करना पड़ता नहीं, अन्न जमा करना नहीं पड़ता । बड़ा आराम है मगर दूसरे के ऋद्धि वैभव को देखकर झुरना, हाय मेरे न हुआ ऐसा, वे इसी भाव में मरे जा रहे हैं।
संयमपात्र मनुष्यभव की संयम से ही सार्थकता―मनुष्यभव है, संयम से रह सकते हैं, ऐसे उत्तम भव में बिना ही कारण समाधिमल की ठान लेना, इसका मूल आशय बढ़िया नहीं है । हां जो कारण बताये गए हैं समाधि के वे कारण जुटने पर समाधिमरण किया जाना चाहिए । कोई रोग ऐसा आ जाय जिसके मिटने का कोई उपाय न रहे तो अपनी धर्मरक्षा के लिए समाधिमरण करना । तो इस श्रावक ने इस शरीर को सेवक जानकर इसको भोजन पान का वेतन दिया । सो जब तक यह शरीर हमारी धर्मसाधना में सहयोग के लायक रहे तब तक तो इसको खानपान दें, जब धर्म के लिए उससे सहयोग न मिले बल्कि अधर्म के लिए प्रेरणा जग रही है ऐसी कठिन व्याधि आ जाय, कठिन मरणावसर जैसी दशा आ जाय तो वहाँ एक ही निर्णय रखना है कि इस शरीर का भी लगाव छोड़े, जो शरीर एक दिन यों ही जला दिया जायगा उससे क्या लगाव रखना । जिसने इस दृष्यमान् समस्त जगत को असार बेकार जाना है उसमें ही यह हिम्मत बन सकती है कि वह सर्व का राग छोड़कर अपने इस सहजस्वरूप की आराधना करे ।
सल्लेखना का प्रयोजन कषायों को कृश करना―सल्लेखना का अर्थ है भले प्रकार कृश करना । सत् मायने अच्छी प्रकार से लेखना मायने कृश करना, लिखबिलेखने धातु का अर्थ क्षीण करना है । किसको क्षीण करना? कषायों को । जब मरण समय आ जाये तो उस समय कषायों को दूर करना और आत्मदृष्टि सहित शरीर से प्रयाण करना इसका नाम है सल्लेखना । इस सल्लेखना को तब किया जाता है जब उपायरहित उपसर्ग आये, दुर्भिक्ष आये, बुढ़ापा आये, इसी प्रकार जब कभी ऐसा रोग आये कि जिसका कोई उपाय न बने तब समाधिमरण अर्थात् सल्लेखना धारण करे । जैसे किसी प्रकार का कठिन ज्वर अतिचार श्वांस, कफ आदिक बढ़ जाय और फिर वह जैसे कि टीबी का एक अंतिम तृतीय रूप आ जाय अथवा कैन्सर आदिक की प्रबलता आ जाय जहाँ मरण समय है ऐसा जाने तब सल्लेखना धारण करना चाहिए । सल्लेखना के संबंध में दो बातें हैं । कषायों को दूर करना अथवा आहार को घटाना, और घटाते-घटाते जल पर आ गए, फिर कभी जल भी छोड़ दिया । तो कषाय दूर करना यह तो हमेशा का कर्तव्य है, उस समय में विशेष विचार करने की जरूरत नहीं रहती । न भी सल्लेखना करे तो भी कर्तव्य है कि वे कषायें दूर रखें, पर मरण समय में तो कषायों को विशेषतया दूर रखना, समता परिणाम लाना यह कर्तव्य है । इसमें विशेष विचार यों न करें कि ये तो जिंदगी में भी करते थे । मरण समय में विशेष कर लिया । पर आहार आदिक का जो त्याग है इस पर विचार करने की आवश्यकता है ।
