वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 128
From जैनकोष
खरपानहापनामपि कृत्वा कृत्वोपवासमपि शक्त्या ।
पंचनमस्कार मनास्तुनं त्यजेत्सर्वयत्नेन ।।128।।
कायसल्लेखना में कर्त्तव्य―सल्लेखना धारण करने वाले महापुरुष ने तत्वज्ञान के बल से विषय कषायों का परिहार किया है । जिसके विषयों की इच्छा नहीं, कषाय के लिए उमँग नहीं उस पुरुष के शरीर की सल्लेखना का अवसर स्वयं ही आ जाता है । जब विषयों की भावना नहीं तो आहार करने की लंपटता कैसे आ सकती है । सो यह महापुरुष भोजन आदिक की वांछा को भी अपकारक जानता और जब यह शरीर ही जा रहा है, मरण अवसर आया है तो इस अवसर में उस भोजन आदिक की गृद्धता करना उचित नहीं है । यह सब समझकर क्रम से जैसा आयु का अवसर दिखता है उस प्रकार इंद्रिय से ममतारहित होकर आहार के आस्वादन से विरक्त होता है और विचार करता है कि हे आत्मन् ! तूने इतना आहार किया कि एक-एक जन्म का एक-एक कण भी इकट्ठा किया जाए तो अनगिनते ढेर लग जाएँगे । अनादि काल से अब तक कितने जीवन पाए, अनंत जीवन पाए सो एक जीवन का एक ही दाना गिनती के ढंग से इकट्ठा किया जाता तो मेरुपर्वत बराबर अनेक ढेर लग जाते, पर तू आहार से कभी तृप्त नहीं हुआ । अब इस अवसर पर जबकि देह के नष्ट होने का निश्चय है और फिर भी आहार विषयक वांछा लिए रहेंगे तो इससे कल्याण नहीं है । तूने इतना जल पिया कि एक-एक जीवन का एक ही बूंद इकट्ठा किया जाए तो अनंत समुद्र भर जाएँ इतना जल पिया । उस जल से भी तेरी तृप्ति नहीं हुई, तो अब जो यह रोग बुढ़ापा के कारण मरण निकट आया है उस मरणकाल में ही तू आहार पानी में चित्त धरे रहेगा तो उससे तृप्ति तो न हो जाएगी । आगे अनेक भव धारण किया जाना होगा, वहाँ भी ऐसी वेदना पाएगा । तो आहार पानी की गृद्धता न करें ।
आहारत्याग के अवसर व अनवसर का विश्लेषण―यहां एक बात ध्यान से समझना कि जिसका शरीर इस काबिल है कि अभी धर्म कर सकते, नियम से कर सकते, और ऐसे अवसर में भी कोई समाधिमरण करे तो वह आत्मघात कहलाता है, वह अपनी हिंसा है, समाधिमरण तब की चीज है जब यह जानें, मरणकाल आ ही गया । ऐसे अवसर पर व्रत में कोई भंग होता हो शरीर की स्थिति के कारण, जैसे अंधे हो गए, संयम नहीं पल सकता या कुछ बात हो तो वहाँ पर भी विचार किया जाता हैकि मैं इस संन्यासमरण को झेल सकूंगा या नहीं । ऐसी स्थिति में भी अपनी शक्ति न देखकर कोई समाधिमरण धारण कर ले और संक्लेश परिणाम से मरण हो जाए तो उस हठ से भी लाभ नहीं है, यह तो धार्मिक बात है, जिसमें अपना धर्म न बिगड़े, धर्म सधे सो कार्य करना । तो यह विवेकी पुरुष जब यह देख रहा है कि अब यह देह न चलेगा, अत्यंत निकट समय है मरण का तो उस समय यह आहार जल आदिक का ही त्याग करके समस्त वांछावों से रहित होकर अपने आपके स्वरूप का ध्यान करता हुआ शरीर को छोड़कर चला जाता है ।
