वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 130
From जैनकोष
नि:श्रेयसमभ्युदयं निस्तीरं दुस्तरं सुखांबुनिधं।
निःजिवति पीतधर्मा सर्वेदु:खैरनालीढ: ।।130।।
धर्माचरण वाले भव्यात्मावों को अभ्युदयपूर्वक मोक्ष का लाभ―अपने जीवन में व्रत, तपश्चरण, संयम करने वाले और मरण समय में सल्लेखना धारण करने वाले पुरुष के परिणामों की निर्मलता के प्रताप से यह जीव उत्तम कुल भव पाकर मनुष्यभव में निर्ग्रंथ व्रत लेकर अंतस्तत्त्व की अभेदोपासना के बल से मोक्ष को प्राप्त होता है । यह सब आत्मा के सहजस्वभाव रूप धर्म की दृष्टि का और उस धर्म में मग्न होने का प्रताप है । इस मोक्ष में यह जीव सर्व दुःखों से मुक्त होकर आनंदामृत का पान करता है इसी को कहते हैं नि:श्रेयस । श्रेयस मायने कल्याण के हैं और निः का अर्थ है संपूर्ण रूप से । सर्वरूप से कल्याणमय स्थिति को नि:श्रेयस कहते हैं । यह जीव अम्युदय को प्राप्त होकर नि:श्रेयस को प्राप्त होता है । वह अम्युदय क्या है? उत्तम देवपर्याय में उत्पन्न होना और वहाँ असंख्यात वर्षों तक आराम में रहकर धर्म की प्रीति करके प्रसन्न रहना । स्वर्गों में जो दक्षिण दिशा के इंद्र हैं वे एक भवावतारी होते है । एक भव मनुष्य का पाकर मोक्ष जाते है । लौकांतिक देव एक भवावतारी होते हैं । पंच अनुत्तर में से चार अनुत्तर के देव दो भवावतारी होते हैं, मनुष्य के दो भव पाकर मोक्ष जाएँगे । सर्वार्थसिद्धि के देव एक भवावतारी होते हैं । श्रावक 16 स्वर्ग तक उत्पन्न हो सकते हैं । मुनिजन सर्वार्थसिद्धि तक उत्पन्न होते हैं । तो यह श्रावक जिसने कि निर्दोष विधि से जीवन में व्रत का पालन किया और अंत समय में सर्व ममत्व दूर कर अपने स्वरूप में स्थिर होता, ऐसा पुरुष मरण करके 16 स्वर्ग तक उत्पन्न हो लेता है । उसमें कौन श्रावक किस स्वर्ग तक जा सकता है यह संहनन के अनुसार निर्णय है । जैसे छठे संहनन वाला श्रावक 8वें स्वर्ग तक उत्पन्न हो पाता है । यह संहनन आज है सो आज का श्रावक उत्तम परिणाम से रहा ही और अंत में समाधिमरण किया हो वह 8वें स्वर्ग तक जा सकेगा ।
सम्यग्दृष्टि पुरुषों की देव और मनुष्यों के अभ्युदय को पाकर निर्ग्रंथ होकर मोक्ष पाने की रीति―प्राय: ऐसी संख्या अधिक है सिद्ध होने वालो में कि जो मनुष्यपर्याय से देव पर्याय में गए और देव पर्याय से मनुष्य होकर मोक्ष गए । उनकी संख्या उन सबसे अधिक है जो नरक से आकर मनुष्य होकर मोक्ष गए या तिर्यंच से मनुष्य बनकर मोक्ष गए या मनुष्य से मनुष्य बनकर मोक्ष गए । इन तीनों से संख्या उनकी अधिक है जो देव पर्याय से आकर मनुष्य होकर मोक्ष गए । मोक्ष जाने वाले धर्मप्रेमी जीव ही तो होते हैं । और जिनको धर्म में रूचि है ऐसे पुरुष देवपर्याय पाएँ और वहाँ से चलकर मनुष्य होकर मोक्ष जाए यह हुआ करता है । प्राय: क्योंकि कोई भी सम्यग्दृष्टि व्रती