सल्लेखना में शारीरिक परिस्थिति निरखकर ही आहारादि के त्याग का औचित्य―शरीर यदि ठीक है और कुछ भावुकता में आकर या कुछ लोगों के द्वारा उकसाया जाने पर आहार जल का त्याग कर दिया तो उसमें उसका खुद का अकल्याण है । संक्लेश होगा, भीतर से सद्भाव मिटेगा, तो उसमें लाभ कुछ नहीं हुआ, बल्कि हानि हुई, क्योंकि ऐसे भावों से मरण कर के मान लो कदाचित जीवन के व्रत तप का कुछ प्रभाव रहे तो देव बन जायेंगे । वहाँ भी असंयमी जीवन रहेगा और विशेष संक्लेश हो गया तो दुर्गति प्राप्त होगी, इस कारण आहार आदिक त्याग वाला जो विभाग है उसमें विचार करने की जरूरत होती है । हमारे गुरुजी तीन वर्ष पहले से मुझ से कहने लगे थे कि जब मेरा मरणकाल आये तो तू जरूर हाजिर रहना । तो हमने कहा महाराज यह भी कोई कहने की बात है । यह तो हमारा काम है और सौभाग्य है कि सेवा करने को मिले । तो कुछ उनको विश्वास था कि इसकी देखरेख में जो एक बात बनेगी वह ढंग से बन जायगी, आखिर हुआ भी ऐसा ही । मरण से डेढ़ माह पहले ही चातुर्मास के बीच में ही आदमी भेजकर हम को बुलवा लिया । उस समय हमारा गया में चातुर्मास चल रहा था । खैर हम गुरुजी के पास ईसरी पहुंचे, वहाँ गुरुजी की समाधिमरण के समय हम निगरानी में रहे । तो कभी ऐसा भी हो जाता कि किसी के विशेष बाधा है तो उस बाधा में अतीव संक्लेश परिणाम कर के मरेगा । तो परिस्थिति देखी जाती, पृथक्-पृथक् निर्णय कोई नहीं रहता समाधिमरण में कि ऐसा ही करें । त्याग एक उत्सर्ग मार्गं तो है पर कुछ बात बिना लिखी भी होती कि ऐसी परिस्थिति हो तो यों करना । वह तो देखरेख करने वाले किसी समर्थ एक निर्णायक के निरीक्षण की बात है । जिस प्रकार भी हो, लक्ष्य यह है कि हमारे भावों में संक्लेश न आये और आत्मस्वरूप की भक्ति में रहकर, जिनेंद्र देव के गुणस्मरण में रहकर हमारी मृत्यु हो । लक्ष्य उसका एक रहता है, फिर उस बीच कुछ बन जाय तो तत्काल प्रायश्चित भी होते, अनेक सावधानियां तो होती ही है । ऐसे समाधिमरण में बड़ी सावधानी रखी जाती है ।
निष्प्रतीकार रोग होने पर धर्मार्थ सल्लेखना का कर्तव्य―आहार छोड़ देने वाला काम ऐसे ही समय में होना चाहिए कि जहाँ कठिन उपसर्ग आदिक आये, ऐसा रोग आये कि जिसका कोई इलाज संभव नहीं । पेट अत्यंत कड़ा हो गया, शरीर पर सूजन आ गई और तिस पर भी उसके रोग की वृद्धि होने को है । ऐसी स्थिति में धैर्य धारण कर उत्साह पूर्वक सल्लेखना धारण करना चाहिए । उस समय श्रावकजन गृह कुटुंब से पूर्ण ममता छोड़ देते हैं । एक घटना है बुंदेलखंड की कि एक जैन घर में एक की स्त्री के प्रसूति हुई । प्रसूति होते ही उस स्त्री के कोई मर्ज बन गया और उसकी मरणासन्न दशा बन गई । बच्चा हुए कोई दो दिन ही हो पाये थे । वह एकदम अशुद्ध स्थिति में थी । तो वहाँ पति आया और बड़े प्रेम से उस स्त्री के पास आकर उसकी गड़बड़ हालत देखकर रोने लगा । तो वहाँ स्त्री बोली―आप क्यों रो रहे? आपका नुकसान क्या? हमारी तो इधर लाश भी न उठने पायगी कि उधर तुम्हारी शादी संबंध की बात तय हो जायगी । तो वह पुरुष बोला―मैं अब आगे कभी शादी नहीं करूंगा । तो फिर स्त्री बोली―यदि शादी नहीं करोगे तो जो तुम्हारी पहली स्त्री के ये दो बच्चे हैं उनकी परवरिश कौन करेगा? वे तो लावारिस बन जायेंगे? तो फिर उस पुरुष ने कहा―मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि अब शादी नहीं करूंगा?... अच्छा तो यहाँ हम हैं आप हैं और साक्षी रूप में भगवान हैं, उन भगवान को अपना