वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 133
From जैनकोष
काले कल्पशतेऽपि च गते शिवानां न विक्रिया लक्ष्या ।
उत्पातोऽपि यदि स्यात् त्रिलोकसंभ्रांतिकरणपटु: ।।133।।
सिद्ध भगवंतों में सदा के लिए विकार की असंभवता―अनंत कल्पकाल भी व्यतीत हो जाएं तो भी मुक्त आत्मावों के कभी भी विक्रिया नहीं आ सकती । चाहे ऐसा भी उपद्रव सामने आए कि जो उपद्रव तीन लोक को भी विचलित करने में समर्थ हो ऐसा उत्पात भी हो तब भी मुक्त आत्मावों में कभी विकार संभव नहीं है । कल्पकाल किसे कहते हैं? उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी दीनों का जितना समय है उसे कल्पकाल कहा जाता है । उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में कितना समय है, सो यह छह तरह के कालों से विदित होता है । पहला, दूसरा, तीसरा, चौथा, पाँचवां, छठा काल इस क्रम से चले तो उसे बोलते हे अवसर्पिणी काल और छठा, 5वां, चौथा, तीसरा, दूसरा और पहला इस प्रकार से काल चले तो उसे कहते है उत्सर्पिणी काल । इन दोनों उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल के समय को कल्पकाल कहते हैं ।
सुषमासुषमा नामक प्रथमकाल की परिस्थितियों का दिग्दर्शन―पहले काल में भोगभूमिया जीव होते हैं, जिनकी तीन पल्य की आयु होती है, जिसमें असंख्याते वर्ष आ जाते हैं । तीन दिन में बहुत ही थोड़ीसी क्षुधा होती है सो छोटे बेर प्रमाण कल्पवृक्ष से उनका आहार प्राप्त होता है और इतने से ही ये तुष्ट हो जाते हैं । ये जुगलीयां उत्पन्न होते हैं बालक बालिका और ये ही परस्पर सुख पूर्वक रहते हैं वहाँ व्रत की प्रक्रिया नहीं होती है । अव्रती ही रहते हैं सब, जिंदगीभर सुख आराम से रहते हैं । इस प्रथम काल की स्थिति है चार कोड़ाकोड़ी सागर । एक करोड़ सागर में स्व करोड़ सागर का गुणा किया जाए, जितना काल लब्ध हो उसे कहते हैं कोड़ाकोड़ी सागर । ऐसे चार कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण प्रथम काल है । एक कोड़ाकोड़ी सागर में अनगिनते वर्ष होते हैं, जिन्हें उपमा द्वारा बताया गया है । इतने लंबे काल को उपमा द्वारा ही बताया जा सकता है । और कोई उपाय नहीं है कि जिससे उस काल की परख की जा सके । उपमा इस प्रकार दी गई हैकि मानों दो हजार कोश का लंबा चौड़ा गहरा गड्ढा हो और उसमें बहुत कोमल बाल के टुकड़े जिनका कि कतरनी से दूसरा टुकड़ा न बन सके, उन छोटे-छोटे टुकड़ों को बड़े विशाल गड्ढे में ठसाठस भरा जाए, मानो उस पर हाथी फिरा दिया जाए, खूब ढूँसकर भर जाए, अब उनमें से प्रत्येक 100 वर्ष में एकएक बाल का टुकड़ा निकाला जाए तो इस तरह से जितने काल में निकलें वह है व्यवहार पल्य । उससे असंख्यात गुना होता है उद्धारपल्य । और उससे भी असंख्यातगुना समय होता है उद्धारपल्य । ऐसे 10 कोड़ाकोड़ी अद्धापल्य का एक सागर होता है । ऐसे 4 कोड़ाकोड़ी सागर तक उत्तम भोगभूमि रहती है इस भरत क्षेत्र में । ढाईद्वीप के अंदर 5 भरत और 5 ऐरावत क्षेत्र हैं उनमें इसी तरह से क्रम चलता है ।