मनुष्य यदि पहिले आयु न बंधी हो तो अंत में देवायु बांधकर देवगति में जाएगा या देवायु बांध ली हो पहले तो देवगति में जाएगा । सम्यग्दृष्टि मनुष्य भी सम्यक्त्व के रहते सहते आयु बांधेंगे देवायु ही बांधेंगे । धर्मप्रेमी आत्मा ही मोक्ष जाते हैं और उनकें देव पर्याय पाना प्राय: होता है । सो यहाँ तक का संकेत दिया है कि जिसने धर्म का आचरण किया है ऐसा धर्मात्मा श्रावक स्वर्ग में महर्द्धिक देव होता है और वहाँ से चयकर मनुष्यों में उत्तम मनुष्य होता है । धनिक हो, राजा हो, ऐसा ऊंचा भव पाकर फिर वहाँ से विरक्त होकर संयम अंगीकार करके समाधिबल से निर्वाण की प्राप्ति करते है ।
निर्विकार निर्लेप निस्तरंग सिद्ध भगवंतों की शाश्वत नि:श्रेयसरूपता―वह निःश्रेयस तीर (तट) रहित है अर्थात् वह मोक्ष पर्याय कभी मिटेगा क्या? न मिटेगा, उसका किनारा न आएगा । अनंत काल तक वे सिद्ध अवस्था में रहेंगे । अब जरा अपने आप पर दया करके अपनी बात निरखें कि मुझ को क्या ऐसा ही कर्मसहित रहकर संसार में जन्य मरण करना है या सारे विकल्प छोड़कर एक आत्मदृष्टि सहित इस तत्त्वज्ञान के बल से अपने की निर्मल बनाना है । भव-भव में नए-नए जीव मिलते है । स्त्री, पिता, माता, पुत्रादिक के रूप में जो असंज्ञी जीव है वहां तो यह नाता नहीं चलता, पर संज्ञी जीवों में मनुष्य और तिर्यंचों के ये नाते चलते हैं और देवों में भी माता पिता पुत्र तो नहीं होते मगर देवांगनाएँ संग रहती हैं । तो हर एक भव में नए जीव मिले और वहाँ मरने की आदत के कारण उनसे मोह बढ़ाया, अंत में वियोग होगा, मरण होगा, फिर दूसरे जीव मिलेंगे । तो नये-नथें जीव और प्राणियों को अपना कुटुंब मानकर मोह करने का कष्ट करते रहना यह क्या इस भगवान आत्मा को शोभा देता है? व्यर्थ ही क्यों बन बनकर दु:खी हो रहा है । आनंद स्वरूप तो स्वयं है । अपने स्वरूप की सुध न करके क्रोध, मान, माया, लोभ के वश होकर बाह्य पदार्थों से राग बढ़ाना, द्वेष करना ऐसी बेकार की चेष्टाएँ करके दुःखी होते रहना ही पसंद है क्या? अथवा सिद्ध अवस्था प्राप्त कर अनंतकाल के लिए धर्मास्तिकाय आदिक शुद्ध पदार्थो की तरह सदैव शुद्ध रहना है । निर्विकार होने की शुद्धता को पसंद करें अन्यथा यह जीवन बेकार रहेगा ।
सिद्धपना पाने के लिए एकत्वविभक्त अंतस्तत्त्व के अनुभव की अनिवार्यता―जो सिद्ध भगवंतों की शुद्धता को पसंद करता है और उसका प्रयत्न चाहता है तो उसे यहाँ ही निरखना होगा अपने को कि सर्व चेतन अचेतन पदार्थों से निराला हूँ । ‘केवल अपने सहज ज्ञानस्वरूप हूं’, यह बात क्या अपने में दृढ़ता के साथ जमी हुई है? यदि नहीं जमी हुई है तो यह बड़े खेद की बात है । केवल ऊपर धार्मिक बाना रखने से तो कार्य न बनेगा । जैसे कहते हैं कि कागजों के फूल से खुशबू नहीं आती ऐसे ही इस बनावट से सच्चाई प्रकट नहीं हो सकेगी । बनावट क्या है? पर्याय बुद्धि होत संते जो कुछ भी चेष्टाएँ हैं, मिथ्या भाव हैं । बनावटी पुरुष धर्म में स्थित नहीं है । श्रावक भी अपने देह को देखकर और कुछ अभिमान रखे, मैं रोज जाप देता हूँ, मैं रोज पूजा करता हूँ, इतना धर्म का कार्य करता हूँ, उपवास करता हूँ । 