वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 145
From जैनकोष
बाह्येषु दशसु वस्तुषु ममत्वमुत्सृज्य निर्ममत्वरत: ।
स्वस्थ: संतोषपर: परिचित्तपरिग्रहाद्विरत: ।।145।।
अर्थ―जो बाह्य दश प्रकार के धन धान्यादिक परिग्रहों में समत्व का त्यागकर निर्मम भाव में लीन रहता हुआ संतोषपूर्वक आत्मा में स्थित रहता है वह रातदिन परिचय में आने वाले परिग्रह से विरत पद का धारी है ।
परिग्रह विरत श्रावक का मोक्ष मार्ग में बढ़ना―ज्ञानमय सहज आनंदस्वरूप निज परमात्म तत्त्व की प्रबल भावना के कारण इसके परिग्रह के प्रति रंच भी लगाव न रहा । सो अब यह 10 प्रकार के परिग्रहों को त्यागता है एक थोड़े से वस्त्र और एक आध पात्र रखता है बा की सर्व का त्याग कर देता है । उस समय अपने कुटुंब की बाद की जिम्मेदारी को बोलकर अपनी भावना बताता है । अब परिग्रह के प्रति भाव न रहा । मैं परिग्रह का त्याग कर रहा हूँ । यह नौवीं प्रतिमा संबंधी त्याग है । यह परिग्रह त्याग मुनि के परिग्रह त्याग बराबर नहीं है । वह तो महाव्रत में हैं और यह अभी देशव्रत में है । अपने लिए वस्त्र, कमंडल इतने मात्र रखा है, सो अपने पुत्रादिक से कह रहा कि अब तुम इसकी सम्हाल करो और जो गृहस्थी में रहकर सामाजिक धार्मिक कार्य आते हैं, जिन में धन त्याग करना पड़ता है वे सब बहुत ही सम्हाले, मैं तो इनसे अलग होकर अपने निर्विकल्प अखंड ज्ञायक स्वरूप परम ब्रह्म में दृष्टि को दृढ़ करने के अभ्यास के काम में जा रहा हूँ । सो जिसको कुछ देना था, जो विभाग करना था वे सब विभाग करके रुपया पैसा, सोना, चांदी गोधन, मकान सभी का त्याग कर देता है । अब यदि यह उसी घूर में रहता है पुत्रों के कहने से तो रहा आता है, पर उसके भावों में यह नहीं है कि मैं अपने मकान में रह रहा हूँ । जिस काल पुत्र थोड़ी भी निगाह फेरेंगे, संकेत करेंगे कि अब यहाँ से जाइये, तो यह चला जाता है । इसके लिए मंदिर या सार्वजनिक स्थान, त्यागीजनों के ठहरने के स्थान ये सब बेरोकटोक पड़े है ।
परिग्रह विरत श्रावक की वृत्ति―परिग्रह विरत श्रावक परिग्रह का त्यागकर थोड़े मूल्य के वस्त्र रखता है । बहुत मूल्य की चीजें रखने में त्यागी साधु के लिए शोभा की बात नहीं है । इतनी ही बात नहीं, किंतु एक कलंक है । बहुत बढ़िया पेन रखे, बहुत बढ़िया सुहावनी चटाई रखे, बहुत कीमती अनेक बातें रखे तो उनसे चित्त में बिगाड़ ही है, विकार ही है, लाभ क्या है? जिन बाह्य पदार्थों से राग बने, ऐसी बहुत मूल्य की चीजें अगर पास में है तो कही यह चीज गुम न जाय, ऐसा भाव भी रखेगा । कोई चुरा न ले इसलिए थोड़ा सुरक्षा का भी भाव रखेगा, तो ये सब आत्मा की आराधना में बाधक हैं । आत्मकल्याणार्थी को तो केवल निज ब्रह्मस्वरूप से ही अनुराग है, उसका सारा चिंतन, उसका सारा बोल, उसकी चेष्टा केवल उस ब्रह्म भक्ति के लिए ही है । थोड़े मूल्य के प्रामाणिक वस्त्र रखता है । हाथ पैर धोने के लिए मात्र बर्तन रखता है । यह रहता कहां है? पुत्रादिक निवेदन करें तो वह घर के किसी अलग कमरे में रहता है या अन्य एकांत में रहता है । भोजन वस्त्रादिक घर का देवे तो उसे भी ग्रहण कर लेता है, कोई दूसरा भक्तिपूर्वक देवे तो उसे भी ग्रहण कर लेता है । कभी कोई शारीरिक व्यथा हो, असह्य वेदना हुई तो बता भी देता है घरवालों को और वे वैयावृत्य करे तो करें, न करें तो न करें, उस पर कोई अधिकार नहीं चलाता । जैसे कि घर में रहने वाले लोग पुत्रादिक कोई कार्य न करें उसके मन माफिक तो अभी तक यह डाटता था, पर अब इसको डांटने का या कुछ भी कहने का अधिकार नहीं है, यह सब उपशम भाव से रहता है । किसी भी समय किसी भी घटना में यह नवम प्रतिमाधारी श्रावक पुत्रादिक से कुछ भी उलाहना की बात नहीं कहता कि मैंने इतना सारा धन कमाया, मैंने यह मकान बनवाया हमने तुम को यह मकान दिया है आदि ।
परिग्रह विरत श्रावक का उत्कर्ष―भैया, एक सहज आत्म स्वरूप का अनुभव होने पर कैसा व्यवहार करना चाहिए यह सिखाने की जरूरत नहीं रहती । जिसको आत्मस्वरूप के अनुभव की धुन लग गई है उसका स्वयं ही उपादान इस योग्य होता है कि जो अपने आप में क्षोभ न करे और दूसरे के क्षोभ का कारण न बने । यह परिग्रह त्यागी श्रावक अपना समस्त समय जो भी बचता है भोजन पान आदिक से, वह धर्मध्यान में लगाता है, दूसरे से सुनना, खुद पढ़ना, दूसरों को सुनाना, तत्त्ववार्ता करना, एकांत में रहकर अनेक प्रकार के चिंतन करना, भावना करना, धर्म संबंधी सभी दृष्टियों का यह प्रयोग करता है । अब नवम प्रतिमा में रहता हुआ यह श्रावक इतना अभ्यस्त हो गया है कि अब पुत्रादिक कोई वार्ता पूछते तो उसकी अनुमोदना अथवा सम्मति नहीं देता । नवम प्रतिमा तक तो कदाचित कोई पुत्र कुछ बात पूछ ले, क्योंकि नया-नया भार लिया है पुत्र ने तो उसमें कितनी ही कठिनाइयां भी आती हैं, कुछ मार्गदर्शन भी चाहिए, सो कदाचित पूछते थे ये पुत्रादिक तो यह संक्षिप्त शब्दों में कुछ बात कह भी देता था, पर अब 10वीं प्रतिमा के भाव होने वाले है तो इसको अब भाव न रहा कि मैं किसी भी विषय में कुछ भी सम्मति दूं इस प्रकार अब वह दशम प्रतिमा ग्रहण करने को उद्यत हुआ ।