साक्षी बनाकर प्रतिज्ञा लो कि अब शादी नहीं करूंगा ।... हां भगवान को साक्षी बनाकर प्रतिज्ञा है कि मेरी अब मैं अपनी शादी नहीं करूंगा । और इस मरण समय में तुम मेरे लिए आज्ञा करो कि मैं किसको क्या दान दूं? तुम जो कहोगी वह हम दान करने को तैयार हैं, तो फिर स्त्री बोली―हम जो चाहते हैं क्या आप उसे दे सकेंगे?... हां-हां अवश्य देंगे, बोलो क्या चाहती हो?... मैं यह चाहती हूँ कि मेरे पास से आप दूर हो जावो, अब आप न तो मेरे पास आना और न किसी को आने देना, मैं तो आप से यह चाहती हूँ । अब वचनबद्ध तो था ही सो वह वहाँ से चला गया और किसी को उसके पास आने भी न दिया । इधर उस स्त्री ने क्या किया कि एक भींट के सहारे टिक गई, अन्न जल औषधि सबका त्याग कर के सल्लेखना ले लिया और समाधिमरण कर गई । अब भला बताओ―यदि कोई कहे कि उस अशुद्ध दशा में तो उसके सूतक पातक चल रहे थे, कैसे उसने सल्लेखना धारण किया? सो ऐसा कहना ठीक नहीं । मानो उस अशुद्ध दशा में वह सल्लेखना धारण न करती और मरण करके कुगति में जाती तब तो उसका बड़ा अनर्थ था । इसलिए चाहे कोई शुद्ध स्थिति में हो या अशुद्ध स्थिति में हो, आत्मस्मरण करना तो उसका भला ही हैं । हां अशुद्ध दशा में पूजा, पाठ, अभिषेक, पात्रदान आदि कार्यों की मनाही है मगर स्वरूपस्मरण करने, त्याग करने आदि की मनाही किसी भी स्थिति में नहीं है ।
सल्लेखना में धर्म के संभूतिस्थान का आलंबन―जिसे कहते हैं धर्म वह धर्म किसी मंदिर में बैठकर भी न मिलेगा । और कहीं शौच जाते समय वहाँ भी धर्म मिल जाय । धर्म नाम है आत्मा की वीतराग परिणति का । मंदिर एक साधन है । यहाँ आकर प्रभु के गुणस्मरण करें, वीतरागता का आदर करें, और वीतराग होने की भावना करें । और अगर कोई उद्दंड हो, अधमी हो, कषायवान हो और मंदिर में ही बैठा है तो क्या उसे धर्म मिल जायगा? धर्म है आत्मा की शुद्ध परिणति का नाम । तो जब यह श्रावक देखता है कि मेरे बड़ा कठिन रोग आया जिसमें कि बचना भी संभव नहीं है, तो वह अपने धर्म की रक्षा के लिए सल्लेखना धारण करता है । देह से, कुटुंब से सबसे ममता तज दी । कुटुंबीजनों को चाहिए कि जिसका मरणकाल आया है उसकी सम्हाल बनायें । जीवनभर जिसने सी पुत्रादिक की रक्षा की, उनका पालन पोषण किया, उनकी सब व्यवस्था की उसके सामने मरण समय में यदि वे ही स्त्री पुत्रादिक आकर रुदन मचायें तो बतावो वे उसके साथ न्याय कर रहे कि अन्याय? अरे एक दृष्टि से देखो तो अन्याय कर रहे । भला बताओ जो जिंदगीभर जिनके लिए मरता रहा, जिनके लिए बड़े-बड़े पाप कार्य किए, न्याय अन्याय कुछ नहीं गिना उसे मरण समय में भी शांति से मरण नहीं करने देते, उसके पास पहुंचकर रो धोकर उसका परिणाम और भी अधिक बिगाड़ते है जिससे वह मरकर भ्रांति में जाता है, तो यह उसके लिए अनर्थ ही तो रहा । तो इस प्रकार से मरण समय में किसी के परिणाम बिगाड़ना यह परिजनों को उचित नही है । अरे समाधि मरण तो एक महोत्सव की चीज है, अगले भव में इसका कल्याण हो उसकी प्रक्रिया का यह अवसर है । तो यह श्रावक गृह कुटुंब आदिक से ममत्व तजता