भोजन लंपटता पर विषाद―यह सल्लेखनाधारी अपने आपको संबोध रहा है कि हे आत्मन् ! तूने अनंत भवों में भोजन पान की गृद्धता की और इस भव को भी पाया तो इस जीवन में भी कितना आहार जल ग्रहण किया । रोज दो-बार, चार-बार, 6 बार तथा स्वच्छंद होकर खूब आहार पान से अपने को खुश रखना चाहा । आहार का लोभी होकर अनेक प्रकार के आरंभ किया । अमुक चीज खाने की बनाना, यह बड़ी स्वादिष्ट है, चूल्हा जल रहा है, आंसू बह रहे हैं, अनेक उद्यम कर रहे हैं, न जाने कहां-कहां से क्या-क्या चीज बटोरी, न जाने कैसा-कैसा परिश्रम कर रहे हैं, एक आहार के स्वाद के वास्ते ही तो । जीवन भर एक काम किया, आहार का लोभ किया, झूठ, चोरी, परिग्रह आदि सभी तरह के पापों को भी करना पड़ा, दुर्ध्यान करके खोटी क्रियाएँ की, दूसरे के अधीन हुए, स्त्री पुत्रादिक के अधीन हुए, कितनी ही दीनता आयी, एक आहार के अर्थ ही तो यह सब किया । अनंतबार आहार कर-करके भी तू तृप्त न हुआ । भक्ष्य अभक्ष्य का विचार न रखा रात दिन का विचार न रखा, आहार की लंपटता हो गई । कैसी ही प्रवृत्ति की ।
रात्रि भोजन का कलंक―जैन कुल में जन्म लेने वाले पुरुषों का यह मुख्य चिह्न है कि रात्रि में भोजन न करना, किंतु अब रात्रिभोजन एक आम रिवाज सा बना डाला और कोई रात्रि को भोजन न करे, विवाह बारात में गया तो वह मजाक का साधन बन गया । जहाँ ऐसी खोटी बात चल उठे वहाँ फिर जैन कहलाने का हक क्या रहा? कोई पुरुष अकेले ही भ्रष्ट हो जाए, खुद रात को खाने लगे तो यह एक उस व्यक्ति की बात है, उससे परंपरा नहीं बिगड़ती, मगर सामूहिक भोजन, विवाह, बारात, पंगत या अन्य प्रीतिभोज रात्रि को ही करने लगे तो यह तो जैन धर्म पर बड़ा प्रहार किया । अकेला भ्रष्ट हो जाए तो वह उसके अकेले की बात है मगर जहाँ सामूहिक रात्रि भोजन की प्रवृति चल जाती है तो उसके मायने यह है कि अब इस धर्म के मानने वालो में धर्म प्रवृत्ति न रही । एक आहार पान जो केवल प्राण टिकाने के लिए ही किया जाता है उसे इतना शौक बना डाला कि रात-दिन का भी कुछ विवेक न रहा । यह तो जैन समाज के लिए एक कलंक है । और सामूहिक प्रथा चला दिया तो वह इस समय के अग्रगण्य लोगो के लिए कलंक है । जो मुख्य जन है उनका कर्तव्य यह है कि वे सामूहिक रात्रि भोजन का एक रिवाज न बनाएँ, उस रिवाज को तोड़ दें ।
संक्लेश व आसक्ति से हटने का संबोधन―अरे अनेक प्रकार से भोजन के पीछे खोटे कर्म किए और उससे भी तृप्त न हुए, तो अब मरण के अवसर पर जहाँ निश्चित है कि कुछ ही समय बाद प्राण चले जाएँगे वहां भी यदि आहार जल में वांछा रखी और इस तरह से तृष्णा पूर्वक मरण किया तो शरीर तो आगे भी मिलेगा, दुःख ज्यों का त्योंही बना रहेगा । ऐसा विवेक करके यह ज्ञानी पुरुष आहार की लंपटता को छोड़ देता है । बहुत विवेक हो तब तो ठीक है, यदि कोई ऐसा ही भावुक हो कि कराऊंगा समाधिमरण, हमारा एक नाम रहेगा कि इन्होंने समाधि मरण कराया । इस धुन में जो रहेगा वह न जाने कितनों का अनर्थ करता रहेगा । विवेकी पुरुष तो दूसरे के आत्मा का हित ही चाहते हैं और हर तरह से समझो । ऐसा त्याग भी न कराना चाहिए कि जिससे यह परखा जा सके कि यह बड़े संक्लेश करके मरण करने लगा ।