दूसरे और तीसरे काल की परिस्थितियां―सुषमा सुषमा काल के बाद दूसरा काल आता जिसमें मध्यम भोगभूमि रहती । मनुष्यों की दो पल्य की आयु रहती । तीसरे काल में जघन्य भोगभूमि होती । वहाँ एक पल्य की स्थिति रहती जब तीसरे काल का अंत होता है और कल्पवृक्ष मंद हो जाते हैं, लोगों को तकलीफ होने लगती है, भोग भूमि के समय में सिंह हाथी वगैरह भी थे मगर वे भी निकट रहते थे । क्रोध करना, मारना, ये कुछ न चलते थे फिर ये जानबूझकर क्रूर होने लगे । चंद्र सूर्य के दर्शन न होते थे भोगभूमि के समय में कल्पवृक्ष की ज्योति के आगे । अब कल्प वृक्षों की ज्योति मंद होने से चंद्र सूर्य दिखने लगे । कल्पवृक्ष भोजन आहार कम देने लगे, यहाँ लोगों के भूख बढ़ने लगी तो कल्पवृक्ष का बंटवारा चला । इतने लोगों के लिए इतने क्षेत्र में कल्पवृक्षों से काम करें । चंद्र सूर्य और सिंहादिक से जो भय होने लगे तो कुलकरों ने वह भय टालने का उपदेश दिया, प्रयत्न बताया । धीरे-धीरे कर्मभूमि आने लगी तो वे सब सुख सुविधाएँ विघटने लगीं ।
चौथे, पांचवे व छठे काल की परिस्थितियां व कल्पकाल का परिमाण―तीसरी भोगभूमि याने जघन्य भोगभूमि के अंत में अब लगता चौथा काल तो उसके प्रारंभ में तीर्थंकरों की उत्पत्ति होती । अब वहाँ से कर्मभूमि लगी । कुलकरों ने लोगों को जिंदा रहने के उपाय बताये और खासकर इस भरत क्षेत्र में तो ऋषभदेव भगवान हुए । असि मसि कृषि वाणिज्य शिल्प सेवा के षट् कर्म का उपदेश देकर लोगों को अभय किया । यह सब बताया था ऋषभ देव ने गृह अवस्था में । चौथे काल में निर्ग्रंथ दिगंबर होकर मोक्ष जाने का उपदेश चल उठता । चौथे काल में उत्पन्न हुआ जीव पंचम काल में भी मोक्ष जाता है, पर पंचमकाल में उत्पन्न हुआ जीव मोक्ष नहीं जाता । आज यह पंचमकाल है, इसके बाद छठा काल आएगा जहाँ अग्नि, धर्म, ये कुछ न रहेंगे, भोजन रसोई कुछ न रहेगा । मनुष्य हों या पशु हों सब मांस पर ही जीवित रहेंगे । इतना निकृष्ट काल है । जहाँ आयु 20 वर्ष की रहेगी । एक हाथ प्रमाण के मनुष्य होंगे । जब यह छठा काल पूर्ण होगा तो अंत में प्रलय होगी भरत क्षेत्र के आर्यखंड में । इस प्रलय में 49 दिन तक अग्नि वर्षा आदि द्वारा प्रलय होती है सबका विध्वंस होता । पर कुछ जीव बच जाते जिन्हें देवों ने गुफावों में रख कर बचाया । कोई विचारे खुद गुफादिक सुरक्षित स्थान में पहुंच कर बच जाते । प्रलय के बाद फिर 49 दिन अच्छी वर्षा होती है । वे बचे हुए जीव निकलने लगते है और फिर उनसे आगे संतान होती, संख्या बढ़ने लगती है । अब वह छठा काल हो गया उत्सर्पिणीकाल का । इस छठे के बाद पंचम काल आएगा । पंचम काल के बाद चौथा काल आएगा जिससे फिर निर्वाण होना शुरु होगा । उसके बाद तीसरा दूसरा और पहला इस प्रकार उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल