वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 149
From जैनकोष
येन स्वयं वीतकलंकविद्यादृष्टिक्रियारत्नकरंडभावं ।
नीतस्तमायाति पतीच्छयेवसर्वार्थसिद्धिस्त्रिषु विष्टपेषु ।।149।।
अर्थ―जो पुरुष अपने आत्मा को कलंकरहित ज्ञानदर्शनचारित्र का पात्ररूप अपने को निरखता वह पुरुष तीन लोक में सर्वश्रेष्ठ सिद्धि को प्राप्त करता है, इसमें रंच भी संदेह नहीं ।
मैं हूँ दर्शन ज्ञान चारित्र का आधार―विश्वास होना, जानकारी होना, और रम जाना । मोही जीव भी दर्शन, ज्ञान, चारित्र का परिणमन कर रहा है और ज्ञानी संत भी दर्शन, ज्ञान, चारित्र का परिणमन कर रहा है । मोही जीव विश्वास किए हुए है विषयभूत और बाह्य पदार्था में कि ये हितरूप है और बाह्य विषयभूत पदार्थों में ही यह अपना ज्ञान बनाये हुए है और उन्हीं का विकल्प करके रमण कर रहा है । मोही जीव का श्रद्धान, ज्ञान और रमण बाह्य परक है और ज्ञानी संत का श्रद्धान, ज्ञान, रमण अंत: परक है । निज सहज आत्मस्वरूप में श्रद्धा है इसकी कि मैं यह हूँ, अन्य रूप श्रद्धा इसकी कभी बन ही नहीं सकती । यह है ही नहीं अन्य रूप, फिर उल्टा कैसे मानेंगे? श्रद्धालु है तो अपने सहज आत्मस्वरूप अपने को मानना यह तो है श्रद्धान और इसही तत्त्व को जानते रहना, इसका ही ज्ञान करना यह है उसका ज्ञान और ऐसा ही ज्ञान बनाये रहने रूप रम जाना यह है उसका रमण । जिस पुरुष ने ऐसे निष्कलंक रत्नत्रयस्वरूप अंतस्तत्त्व को प्राप्त किया है वह तीन लोक में श्रेष्ठ है। सिद्धि है वह क्या है? अपने आत्मा के विकास के अतिरिक्त कौनसी ऋद्धि सिद्धि को प्राप्त करना है ।
स्वाध्याय और सत्संग में जीवनक्षण व्यतीत होने का महत्त्व―हम आपका बहुत अच्छा भवितव्य होगा जो स्वाध्याय में रुचि जगती रहे । आंखें काम नहीं करती तो सुनने का काम किया जा सकता है । कदाचित् दोनों ही काम न करें तो इस ज्ञान के द्वारा जो संस्कार बनाया है उस संस्कार से मनन के काम को कौन रोक सकता? स्वाध्याय में प्रीति जगती हो और सत्संग अधिक समय मिलता रहे तो वह उत्तम भवितव्य की निशानी है । सत्संग का बड़ा महत्त्व है, पर सत्संग कहलाता वह संग है कि जिसमें रहने वाले प्रमुख जन संसार, शरीर, भोगों से विरक्त रहकर केवल आत्मविकास की ही धुन बनाये रहते हों वे हैं सत्पुरुष, ऐसे पुरुषो के संग को सत्संग कहते हैं । यदि ऐसा सत्संग नहीं है तो वह संग नहीं है, वह तो दुःसंग है, आकुलता का उत्पादक है । यदि कुछ लोगों का ऐसा समूह बना है जिसमें एक के भी आत्मा की धुन नहीं है, बाहरी-बाहरी क्रियावों में ही रम रहे है । देह में आत्मबुद्धि बनी हुई है तो मान और लोभ का मूल कहां से खतम होगा? और जब भीतर में ही रम रहे हैं । देह में आत्मबुद्धि बनी हुई तो मान और लोभ का मूल कहां से खतम होगा? और जब भीतर में मान और लोभ बसा हुआ है तो वह फूटेगा, पद-पद पर कलह होगा, एक दूसरे को न सुहायगा । ये सारी बातें बनने लगेंगी । यदि वास्तविक सत्संग मिल जायतो इससे बढ़कर लोक में कोई दूसरा वैभव नहीं, तिर जायगा वह पुरुष । तिरना यह ही कहलाता है कि बाह्य पदार्थो से दृष्टि हटाकर सहज आत्मस्वरूप में दृष्टि रम जाय, जिसके फल से यह आत्मा अन्य बंधनों से छूटकर केवल अपने स्वभाव विकास रूप रह जाये । इसी को तो मोक्ष कहते हैं ।
सहजज्ञान स्वरूप रमण की सर्वसिद्धिरूपता―भैया सहजज्ञानस्वरूप में रमण ही कल्याण है और ऐसी स्थिति पाये बिना संसार में कोई कैसे ही वैभव में रहे वह सब धोखा है और उसका फल पतन है । जैसे कोई जितनी ऊंची दीवार से गिरे उसको उतनी ही अधिक चोट लगेगी । तो संसार के वैभव संग समागम ये मेरे हितकारी नहीं है सो इन परपदार्थों की धुन तो रहना ही न चाहिए । केवल मेरे में रत्नत्रय धर्म का कैसे विकास हो और जिस धर्म का अनुभव करके उसने शांति आनंद पाया उस रत्नत्रय का दूसरे को भी पता चले ऐसी भावना ज्ञानी के बनती है । स्वपर हितभावना के ही बल पर वह धर्मप्रचार धर्म प्रसार की भी भावना रखता है, तो ऐसे धर्मभाव के लिए ही हम आपकी धुन रहती है तो हम आप सुरक्षित हैं । यदि धर्मभाव के प्रति प्रीति नहीं है और उसके लिए प्रगति की भावना नहीं है तो आज पुण्य के उदय में चाहे कितना ही मौज के साधनों में हो पर रच भी सुरक्षा नहीं है । तत्काल भी रक्षाहीन है और भविष्य में भी रक्षाहीन है । इस कारण इस सहज रत्नत्रयभाव की दृष्टि होनी चाहिए । मैं हूँ यह सहज दर्शन, ज्ञान, चारित्र स्वरूप । केवल ज्ञायकभाव केवल प्रतिभास मात्र । अपने से अपने में अपने लिए अपने को बिठाये रखने वाला जिसका बाहर में रंच भी कार्य नहीं है ऐसा यह मैं आत्माराम ठीक उस ही स्वरूप हूँ । उस ही स्वभावरूप हूँ जैसा कि परमात्मा का स्वरूप है । इह तरह जो रत्नत्रय के विकास पर दृष्टि रखता है और अपने रत्नत्रयभाव को प्राप्त होता है उसको तीनों लोक में उत्तम सर्वश्रेष्ठ निर्वाण प्राप्त होता है ।