सामूहिक बिगाड़ से तीर्थप्रवृत्ति का विनाश―देखिये बात तो यह है कि संक्लेश से मरण न होना चाहिए । इसमें दो बातें नहीं है चाहे बाह्य त्याग कितना ही कम रहे न रहे, कैसी भी स्थिति बने । यदि संक्लेश रहित मरण होता है और पंचपरमेष्ठियों के गुणस्मरण पूर्वक अपने अंत: स्वरूप की आराधना पूर्वक मरण होता है तो समाधिमरण यह है । आहार आदिक का त्याग करना यह एक आनुषंगिक है । किसीने कायसल्लेखना किया, आहार जल का त्याग किया पर विषयकषाय की सल्लेखना नहीं की, कषाय रही, ममता रही, नाम की वांछा रही, मरते तो जा रहे और नाम की इच्छा हो रही है, लोग जानेंगे कि इन्होंने कैसा समाधिमरण करके दिखाया? अरे यह तो बहुत खोटा परिणाम है, ऐसी कोई वांछा करे और बाहर से भी कष्ट भोगे और अंतरंग से भी खोखले रहे तो उसमें तो कुछ लाभ ही नहीं मिलता । सो पहले आत्मा को पूरा सावधान बनाना चाहिए कि जहाँ बाह्य जगत में कुछ भी चाह न रहे, न भोजन की, न नाम की, न प्रशंसा की, कोई भी इच्छा न रहे, यह बात बनती है उसके जिसने सहज आत्मस्वरूप का अनुभव किया है । जबरदस्ती धर्म नहीं हुआ करता, किंतु भीतर में ज्ञानप्रकाश पाने वाले के धर्म सहज हो जाता है । जैसे कभी प्रवचन सभा में कोई महिला छोटा बच्चा ले आयी है, वह रोने लगा तो उसकी मुख बंद करके उसका रोना नहीं मिटाया जा सकता । उसका उपाय कोई दूसरा ही किया जाता है । ऐसे ही जबरदस्ती भावुकता में आकर समाधिमरण कोई कर रहा हो और बता देंगे दुनिया को कि समाधिमरण ऐसा होता है, ऐसा भाव आए तो समझो कि मेरा सब गया । इतना सावधान होना चाहिए सल्लेखनाधारी को कि उसके केवल अपने आत्मतत्त्व की ही धुन रहे । विषय कषाय में सल्लेखना पूर्वक काय सल्लेखना की चर्चा चल रही है । कोई पुरुषकाय की सल्लेखना न कर सके, ऐसा ही अवसर आए और विषय कषाय की सल्लेखना कर ले तो उसके तो समाधिमरण कहलाएगा, पर जो पुरुषकाय की सल्लेखना तो खूब करे कि अमुक चीज छोड़ा, अमुक चीज छोड़ा हडि्डयां निकल आयीं पर विषय कषाय की सल्लेखना न करे तो उसके सल्लेखना मरण न कहलाएगा ।