10-10 दिन तक उपवास कर लेता हूँ, भीतर नाता लगा है देह से और देह को देखकर ही मान रहा कि यह मैं हूँ और उस मैं की बात कर रहा तो क्या वह धर्म मार्ग में स्थित है? नहीं स्थित है ।
सहजज्ञानानंदमय अंतस्तत्त्व के सत्याग्रह में आत्मप्रगति―भैया, जो व्रत तपश्चरण आदिक की भी क्रियाएँ हैं उनको भी यदि कोई हठ पूर्वक पालता है, हठपूर्वक पालन को मायने उन व्रतों में एकांत बुद्धि रखते हैं, ऐसी समिति से ही चलना है, इसी से मोक्ष मिलेगा । मैं अपने व्रतों को निर्दोष पालूँ, रंच भी कमी नहीं रहे ऐसी मन वचन काय की चेष्टा हो । ऐसा हठ पूर्वक व्रतों का पालन धर्म मार्ग में नहीं बताया । व्रत तो निर्दोष होना चाहिए मगर व्रतों के पालन के विकल्प की हठ न होना चाहिए । व्रतों के पालने की विकल्प की हठ उनके होती है जिनको आत्मा के सहज स्वरूप का परिचय नहीं मिला और उस सहज चैतन्य स्वरूप के उपयोग द्वारा अलौकिक आनंद का अनुभव नहीं जगा उनके केवल व्रतों में हठ रहती है, पर जिन्होंने आत्मा के सहज चैतन्य स्वभाव को जाना है उसकी बारबार दृष्टि करके स्पर्श किया है अलौकिक आनंद पाया है उस पुरुष के जब मन वचन काय की चेष्टाएँ होती है तो व्रत के अनुसार होती है और उसके ये क्रियाएँ सुगम सहज थोड़े प्रयास से चलती रहती है । ऐसी धर्मदृष्टि पूर्वक व्रत पालन कर मोक्ष मार्ग में बढ़ता है और अज्ञानवश हठपूर्वक द्रव्य व्रतों का पालन विनय व नम्रता को नहीं आने देता कि जिस नम्रता के कारण यह उपयोग अपने सहज स्वरूप की ओर नम जाय, अभिमुख हो जाए । जैसे तीव्र गर्मी में समुद्र का जल भाप बनकर उड़ता है और वह जल भाप की शकल बनकर आसमान में डोलता रहता, जिसे लोग कहते है बादल । इन बादलों का डोलते रहना चलता रहता है । बादल चारों दिशावों में भ्रमण करते हैं, जब इन बादलों में नरमी आती है, वर्षा ऋतु आती है तो ये बादल नीचे बरस जाते हैं । बरसने के बाद यह पानी नीचे की गली से चलता हुआ अर्थात् नीचे ढलाव से ढलता हुआ आखिर उसी समुद्र में मिल जाता है । समुद्र से भाप उठी और ये बादल उड़ते रहे, गड़गड़ाते रहे, भटकते रहे और जब ये नम्र होकर बरसे बहे तो नीचे की ओर बहकर अंत में समुद्र में ही मिल जाते हैं । ऐसे ही हम आप जीवों का उपयोग इच्छा विषय कषाय की गर्मी के कारण संतप्त होकर अपने ज्ञान समुद्र से हटकर बाहर डोलता हैं । गड़गड़ाता है, दु:खी होता है, भटकता रहता है । वह भटकने वाला उपयोग जब कभी नरमी पाए नम्र बने अपने स्वरूप की सुध हो तो यह उपयोग बरसकर नीचे आकर अपनी ओर आकर नम्रता और विनय की गली से बहकर इस ही ज्ञान सरोवर में जब मिल जाता है तो यही कहलाया समाधिभाव । ऐसी उपासना से यह जीव निर्वाण प्राप्त करता है ।
