वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 135
From जैनकोष
पूजार्थाज्ञैश्वयैर्बल परिजनकामभोगभूयिष्ठै: ।
अतिशयितभवनमद्भुतमभ्युदयं फलति सद्धर्म: ।।135।।
सद्धर्म का अद्भुत अतिशयित फल―सद्धर्म महान् अभ्युदय का फल देता है । ये अम्युदय लौकिक और अलौकिक दो प्रकार के है । अलौकिक अभ्युदय तो है मोक्ष, जिससे बढ़कर अन्य कोई पद नहीं है और लौकिक अम्युदय है इंद्र हो जाना चक्री हो जाना आदि । ऐसे अम्युदय के संबंध में यहाँ यह कहा जा रहा हैकि सद्धर्म अतिशयित अम्युदय का फल देता है । सो धर्म तो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय है । रत्नत्रय से निर्वाण लाभ है । आत्मस्वभाव विकास रूप के रत्नत्रय के भावों से तो इंद्रादिक की पदवी नहीं मिलती । इन भावों से तो मोक्ष मिलता है । रत्नत्रय भावों के होते संते जो शुभ राग शेष रहता है उस शुभ राग का फल है कि इंद्र चक्री आदिक पद प्राप्त होना । तो इसमें तो रत्नत्रय धर्म की और बड़ी महिमा ज्ञात होती हैकि जिस रत्नत्रय का संग पाकर राग भी इतने ऊंचे पद को दिला देता है । तब फिर रत्नत्रय की महिमा तो कह ही कौन सकता है? रत्नत्रय है आत्मा का विकास और शुभ राग है आत्मा का विकार । मगर है वह शुभ । तो धर्म का संबंध पाकर जो रागद्वेष होता है वह भी धर्म कहलाने लगता है । जैसे श्रावकजन पूजन आदिक करते हैं तो श्रावकों को आत्मा के स्वरूप का अनुभव होता है और आत्मा के सत्यस्वरूप को दृष्टि में रखते है और जानते हैकि यह स्वभाव जहाँ प्रकट हो गया वही है प्रभु । ऐसा परिचय रखने वाला श्रावक पूजा करके भी यथोचित धर्म का लाभ ले लेता है, किंतु जिनको आत्मा के स्वरूप का परिचय नहीं है, अनुभव नहीं है, वे पूजा करके भी धर्मलाभ नहीं ले पाते । किंतु जितना मंद कषाय हो उसके अनुसार पुण्य लाभ पाते है ।
पाप, पुण्य व धर्म के फलों का संकेत―भाव तीन प्रकार के हैं―पाप पुण्य और धर्म । पाप भाव तो अत्यंत खोटा है, उसके फल में तो जीव नाना दुर्गतियों में जन्म लेता है, मरता है, खोटी गतियों को ही पाता है । और पुण्य के प्रभाव से सद्गति में जन्म होता है । अब वहां भी यदि व्यवहार धर्म सहित पुण्य लाभ किया तो वह अच्छी समृद्धियां पाता है और व्यवहार धर्म भी नहीं है, पर हां कुछ दयाभाव होने से पुण्य बंध रहा है, जैसे प्राणियों को भोजन आदिक देना, उनकी क्षुधा आदिक मेटना, ठंड में रहने वालों को कपड़ा देना, लौकिक दुःख मिटा देना इस प्रकार की जो दयारूप प्रवृत्ति कर के पुण्य लाभ पाते है उस पुण्य से भी गति कुछ अच्छी तो होती है मगर ऊंचे स्वर्ग या नवग्रैवयक आदिक के पद नहीं प्राप्त कर सकते । जिस आत्मा में रत्नत्रय धर्म का संबंध हो व कुछ आत्मा में राग भी हो तो वह राग भी ऊंचे अभ्युदय को प्रदान करता है । धर्म का फल तो मोक्ष धाम का लाभ है । इन तीनों भवों में उत्कृष्ट भाव धर्म परिणाम है ।