शारीरिक वेदनावों में कष्ट न मानने का संबोधन―यह विवेकी पुरुष अपने आपको समझा रहा है कि तूने अनंत जन्मों में ऐसे-ऐसे कष्ट पाए और बड़े कष्टों से मरण किया तो इस मरण समय में तुझ को कष्ट ही क्या है? अनेक बार शस्त्र से कट कटकर मरा, दूसरे व्याघ्र शेरों ने तुझे अनेकों बार खाया । अनेक प्रकार से जीवों ने दबोचा, बुरी तरह मरण किया । अब यह तो एक शुभ अवसर है । अनेक धर्मात्माजन निकट बैठे है । सबकी यह ही भावना हैकि इसके समता भाव जगे । बाह्य का विकल्प हटे और आत्मदृष्टि करता हुआ इसके समताभाव प्रयाण करे । एक कर्मोदयवश शरीर में वेदना आयी तो यह क्या कष्ट है? कर्म का उदय कर्म में है देह की बात देह में है, मेरी बात मेरे में रहे, ऐसी भावना करके इन समस्त कष्टों से मैं अपने चित्त को विमुख करूं । यह एक शुभ अवसर है । यदि यहाँ चूक गए तो अगला भव जन्ममरण में गुजरेगा । भवों की परंपरा चलेगी, जीवन में दु:ख ज्यों के त्यों रहेंगे, यदि समाधिभाव से मरण हो तो कुछ ही भव धारण करके निर्ग्रंथ दिगंबर होकर तपश्चरण करके निर्वाणपद पाऊंगा । सदा के लिए संकटों से छूट जाऊंगा ।
आत्मीय सहज आनंद के अनुभवी को अन्यत्र कष्ट न मानने की सुगमता―जिस पुरुष ने आत्मा के सहज ज्ञानानंद स्वरूप आनंदमय आत्मतत्त्व को अनुभवा है, जिसके बैल से यह निश्चय हुआ कि इस आत्मानुभव के अतिरिक्त अन्य कुछ भी सार नहीं है । जो आनंद अपने आपके स्वरूप में लीन होने में है वह आनंद बाहर कहीं भी रंचमात्र नहीं है । इस अलौकिक आनंद को जिसने भोगा है उसके लिए समाधिमरण जरा भी कठिन नहीं है वहतो बड़ी प्रसन्नता की चीज है । जीवन में अनेक समारोह हुए, शादी विवाह आदि की अनेक खुशियां आयी अनेक-अनेक उत्सव किया मगर वे सब उत्सव कुछ नहीं है । मरणकाल में जो एक आत्मदृष्टि का वातावरण बन रहा है उस समारोह के आगे सारे समारोह फीके हैं । वे क्या उत्सव हैं, वे तो पाप के कार्य हैं और संसार में रुलने की परंपरा बढ़ाने वाले हैं । एक यह मरण समारोह संन्यास पूर्वक, समता पूर्वक आत्मदृष्टि सहित शरीर से पयान करने का यह उत्सव महा उत्सव है । विवेकी पुरुष इसमें अतीव प्रसन्न रहता है । उसकी दृष्टि में उसका आत्मस्वरूप बना हुआ है, और ऐसी आत्मदृष्टि सहित मैं इस शरीर को छोड़कर जा रहा हूँ । हे आत्मन् ! इस जीवन में धर्मबुद्धि से अनेक उपवास किया, धर्मपालन किया, अनेक वांछाएँ बनी रहीं कि मैं धर्म के लिए ही यह जीवन लगाऊंगा, तो अब उसका ही तो यह अवसर है । यह ही तो परीक्षा का समय है । यहाँ इच्छाएँ न जगें, परिणाम न बिगड़ें, ऐसी साधना रहे तो जीवनभर किए हुए व्रत, तप का फल मिल जाएगा । यह विषय कषायों की सल्लेखना करता हुआ शरीर की सल्लेखना करने वाला विवेकी पुरुष क्रम से आहार को त्यागता है । यह त्याग मरण समय में परिणाम न बिगड़े इसके लिए भी आवश्यक है । मरण हो रहा है, खाते जा रहे हैं, खांसी आ रही, कफ हो रहा, अनेक प्रकार की बाधाएँ आती है । वह स्थिति ऐसी हैकि आहार का त्याग करने सेही ठीक गुजारा चलेगा और फिर जब विषय कषायों से विरक्ति हुई है तो आहार की इच्छा कौन करेगा? आहार त्याग करे, दूध पर ही रहे, फिर दूध का भी त्याग कर छांछ पर ही रहे, फिर छांछ का भी त्याग कर दिया । इस प्रकार सर्व वांछावों से रहित होकर पंच नमस्कार मंत्र में मन को लीन करता धर्मध्यानी हुआ । आत्मप्रतीति सहित सही यत्न से देह को त्यागकर जाना सल्लेखना मरण कहलाता है ।