का जितना समय है वह एक कल्पकाल कहलाता है । कितने हुए ये सब? 20 कोड़ाकोड़ी सागर । पहले का चार कोड़ा कोड़ी सागर, दूसरे का 3 कोड़ाकोड़ी सागर, तीसरे का दो कोड़ा कोड़ी सागर, चौथे 5वें, छठवें का एक कोड़ा कोड़ी सागर, जिसमें पंचम काल 21 हजार वर्ष का है, छठा भी 21 हजार वर्ष का है । यों 42 हजार वर्ष कम करके बाकी सारा एक कोड़ा कोड़ी सागर चौथे काल का होता है । ऐसे 20 कोड़ा कोड़ी सागर का एक कल्पकाल और ऐसे अनंत कल्पकाल भी गुजर जाएं और तीन लोक को विचलित कर सकने वाला उपद्रव भी खड़ा हो तो भी मुक्त आत्मावों में कभी भी विक्रिया संभव नहीं है ।
श्री ऋषभदेव से पहिले अठारह कोड़ाकोड़ी सागर काल जक धर्मतीर्थ की अप्रवृत्ति―एक भजन बोला जाता है कि 18 कोड़ा कोड़ी सागर व्यतीत हुए बाद धर्म तीर्थ की प्रवृत्ति हुई । भजन की टेक है―अठदश कोड़ाकोड़ी सागर सुस्थ काल जब बीत गए । प्रथम तीर्थंकर आदि जिनेश्वर अवतरहि धर्म कृतार्थ भए । जिसका अर्थ है कि 18 कोड़ाकोड़ी सागर तक धर्म की प्रवृत्ति यहाँ नहीं रही, उसके बाद ऋषभदेव भगवान का अवतार हुआ और वहाँ पुन: तीर्थप्रवृत्ति चली तो आप उसकी गणना लगाएँ कि ऋषभ देव जब उत्पन्न हुए उससे पहले 18 कोड़ा कोड़ी सागर तक धर्म न रहा । वह किस तरह? तो ऋषभ देव भगवान अवसर्पिणी काल के तीसरे काल के अंत में चौथे काल से कुछ पहले हुए तो उनको पहले कितना समय और गुजरा? तो ऋषभदेव के जन्म के समय से पहले दो कोड़ाकोड़ी सागर का तीसरा काल था । उससे पहले तीन कोड़ाकोड़ी सागर का दूसरा काल था, उससे पहले 4 कोड़ा कोड़ी सागर का पहला काल था, फिर उसके पहले चार कोड़ा कोड़ी सागर का पहला कौन था और उससे पहले तीन कोड़ा कोड़ी सागर को दूसरा कौन था । उससे पहले दो कोड़ा कोड़ी सागर का तीसरा काल था । उससे पहले तीर्थंकर हुए थे । इस तरह 9 कोड़ा कोड़ी सागर उत्सर्पिणी के और 9 कोड़ा कोड़ी सागर अवसर्पिणी के ऐसे 18 कोड़ा कोड़ी सागर के काल में धर्मतीर्थ न था, फिर ऋषभदेव के समय धर्म की प्रवृत्ति- हुई ।
ऋषभदेव भगवान की लोकपूज्यता―आज भी ऋषभदेव को लोग अनेक रूप में मानते है । कोई ब्रह्मा के रूप में, कोई शंकर के रूप में, कोई आदम बाबा के रूप में और कोई ऋषभदेव के रूप में मानते हैं । ब्रह्मा के रूप में तो लोग यों कहने लगे कि भोगभूमियों के व्यतीत होने के बाद विकट समस्या का काल आ गया । लोग कैसे खाएं पिये, जिंदा रहे, यह एक विकट समस्या आ गयी थी । इस समय जो प्रभु ने व्यवस्था बतायी तो वह मानो एक नए जन्म की तरह, नई सृष्टि की तरह थी सो उन्हें एक सृष्टिकर्ता के रूप में माना जाने लगा । धर्मतीर्थ की रचना भी चली सो भी स्रष्टा कहलाने लगे । लोग ब्रह्मा को चार मुख वाला बताते हैं तो बात यह है कि वे ऋषभदेव जब समवशरण में विराजे थे तो वे चतुर्मुख थे । इन्हीं प्रभु को लोग शंकर या कैलाशपति के रूप में मानते है । चूँकि कैलाश पर्वत पर उनका बहुत अधिक समय व्यतीत