है, आहार आदिक का त्याग करता है । आहार आदिक के त्याग को भी महत्त्व क्यों दिया गया―सल्लेखना के लिए । तो प्रथम बात तो यह है कि आहार आदि के संबंध का राग छूट जाय विकल्प छूट जाय । दूसरी बात यह है कि मरणकाल में अत्यंत रुग्ण अवस्था में आहारपान करना कष्ट बढ़ाने वाला होता है । वैसे ही जीवन में अच्छी हालत में भी कोई अधिक खा ले, गरिष्ठ खाये तो दो चार घंटे उसे भी लेटना पड़ता है । पर जहाँ शरीर इतनी शिथिल अवस्था में है, बुढ़ापा है, रोग है वहाँ आहार का त्याग करना लाभदायक है । आहार का त्याग करना उसके खुद के लिए लाभकारी है, शारीरिक आराम के लिए भी आहार आदिक का त्याग करना आवश्यक हो जाता है । सो धर्म के लिए भी यह ही बात है ।
मरणसमय में श्रावक के ज्ञान और वैराग्य की वृद्धि―यह श्रावक ऐसे कठिन रोग के समय जहाँ जानता कि यह देह नष्ट होने वाला है तो सल्लेखना पूर्वक देह को त्यागता है उसका उस समय यह यत्न रहता है कि मेरा स्वभाव दर्शनज्ञान चारित्र है । तो यह स्वभाव मेरा न मिटे, इसका विकास मेरे में रहे और ऐसे अपने अंत: स्वरूप की भावना सहित मरण करूं, यह उस श्रावक का लक्षण है । देखिये मरण के समय में जिसकी धारा मोह की ओर लग जाय वह बड़े कठिन संक्लेश से मरता है और जिसकी विचारधारा कुछ धर्म की ओर लग जाय तो उस समय उसे बड़ी अधिक विरक्ति रहती है । मरण समय में ज्ञान का बढ़ना, वैराग्य का बढ़ना यह सुगम हो जाता है । जैसे किसी को फांसी का हुक्म दिया गया और फांसी वाले से पूछा जाय कि बोल तुझे कौन सी मिठाई खाना पसंद है, जो मांगेगा वह खिलायी जायगी । तो क्या वह कोई मिठाई खाने की इच्छा करेगा? अरे वह जानता है कि अभी कुछ ही देर बाद मैं तो मर ही रहा हूँ, तो उसकी इस ओर बुद्धि नहीं लगती । और यह जो स्वयं मर रहा है तो मरण समय में क्या उसे यह रुचेगा कि मैं बच्चों को खिला लूँ उनसे थोड़ा प्यार कर लूँ? हां कोई-कोई मूर्ख ऐसे भी होते जो कि फांसी के समय में रसगुल्ले भी खाने को मांग सकते या मरते समय भी यह कह सकते कि अमुक बच्चे को बुलाकर दिखा दो, मेरी छाती ठंडी हो जायगी । यों मूर्ख लोग तो कह सकते, मगर विवेकी पुरुष को उस स्थिति में ज्ञान और वैराग्य बढ़ता है।
बाह्य इंद्रियों की बेहोशी के अवसर में अंत: चेतना की संभवता―जिसने जीवन में ज्ञानसाधना की, वह कदाचित बेहोश हो जाय तो लोग भले ही समझें कि यह बेहोश हो गया, इसकी हालत खराब है पर कुछ पता नहीं कि बेहोशी में आत्मसाधना को और सहयोग मिलता है । अगर होश हो तो एक बार बाहरी चीजें देखने का भी विकल्प बढ़े, पर बेहोशी तो इन इंद्रियों की है । वह बाहरी चीजें नहीं देख सकता किंतु जिसके ज्ञान की धारा है वह भीतर में ज्ञानानुभव कर रहा है । मुझे इस संबंध में ऐसा निश्चय कैसे हुआ कि हम एक बार ब्रह्मचारी छोटे लाल के साथ गोहद से मऊ जा रहे थे तो आहार के बाद बड़ी जल्दी चले, 14-15 मील तक चले तो रास्ते में एक जगह ब्रह्मचारी छोटेलाल जी का मकान पड़ता था, बस वहीं ठहर गए । वह छोटा सा गांव था, दूसरे हम थके हुए भी बहुत थे जाकर सामायिक किया और सामायिक