परमसुखांबुधि की दुस्तरता―यह सुख समुद्र दुस्तर है, जिसको पार करना, तिरना कुछ मुश्किल है पर एक ज्ञानकुंजी मिलने पर कुछ मुश्किल नहीं है । खुद ज्ञानस्वरूप है और खुद का ही ज्ञान न बन पाए यह तो उस जैसा अचंभा है जैसे पानी में मछली रहती है और वह प्यासी बनी रहे । यह कितना अन्याय चल रहा है अपने आप पर कि ज्ञानस्वरूप होकर भी स्वयं को नहीं जान पा रहे और राग द्वेषवश बाह्य पदार्थों के जानने का नाटक कर रहा है । जो भव्य जीव अपने आपके स्वरूप को जानता है, उसही की धुन बनाता है, उसही की हठ करता है वह पुरुष योग्य तपश्चरण आदिक विधि से निर्वाण को प्राप्त होता है । आग्रह की हठ हो तो वह अपने आपके सहज स्वरूप की दृष्टि के लिए हो । अन्य जगह की हठ, स्वरूप की बेसुधी बिल्कुल न बने । जिसको स्वरूप की सुध है उसकी हठ अपने आपके स्वरूप के लिए होती है । यह नि:श्रेयस कठिनता से करने योग्य है, क्योंकि इसका पार नहीं है फिर भी जो भव्य आत्मा अपने आपके स्वरूप की अनुभूति के लिए ही कमर कसे हुए रहते हैं, पौरुष शील रहते हैं वे निर्वाण को अवश्य प्राप्त करते हैं । जब हमारे पौरुष से जिसको भी पौरुष समझ रखा है, जो सोचते हैं उन कामों को कर डालते हैं । जो पराधीन हैं, जिन पर हमारा अधिकार नहीं है वे कार्य हमारे विचार और परिश्रम से कैसे हो जाते है । यह विषय एक अलग है, पर हां ऐसा योग हो जाता कि इतना परिश्रम किया वहाँ कार्य बन गया फिर जो स्वाधीन कार्य है उसके ही द्वारा उससे अलग मेरे में कार्य होता है । इतना सरल स्वाधीन कार्य हम पौरुष से न कर सकें यह कैसे होगा? अवश्य ही कर सकते हैं ।
अंतस्तत्त्व के परिचय के बल से मोहरागद्वेषों का प्रक्षय―लोग सोचते है कि मोह और राग छोड़ना बड़ा कठिन है किंतु जिसने मोह राग रहित ज्ञानस्वभाव मात्र निज स्वरूप को पहिचाना है उसका मोह राग छूट जाता है । परिस्थितिवश कभी कोई राग करना पड़ रहा है तो वह कब तक करना पड़ रहा होगा, वह भी खतम होगा ही । जैसे किसी वृक्ष को जड़ से उखाड़कर गिरा दिया जाय तो उखाड़ दिया जाने पर भी उसके वे पत्ते हरे तो रहते है पर कब तक हरे रहेंगे? एक दिन रह लें, दूसरे दिन रह लें, आखिर सूख ही जाते हैं, ऐसे ही जिस व्रती श्रावक का मोह गल गया है, आत्मानुभव जग गया है, सहज स्वरूप में रमकर आनंद पाया है उसको संहनन आदिक की निर्बलता के कारण संग में रहना पड़ रहा है । गृहस्थी में रहना पड़ रहा है और वहाँ कुछ राग होता है तो वह राग कब तक टिकेगा? टिक नहीं सकता ।