सद्धर्म के फल में पूजा और अर्थ का अतिशय―अतिशय क्या-क्या हैं जिन अतिशय सहित सद्गति प्राप्त होती है । पूजा, प्रतिष्ठा, इज्जत मिल जाना, जैसे इंद्र हुए तो अनेक देवों के द्वारा आदरणीय हुए, बड़े-बड़े चक्रवर्ती राजा महाराजा हुए वे भी लोगों के द्वारा आदर की दृष्टि से देखे जाते हैं । अथवा योगीजन हुए तो उस योग अवस्था में आदर प्राप्त करते है । सो पूजा, इज्जत, यश जहाँ अतिशय पाया जाता है ऐसे अतिशयों से युक्त अभ्युदय को प्राप्त होते हैं धर्म के प्रभाव से । एक अतिशय अर्थ का भी हैं, धनिक हो जाना, जैसे मनुष्य प्राय: दो बातों की कल्पना करते है कि मैं राजा होऊं या करोड़पति होऊं । कुछ सुन रखा हो तो मैं देवेंद्र होऊं, ऐसा भी सोचने लगते है । तो यह लोक में आश्चर्यसा माना जाता है । तो धन का लाभ होना यह भी सद्धर्म का फल है, जब-जब लोकवैभव की बात कही तब-तब यह अर्थ लेना कि रत्नत्रय जिस आत्मा में है उसमें जो राग रह गया है वह राग व्यवहार धर्म कहलाता है । जैसे पूजा करना तप करना यह सब व्यवहार धर्म है, तो वास्तविक धर्म के प्रसंग में इन व्यवहार धर्मों में भी इतना माहात्म्य हैकि लौकिक अभ्युदय इनके द्वारा प्राप्त होता है । ऐसी बात सुनकर व्यवहार बनाना अर्थात् शुभ राग पर आग्रह न करना किंतु यह जानना कि इस शुभ राग में, व्यवहार धर्म में निश्चय धर्म के प्रसंग में यह माहात्म्य है तब निश्चय धर्म की दृष्टि और आस्था करना और उस रूप अपना लक्ष्य बनाना । तो विशेष धनिक हो जाना, कोट्याधीश हो जाना यह लौकिक अतिशय है । अम्युदय है यह भी धर्म द्वारा प्राप्त होता है । मनुष्यों को अपने जीवन में सदैव उच्च विचार रखना चाहिए । किसी जीव को मेरे द्वारा बाधा न हो, चाहे किसी प्रसंग में खुद दु:खी हो जाए तो वह अपना दु:ख अपने को समझाकर मिटा लेगा, किंतु अपनी कोई चेष्टा ऐसी न हो कि जिससे दूसरों को बाधा पहुंचे जितना अपने से बने उतना धर्म कार्यों में सहयोग दें, पर ऐसा कभी मन में कषाय न लाना कि दूसरे के द्वारा कोई धर्म कार्य बन रहा है तो उसमें अड़चन डालें, विघ्न डालें, क्योंकि धर्म प्रसंग में ऐसा भी कभी-कभी चित्त में कषायभाव जग जाता है कि यह कार्य मेरे द्वारा हो तो ठीक है, दूसरे का नाम हो तो वह नहीं सहा जाता । तो दो बातों का जीवन में मुख्य ध्यान रखना है कि एक तो अपनी चेष्टा वृत्ति द्वारा किसी दूसरे को बाधा न पहुंचे और कोई कैसे भी व्यवस्था बनाता रहता है तो उसके धर्म में विघ्न न डालें, दूसरे व स्वयं यथा शक्ति धर्मकार्यों में सहयोग करें ये दो बातें जीवन में रहें तो समझो कि वह अपनी गृहस्थी की परिस्थिति में धर्म लाभ का ही काम कर रहा है । तो ऐसा धर्म का फल है पूजा प्रतिष्ठा पाना और लौकिक धन वैभव संपदा प्राप्त होना ।