करके लेट गए, जल्दी ही नींद आने लगी, उस दिन प्रवचन नहीं कर सके । उस नींद के बीच में ही ब्रह्मचारी छोटेलाल जी की पुत्र बहुवें वगैरह भी आयीं, वे लोग आपस में कुछ बातचीत भी करते रहे, पर हमें पता नहीं कि क्या बातचीत करते रहे धीरे-धीरे । हम वहाँ सो गए । उस सोते हुए के बीच में ही ब्रह्ममुहूर्त में एक स्वप्न आया कि हम सामायिक कर रहे हैं, उस सामायिक के बीच में इस प्रकार का ध्यान बना कि हम स्वानुभव का प्रयास कर रहे हैं, उसी अवसर पर दो देवियां सामने आकर अगल बगल बैठी हमारे प्रति कुछ प्रशंसा भरे शब्दों में स्तुति कर रही हैं । हमारा ध्यान स्वानुभव के कार्य में और भी अधिक बढ़ता जा रहा था । स्तुति की धीमीसी आवाज सुनाई पड़ रही थी, हम स्व की ओर लीन हो रहे थे देखिये यह सब स्वप्न में बीती बात कह रहे । यह स्थिति कुछ देर रही पश्चात् नींद खुल गई तो उस स्थिति में मैं क्या देखता हूँ कि वहाँ कहीं कुछ नहीं है, न देवियां न उनका गानतान । मैं उस समय यह अनुभव कर रहा था कि वह मेरी स्वानुभव की स्थिति थी । अब मेरे मन में एक भावना जगी कि यह नींद क्यों खुल गई, यदि वैसा ही स्वप्न में कुछ समय और चलता रहता तो कितना अच्छा होता । तो देखिये उस सोते हुए की स्थिति में भी स्वानुभव की बात देखने को मिली, तभी से हम को तो ऐसा निश्चय हो गया कि इस देह की चाहे कैसी ही अपवित्र स्थिति हो, बेहोशी हालत ही क्यों न हो पर वहाँ अपने परिणाम सुधारने का बड़ा मौका मिलता है । उस स्थिति में भी इस देह का भी ममत्व छोड़कर रत्नत्रय धर्म की आराधना की जा सकती है ।
सल्लेखना में रत्नत्रय धर्म की रक्षा का उद्यम―देखिये यह देह विनश्वर है । कोटि यत्न करने पर भी यह सदा न रहेगी । और फिर यह देह तो हड्डी चाम का पिंड है जिसे लोग थोड़ी देर में जला देंगे और जिसे कहते हैं कपालक्रिया याने मुर्दा की खोपड़ी फोड़ना उस जलाने के प्रसंग में कुटुंबीजनों के किसी के हाथ से बांस से खोपड़ी में मार लगाई जाती है थोड़ा जलने के बाद ताकि उसमें भी दरार पड़ जाय और अच्छे प्रकार जल जाय । ये सब बातें होती हैं इस देह की । उस देह से क्या ममत्व करना इस देह में ममत्व करने का फल है संसार में परिभ्रमण । अब तक जन्ममरण करते चले आये हैं । समाधितंत्र में एक जगह बताया है कि देख तुझे देह बराबर मिलते रहेंगे, टोटा न रहेगा, और अमर देह न चाहिए तो उसका सीधा तरीका यह है कि तू इस देह के स्वरूप को और अपने स्वरूप को सही-सही जानकर इस देह से ममत्व न कर और अपने सहज चैतन्यस्वरूप में आत्मत्व का अनुभव बना कि मैं यह हूँ, यह कुंजी है देह से छुटकारा पाने की । तो यह व्रती श्रावक सल्लेखना के काल में चिंतन कर रहा कि देह तो अनंत धारण किये है और छोड़े हैं, पर रत्नत्रय धर्म आज तक प्राप्त नहीं हुआ उसकी निशानी क्या है कि अब तक संसार में रुल रहे । सो अब मैं रत्नत्रय धर्म की रक्षा करूंगा, इस देह की नहीं । किसी का घर जलने लगता है तो वह कोशिश यह करता है कि घर तो जल जाय पर घर के भीतर रखे हुए जो कीमती रत्न हैं उन्हें उठा लें, ऐसे प्रसंग