आत्मघात और समाधिमरण का विश्लेषण―एक यह प्रश्न हो सकता है जैसे कि बहुत से लोगों को संदेह भी चलता हैकि यह समाधिमरण क्या है? आत्मघात है । जैसे कोई कुवें में गिरकर मरे तो क्या, आहार पानी त्यागकर मरे तो क्या, आखिर वह आत्मघात ही तो रहा । ऐसा संदेह करने वाला प्रथम तो यह जाने कि जब तक यह देह चल रहा है, धर्मसाधन हो रहा है ऐसी स्थिति में कोई आहार जल का त्याग करे, समाधिमरण करे तो वह आत्मघात कहलाता है और इसका फल अच्छा नहीं निकलता । इस कुबुद्धि से मरण करने वाला पुरुष आगे देह पाएगा, जन्ममरण की परंपरा रहेगी और आगे पाएगा देह खोटा असंयमों वाला । मान लो थोड़ा पुण्य किया था उस प्रभाव से देव भी हो गए तो क्या हुआ? असंयम में ही समय गुजरेगा और यहाँ मनुष्यभव में संयम सहित जीवन गुजर रहा है । तो देह जब तक इस काबिल है कि धर्मध्यान में बाधा नहीं आती, सही ज्ञान चल रहा है, स्वाध्याय सुनना, वाचना चल रहा है तो आवश्यक क्रियाएँ चल रही है, ऐसी स्थिति में कोई समाधिमरण का नाम लेकर आहार आदिक का त्याग कर दे तो वह आत्मघात कहलाता है । किंतु जब ये देखा कि यह तो इस काबिल न रहा कि ध्यान, संयम, तपश्चरण में न रह सके तो जहाँ हमारा धर्म बिगड़ा तो समझो हमारा सब कुछ बिगड़ा कहलाएगा । ऐसे अवसर पर आहार का त्याग करना, सल्लेखना मरण करना धर्म है, क्योंकि धर्म के लिए ही जीवन था और वह धर्म- बिगड़ रहा और यह भी निश्चित हुआ कि यह देह रहेगा भी नहीं, ऐसी स्थिति में आहार आदिक का त्यागकर प्रभु गुणस्मरण में, आत्मदृष्टि में उपयोग रखते हुए मरण करे तो वह धर्म है, समाधि मरण है।
धर्मांधता में अनवसर मरण ठान लेने में कल्याण का अभाव―यह आज मनुष्यभव पाया, सत्संग पाया, विवेक पाया, संयम भी चल रहा, धर्मध्यान भी चल रहा, महाव्रत अणुव्रत पल रहा, स्वाध्याय, ध्यान, दानशील, तप, व्रत, उपवास आदिक बराबर ठीक पल रहे हैं, जिनेंद्र पूजा, दर्शन, स्वाध्याय, धर्मोपदेश, चारों आराधनाएँ बराबर अच्छी तरह निभ रहीं और कोई ऐसा गड़बड़ समय भी नहीं है कि कठिन दुर्भिक्ष हो या कठिन बुढ़ापा आया हो या एकदम असाध्य रोग हुआ हो, ऐसी भी स्थिति नहीं है फिर भी एक धर्मांध होकर समाधिमरण करने वाले पुरुषों में लोगों की भक्ति देखकर आहार आदिक का त्याग कर मरण कर ले तो वह आत्मघात है । और वह कैसे आत्मघात हैकि एक तो इस भव में जो धर्मधारण हो रहा था, धर्म निभ रहा था सो अपने में धर्म का घात किया । मरकर असंयमी बनेंगे । दूसरे भीतर के ज्ञानप्रकाश बिना जिनेंद्र भगवान के कहे हुए वचनों के विरुद्ध कोई संन्यासमरण धारण करता है तो वहाँ संक्लेश है और जिनाज्ञा का भंग है । कैसा अवसर हो कि समाधिमरण करना, इसका