धर्मधारी के कषायों के लगाव की असंभवता―धर्म पालन के जितने भी अंग हैं उन सबका मूल है स्वभाव प्रतीतिरूप धर्मपालन । धर्मपालन यह हैकि अपने सहज स्वरूप में ‘यह मैं हूँ’ इस प्रकार का अनुभव बने । मैं अन्य कुछ नहीं हूँ । परमार्थ तत्त्व को देखिए―घर में रहने वाले माता-पिता, पुत्र-स्त्री वाला अथवा किसी पार्टी वाला मैं नहीं हूँ । व्यापारी नहीं, सर्विस वाला नहीं । बालक, वृद्ध, जवान आदिक किसी भी रूप वाला मैं नहीं, मैं गृहस्थ नहीं, मैं त्यागी नहीं, मैं मुनि नहीं, मैं इन किसी भी रूप नहीं हूँ । ज्ञानस्वभाव मात्र हूँ, यह जिसकी दृष्टि रहती है वह पुरुष किस पर क्रोध करेगा? क्रोध करने का उसका अब प्रयोजन क्या रहा? जगत के कुछ भी समागम उसके प्रयोजन से अलग हो गए, वह किस बात पर मान करेगा? किसको मान बताएगा? किसमें बड़ा बनना है? यह सब मायारूप चक्र है? यह मैं आत्मा अपने आप में अविकार स्वभाव ज्ञानमात्र पदार्थ हूँ । उसके स्पर्श बिना, अनुभव बिना यह उपयोग बाहर में कहां-कहां भटक कर दुःखी होता? और दुःखी हो इतना ही नहीं, न जाने कैसे-कैसे देहों की विडंबना पायी, पेड़ बना, लट केंचुआ बना, चींटी, चींटा, बिच्छू आदि बना ढंग बेढंगे पशुपक्षी बने तो यह भगवान आत्मा के शोभा की बात है क्या? यह सब कलंक है । यह देह कलंक है । देह से पृथक् अंतस्तत्त्व में जिस भव्यात्मा के आत्मबुद्धि हुई है उसके लिए नाम का क्या प्रश्न है? भले ही लोकव्यवहार के लिए नाम रखा है, व्यवहार चल रहा है, पर उसको कहीं भी मान नाम की बात नहीं है । अपने सहज ज्ञानस्वरूप की अनुभूति पाने वाले भव्य जीव मायाचार कैसे कर पाएँगे? जैसे मोहियों को यह संदेह होता कि कोई भी मनुष्य मोह रागद्वेष कैसे छोड़ सकता है? ऐसे ही यह संदेह बनाइए कि ज्ञानी पुरुष सहज अंतस्तत्त्व का रुचिया पुरुष कैसे क्रोध, मान, माया, लोभ कर सकता है? मायाचार एक बहुत बड़ा कलंक है । जब तक माया की प्रकृति रहती है तब तक धर्मलाभ नहीं मिल सकता । चार कषायों में माया कषाय को शल्य की संज्ञा दी है । क्रोध, मान और लोभ को शल्य नहीं कहा पर माया को शल्य में बताया । ज्ञानी पुरुष को माया करने का कुछ भी प्रयोजन नहीं । किसमें मायाचार करना? जगत का कौनसा काम पड़ा है जिस लौकिक के होने से, करने से आत्मा का अभ्युदय हो जाए । जब कुछ प्रयोजन न रहा तो यह मायाचार क्या करेगा? ज्ञानी पुरुष को अंत: तृष्णा भी नहीं रहती । जिसने देह से निराला अपने को अनुभवा है उसको फिर किस विषय की तृष्णा है? वह इंद्रिय विषय को चाहता ही नहीं है । भले ही जीवन है तो आहार करना पड़ता है । पर ये तृष्णा के रूप नहीं है वह धर्म के रूप हैं । एक पुरुष आहार करके पाप बांधता है और एक पुरुष आहार करके पुण्य बांधता है । जो संयम की रक्षा के लिए जीवन को आवश्यक जानकर एक जीवन चलाने के लिए ही आहार करता है वह पाप नहीं बांधता हैं, क्योंकि लक्ष्य उसका उत्तम है । और जो रसास्वाद के लिए आहार करे वह पाप बांधता है । ज्ञानी विवेकी जीव को लोभ कषाय का कोई प्रयोजन नहीं है, सो यह आत्मा में मग्न होकर सर्व दुःखों से अछूता होकर नि:श्रेयस को प्राप्त करता है।