में वह अग्नि बुझाने का मुख्य काम न सोचेगा । मुख्य काम सोचेगा अपने कीमती रत्नों को वहाँ से हटा लेने का । उस समय उसका निर्णय बनता है कि घर जल रहा तो जल जाने दो, इसमें तो 10-20 हजार का ही नुकसान होगा, मगर लाखों की कीमत के जो रत्न रखे हैं उन्हें तो निकाल लूँ । तो ऐसे ही जब यह देह मिट रहा है, मरण हो रहा है तो यह सोचता है कि देह मिटने दो, पर अपना जो रत्नत्रय धर्म है उस धर्म की तो रक्षा कर लूँ । यह धर्म तो मेरे साथ आगे भी रहेगा पर यह देह तो आगे नहीं रहने का । तो ऐसे कठिन रोग के प्रसंग में यह व्रती श्रावक अपने सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र की रक्षा के लिए सर्व कुछ परित्याग कर देता है ।
मरणसमय धर्मदृष्टि न करने की अक्षम्य चूक―यह देह तो संसार में रुलाने वाला है । जो देह की ममता रखेगा वह संसार में रुलेगा और यह रत्नत्रय धर्म मुझे संसार के सुखों से छुटकारा दिलायगा, सिद्ध अवस्था प्राप्त करायेगा और सदा के लिए आत्मा पवित्र हो जायगा । तब देह की परवाह करना कि अपने रत्नत्रय धर्म की रक्षा करना? यह श्रावक उस काल में अपने रत्नत्रय धर्म की रक्षा करता है । और धर्म कहीं बाहर है क्या? धर्म आत्मा का स्वरूप है, आत्मा में ही लखना है, उपाय भी स्वाधीन है, तत्व भी स्वाधीन है, क्रिया भी स्वाधीन है । जब यह जीव तीन चीजों का पिंडोला है―शरीर, कर्म और जीव और शरीर में अनंतानंत परमाणु हैं, कर्म में, भी अनंतानंत परमाणु हैं, तो प्रत्येक परमाणु की और इस जीव की सत्ता जुदी-जुदी है । एक में ये मिल नहीं गए, स्वरूपत: संयोग है, बंधन है मगर किसी का स्वरूप किसी दूसरे रूप हो जाय ऐसा त्रिकाल संभव नहीं । तो जो मैं हूं, स्वयं सत् हूँ । अपने स्वरूप से हूँ तो उस ही वास्तविक सत् को तो निरखना है कि मैं अपने आप अपने सत्त्व के कारण स्वयं में क्या हूँ । यह तत्त्व जिसमें आत्मा की धुन है और यह ही जीवन का लक्ष्य है, उसको मिल जाता है और जिसके जीवन में लोभकषाय है, बाह्य वस्तुवों की तृष्णा और संग्रह करना और इतना बढ़ जाना यह ही जिसका ध्येय है उसको यह अंतस्तत्व कभी प्राप्त नहीं हो सकता । थोड़ा विवेक रखना चाहिए कि बाह्य पदार्थ जिनकी सत्ता भिन्न है उनके लगाव से, ममत्त्व से, मोह से मेरी बरबादी है, इस समय भी बरबादी है, आगे भी बरबादी है । मुझे तो अपने आप में अपने स्वरूप की आराधना चाहिए, यह ही एक मुख्य लक्ष्म रहता है व्रती श्रावक का, जिसने कि इस मरण के अवसर पर सल्लेखना व्रत धारण किया है । सारे जीवनभर जो व्रत तप धर्म में आचरण किया है, उनको सफल करने का यह ही तो अवसर है कि मरण समय में चू के तो वह एक बड़ी चूक कहलाती । तब ही तो लोग कहते हैं ‘अंतमति, सो गति’, मरण समय में जैसी बुद्धि होती है वैसी गति होती है । और होता भी यही है । जिस गति में जाने को है उसी के अनुरूप उसकी बुद्धिं बन जाती है । तो इस सल्लेखना के प्रकरण में यह ध्यान किया गया हैं कि व्रती श्रावक समग्र व्रतों के पालन का अब फल पायगा । इस अवसर में सल्लेखना व्रत करने से ही उसका कल्याण है ।