भले प्रकार ज्ञान होना बड़ा आवश्यक है । असंयम में दोनों तरफ से गया । न तो इस भव में शांति रही, न आगे भव में शांति रहेगी । सो यदि समाधिमरण का अवसर नहीं है, देह में बराबर धर्मसाधना की वृत्तियां चल रही हैं ऐसे अवसर पर आहार आदिक त्यागना आत्मघात है, किंतु जब देखा कि धर्म संयुक्त शरीर की रक्षा करना तो कर्तव्य था मगर जब देह इस काबिल नहीं हैकि उससे धर्म की रक्षा कर सकें तो वह समाधिमरण ग्रहण करता है । जबरदस्ती इस शरीर को छोड़ दिया, मर गए तो हाड़ मांस वाले इस शरीर को छोड़ा तो क्या लाभ हुआ । आगे हाड़ मांस वाला शरीर मिलेगा । छोड़ना तो कार्माण शरीर का जरूरी है । इन कर्मों को बाहर हटाइए । कर्मों को बाहर हटाने का उपाय है कि कर्मादिक से रहित अविकार स्वभावी इस ज्ञानमात्र अंतस्तत्त्व की प्रतीति करें । सहज परमात्मतत्त्व की दृष्टि के प्रसाद से अपने आप में विशुद्ध आनंद का अनुभव करें ।
समाधिमरण में आंतरिक व बाह्य शांत वातावरण की आवश्यकता―समाधिमरण में विवेक का काम चलता हैं । चूँकि अब देह हमारा साथ नहीं निभाता कि हम अपनी क्रिया समिति पूर्वक कर सकें । इसलिए जिसने पहले से ही अनेक उपवासों द्वारा अभ्यास कर लिया है वह आहार आदिक का त्याग करता है । उस स्थिति में इसका उपयोग कहां रहा करता है? प्रभुगुणों के स्मरण में, अपने आत्मस्वरूप के ध्यान में । तीसरी बात से इसका मतलब न रहा, अगर किसी दूसरी बात से मायने आरंभ परिग्रह आदिक से या परिचित मित्रजन से इसका कोई प्रयोजन है, बुलाता है, आवो बैठो, अच्छे आए, खूब खबर ली, तो इन बातों में तू अपने परिणाम बिगाड़ रहा है, मोह का परिणाम ला रहा है । संन्यासमरण करने वाले से तो इस तरह की बात विवेकी पुरुष की करना ही न चाहिए कि अब हम आ गए, बताओ तुम हमें पहिचानते कि नहीं? अरे इन फिजूल की बातों में क्या रखा है? उसको तो ऐसा योगदान देना चाहिए कि जिससे उसके परिणामों में विकल्प न आए । तो ऐसे बाह्य विकल्प त्यागकर आत्मगुणस्मरण सहित मरण करना समाधिमरण कहलाता सो प्रत्येक कल्याणार्थी का लक्ष्म होना चाहिए कि मैं जीवन में ऐसा धर्मकार्य करूं कि मरण समय भी मेरा परिणाम बिगड़े नहीं और समतापूर्वक मरण करके मोक्षमार्ग में प्रगति करूं ।
तत्त्वज्ञान के बल से इंद्रियविषयों के परिहार की सुगमता―सर्व इंद्रियों में बाधा देने वाली इंद्रियां हैं तो स्पर्शन, रसना ये दो हैं और इनकी सहयोगी है चक्षुइंद्रिय, क्योंकि इंद्रिय विषय में विशेष बढ़ें इसका प्रारंभ होता है चक्षुइंद्रिय से । देखा तो इच्छा बढ़ी, देखा तो अनेक वासनाएँ जगी । तो वहां सभी इंद्रियां बाधक हैं, निरंतर के प्रयोग में ये दो इंद्रियां अधिक बाधक हैं―रसना इंद्रिय और चक्षुइंद्रिय । इनकी ही स्वच्छंदता से फिर यह जीव स्पर्शनइंद्रिय में बढ़ता है, कामसेवन में बढ़ता है । यदि इन दो इंद्रियों