हुआ था और ऋषभदेव कैलाश पर्वत से मुक्त भी हुए । और सुख देने वाले होने से शंकर कहलाएँ, शं सुखं करोति इति शंकर: । उन्हें कोई आदिम बाबा भी कहते है, औरभी एक बात देखने को मिलती कि यदि कोई कैलाश पर्वत के निकट पहुंचे और वहाँ के लोगों से पूछे कि किधर है कैलाश पर्वत का रास्ता बता दो, हम कैलाश पर्वत जाएंगे? तो वहाँ लोग आश्चर्य से आकर कहेंगे क्या आदम (आदिम) बाबा के स्थान पर जायेंगे? आदिम कहते है उसे जो आदि में हो । जैसे जो अंत में हो सो अंतिम ऐसे ही जो आदि में हो सो आदिम । तो इतनी प्रसिद्धि क्यों हुई कि वह ऐसी विकट समस्या का समय था कि लोगों को कोई मार्ग का बोध न था कि अब हम कैसे जिंदा रह सकते । तो उस समय की व्यवस्था ऋषभदेव ने गृहावस्था में बतायी । यद्यपि ऋषभदेव कुलकर न थे । कुलकर तो उनके पिता नाभिराज थे । वे 14वें कुलकर हुए । उससे पहले 13 कुलकर और हुए । उन कुलकरों का काम था कि ऐसी विकट समस्या जब आती थी कि किसी समय सूर्य चंद्र दिखने लगे, किसी के सामने सिंह गुजरने लगे ऐसी विविध घटनाएँ आयी, उस समय इन कुलकरों ने इन समस्याओं का समाधान किया ।
परमात्मा में विकार की अत्यंत असंभवता―यहां बतला यह रहे हैकि ऐसे कल्पकाल सैकड़ों गुजर जाएँ और बड़े-बड़े उत्पात भी हो जाएँ तो भी सिद्ध प्रभु के कभी विकार संभव नहीं है । अब तो उनकी स्थिति धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य, आकाश द्रव्य, काल द्रव्य की तरह विशुद्ध स्थिति है । यद्यपि परिणमन बंद नहीं हुआ है । परिणमन करना तो वस्तु का स्वभाव है, प्रत्येक पदार्थ निरंतर परिणमता रहता है, और इस तरह धर्मादिक द्रव्य भी निरंतर परिणमते रहते हैं । तो वह सब परिणमन स्वाभाविक शुद्ध परिणमन होता है । यों कह लीजिए कि ‘सकल ज्ञेय ज्ञायक तदपि निजानंदरस लीन ।’ वे तीन लोक तीन काल के समस्त पदार्थों के जाननहार हैं किंतु अपने अनंत आनंदरस में लीन रहते है । प्रभु का परिणमन जिस भव्य आत्मा की समझ में आ जाए वह स्वभाव का अनुभव कर लेता है, अलौकिक आनंद का अनुभव कर लेता है और उसका यह निर्णय बन जाता हैकि काम तो एक यही सारभूत है । बाकी सब असार काम है । प्रभु का परिणमन केवल ज्ञाता द्रष्टा रहना है, प्रतिभास हो रहा है, समस्त का प्रतिभास कर रहे । यहाँ कोई ख्याल कर सकता कि जैसा प्रभु जान रहे वैसा अगर हम जानते तब तो फिर बड़ा ही अच्छा होता । सारी चीजों के भाव हमारे ज्ञान में पहले से ही आ जाते, फिर तो हम मालोमाल बन जाते । प्रभु को उस ज्ञान के पाने से क्या फायदा (हंसी) ऐसा कुछ लोग सोचे सकते, मगर यह जाने कि जिसके ऐसी भावना हो कि ज्ञान होता तो मैं कुछ से कुछ बन जाता, तो ऐसा जीव कभी केवल-ज्ञान ही नहीं कर सकता । सबको जानने वाले वे प्रभु सर्वज्ञ तब ही है जबकि उनके चित्त में रंच भी विकार नहीं है । ऐसे ये प्रभु सदैव के लिए मेरे नमस्कार किए जाने योग्य और अनंत आनंद को भोगने वाले होते है ।