सद्धर्म के फल में आज्ञा व ऐश्वर्य का लौकिक अतिशय―लौकिक अतिशय आज्ञा और ऐश्वर्य भी है । दूसरे जीवों पर आज्ञा चले, ऐसी आज्ञा करने लायक महत्त्व पा लेना यह भी सद्धर्म का फल है । ऐश्वर्य जिसमें कुछ पराधीनता न रहनी पड़े । सब कुछ सुविधाएँ अपने आपको प्राप्त हों जिससे किसी भी कार्य के लिए दूसरों की अधीनता न करनी पड़े । ऐसे वातावरण को कहते हैं ऐश्वर्य । जहाँ ऐश्वर्य होता है वहाँ आज्ञा देने लायक महत्ता स्वयं प्राप्त हो जाती है । इन अभ्युदयों को बता रहे है लौकिक दृष्टि से भले है । परमार्थ दृष्टि से देखा जाए तो यह सब भी क्लेश है । आज्ञा मानने वाला पुरुष जितना कष्ट में नहीं है उससे अधिक कष्ट में रहता है आज्ञा देने वाला पुरुष । फिर भी लौकिक दृष्टि में महत्ता तो आज्ञा देने वाले की होती है । वह सब पुण्य का फल है । तो ऐसा सुख सुविधा का प्रसंग, ऐसा लौकिक अतिशय उस प्राप्त पुण्य के फल से प्राप्त होता है ।
सद्धर्म के फल में विशिष्ट बल आदि का लौकिक अतिशय―बल प्राप्त होना लौकिक अभ्युदय है । पुराणों में सुना जाता हैकि श्रीपाल कोटिभट थे अर्थात् एक करोड़ योद्धावों में जितना सामर्थ्य होता है उतना उनमें था । और भी अनेकों बड़े-बड़े बलशाली लोग सुने जाते है तो शरीर का बल आना यह भी तो सद्धर्म का फल है । अर्थात् धर्मयुक्त आत्मा में शुभराग वश जो पुण्य आया उसका फल है । जितनी बातें घमंड करने के लिए आश्रयभूत होती है समझ लीजिए कि वह सब वैभव पुण्य के प्रताप से प्राप्त होता है । सो कोई मनुष्य इन सब वैभवों को प्राप्त करके यदि दूसरों पर अन्याय को तो ऐसा पाप करने वाला पुरुष अब कहां जाएगा? नारकादिक दुर्गतियों में जाएगा । तो एक निगाह से अगर देखें तो पुण्योदय ने साक्षात् तो नहीं मगर परंपरया नरक भेजा । कैसे? उस पुण्योदय से वैभव ऐश्वर्य बना, उससे मतवाले हुए, अन्याय किया और दुर्गति में गए । सो यद्यपि साक्षात् पुण्य ने नहीं भेजा पर पुण्यफल पाकर यदि यह विवेकी नहीं रहता तो यह संसार में दुर्गतियों में जन्म लेता है । परंतु जहाँ सद्धर्म का प्रसंग मिला है और वहाँ पुण्य से जो वैभव मिला है तो उसमें धारा धर्म की रहती है और धर्म की आराधना से यह मोक्ष के अभ्युदय को प्राप्त होता है । लोक में अनेक आज्ञाकारी परिजन व भोग सुविधाएँ मिलना यह भी अतिशय है, लोक में आदर से देखने योग्य बात है । तो ऐसी भोग सुविधाएँ इंद्रियविषय देह के आराम लोगों द्वारा एक धनी इज्जत, ये सारी बातें सद्धर्म के साथ हुए व्यवहार धर्म के फल है । समाधिमरण में रहने वाला पुरुष इस प्रकार धर्म का चिंतन करता है और अपने आपके आत्मा को सावधान करता है जिससे कि अपने इस सहज आत्मस्वरूप में ही रमे । इस प्रकार समंतभद्राचार्य ने समाधिमरण के प्रसंग में उपदेश किया है ।
दिन रात मेरे स्वामी मैं भावना यह भाऊं ।
देहांत के समय में, तुम को न भूल जाऊं ।।
।।रत्नकरंड प्रवचन तृतीय भाग समाप्त।।