का सहयोग न मिले तो उसका ब्रह्मचर्य पालन बहुत सुगम होता हैं? सो देखो सुयोग की बात अन्य इंद्रिय पर ढक्कन नहीं लगा है । वैसे हम चाहें कि कुछ सुने नहीं तो अपने आप हम कान कैसे बंद करें नाक को कैसे बंद करें । अगर चाहें कि हमें कुछ चखना, बोलना ही नही हैं तो ओठों को बंद कर लीजिए । यहाँ दो ओठ मिल गए । इन दो इंद्रियों के जो दो ढक्कन मिले ये इसलिए मिले हैकि इनका उपयोग करें । दोनों पलक मूंदकर आंखें बंद करें, ये दो बातें जिसके चलती हैं, जिसके लिए मन का नियंत्रण भी चाहिए उसके लिए कषायों का त्याग करना आसान हो जाता है । तभी समाधिमरण के अवसर पर यह ध्यान दिलाया गया है कि आहार का त्याग करें जिससे चित्त यहां वहां न तुले ।
आत्मधर्म वैभव की रक्षा के लिए कायोपेक्षा―यह आहारत्याग कुछ भावुकता वाला त्याग न होना चाहिए । किंतु जब यह देखा कि इस घर में आग लग रही है तो अब क्या करें घर में आग लगने दो, मगर वहां जो हीरा जवाहरात रत्न रखे है उनको झट निकाल लें, ऐसे ही इस देह में आग लग रही है मायने रोग है, व्याधि है, वृद्धता है । शिथिल हो गए, अब यह किसी काम का ही न रहा तो इस देह की ऐसी स्थिति होती तो होने दो, मगर इसको खतम करके अपने रत्नत्रय सम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र निधि की तो रक्षा करले । कहीं,, इस देह के ममत्व के कारण रत्नत्रय नष्ट नही जाए और होगा ही, यदि देह में ममत्व है । तो आहार आदिक के त्याग का मूल अभिप्राय यह है कि मेरा रत्नत्रय न बिगड़ जाए, सो रत्नत्रय बिगड़ने लायक जब देह की स्थिति बन जाती है उस समय त्याग बताया है, क्योंकि इस ज्ञानी जीव का लगाव अपने स्वरूप से है देह से नहीं है इसलिए सर्व कुछ त्याग करना उसके लिए बहुत आसान रहता है ।
सल्लेखनामरण करने वाले को परम शांत वातावरण की आवश्यकता―समाधिमरण करने वाला पुरुष यह चाहता है कि यहाँ का वातावरण शांत रहे । कोलाहल न हो, कोई मोह ममता राग की बात कहने वाला नही और कुटुंबीजनों का आवागमन न हो । अन्य धर्मात्माजन जो मोह रोग के विषयभूत न थे उन्हीं पुरुषों द्वारा धर्मश्रवण करने को मिले ऐसी उसकी भावना रहती है । और जो योग्य विवेकी समाधि कराने वाले पुरुष है उनको इस तरह का परिचय रहता है समाधि मरण करने वाले की आवश्यकता का कि यह ममता से छूटे । वह जोर से समाधि मरण न सुनाएगा । जब यह देखेंगे कि यह अपने ध्यान की ओर बढ़ रहा है तो वह सुनाना बंद कर देगा । किसी भी प्रकार का अशांत वातावरण न हो और इसके ध्यान में बाधा न आए, इस सब रहस्य को, बात को जानने वाला होता है निर्यापक जो समाधिमरण कराने वाला है तो ऐसी बड़ी सद्भावना से सल्लेखना को धारण करने वाले पुरुष ने अपने आपको पूर्ण सावधान रखा । अब यह आराधक सल्लेखना के किसी भी अतिचार को लगने नहीं देता । वह अतिचार कौन हैं सो आचार्य बतलाते है―