वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 46
From जैनकोष
जीवाजीवसुतत्त्वे, पुण्यापुण्ये च बंधमोक्षौ च ।
द्रव्यानुयोगदीप:, श्रुतविद्यालोकमातनुते ।।46।।
द्रव्यानुयोग में द्रव्यों के स्वतंत्र अस्तित्त्व का मुख्यपरिचयन―द्रव्यानुयोग नाम का दीपक जीव अजीव तत्त्व का सही रूप दिखाता है, बंध मोक्ष इसका सही वर्णन करता है और भाव श्रुतज्ञानरूप प्रकाश को प्रकट करता है । द्रव्यानुयोग में वस्तु का सही स्वरूप बताया गया है । जब आप एकएक वस्तु को जान पायेंगे कि एक वस्तु इतनी होती है तब आपका सबका सही स्वरूप समझ पायेंगे । क्योंकि काम समूह करता है या एक करता है? एकएक करता है तो उसका भी नाम धर दिया कि समूह काम करता है तो फिर अर्थक्रिया कहां से निकली? समुदाय में से निकली । एकएक में से क्रिया नहीं निकली । तो सारे जगत का अगर स्वरूप जानना है तो केवल एक पदार्थ का ही जानना होगा । एक पदार्थ कितना होता है? उतना जिसका कि दूसरा टुकड़ा न हो सके । एक का दूसरा टुकड़ा नहीं हो सकता । आधा, पौना, पाव कोई वस्तु नहीं है । फिर आप कहेंगे कि कहते तो सब हैं यह आधा है, यह पौना है, यह पाव है । तो भाई उन कहने वालों के दिमाग में समूह है और उस समूह में से आधा कहते है । एक का आधा नहीं कह सकते । जैसे 100 पैसे का रुपया है तो कहते हैं कि आधा रुपया याने वे कहते है कि 100 पैसे के आधे । तो वहाँ एक का आधा नहीं किया, जो 100 पैसे का समूह है उसका आधा किया । एक का आधा न किया जा सकता है न किया जा सकेगा । चित्त में जो समूह बसाया है उसका आधा बताया करते है । एक परमाणु है उसका आधा परमाणु भी हो सकता है क्या? उसका आधा जीव हो सकता है क्या? जो एक है उसका आधा नहीं हुआ करता । और एक की पहिचान यह है कि जो परिणमन हो वह जितने पूरे में होना ही पड़े उसे एक कहते है । क्रोध हो तो पूरे आत्मा में, दु:ख हो तो पूरे आत्मा में । कहीं यह नहीं है कि आधे आत्मा में सुख हो रहा है और आधे में दुःख हो रहा है । अव्वल तो आधा है नहीं आत्मा का, मगर प्रदेश विस्तार से आधा कह रहे है । ऐसे एकएक द्रव्य एकएक जीव स्वतंत्र सत् है ।
विकारी जीव के साथ कर्मबंधन की सिद्धि व कर्म की पौद्गलिकता―देखिये जितने नये-नये काम होते हैं । जितने विषम काम होते है―विषम का अर्थ है कभी कुछ कभी कुछ । ये विषम काम उस एक द्रव्य में क्या अपने आप होते है? हो सकता है क्या? किसी भी एक पदार्थ में अपने आप अपने ही कारण से भिन्न-भिन्न कार्य नहीं हो सकते, यह पक्का नियम है । तो मुझ जीव में कभी क्रोध, कभी मान, कभी माया, कभी सुख, कभी दुःख, आप परख लो विषम काम हो रहे हैं कि नहीं । भगवान के विषम काम नहीं है । केवल ज्ञान, केवल ज्ञान केवल ज्ञान वही अनंतकाल तक चलेगा । यहाँ हम आप में कितना विषम काम होते है रागद्वेष विकार । तो जो विकारभाव होते हैं वे तब हो पाते हैं जब उस पदार्थ के साथ कोई दूसरा पदार्थ भी लगा हुआ हो । कोई पदार्थ अगर विकार कर रहा है, उल्टा चल रहा है तो नियम से उसके साथ उपाधि लगी है तब यह उल्टा चल रहा । कोई उपाधि न लगी हो और जीव के भाव नाना प्रकार के चलते जायें यह कभी नहीं हो सकता । वैज्ञानिकों से पूछो, युक्ति से पूछो, अनुमान से पूछो, अगर किसी पदार्थ में नाना तरह के विकार जग रहे हैं समझना उसके साथ कोई दूसरी वस्तु उपाधि लगी है अन्यथा विकार नहीं हो सकता । पानी गरम हुआ है तो नियम से उसको कोई दूसरा विरुद्ध संग मिला है तब गरम हुआ । तो अपनी बात सोचिये कि मुझ में विकार होते या नहीं होते । रागद्वेष चल रहे है, विकार, विचार, विकल्प, चिंता ये सब चल रहे ना? तो यह निश्चित है कि मेरे साथ कोई दूसरी उपाधि लगी है । उस उपाधि का नाम जैन शासन में कर्म रखा गया है । अब नाम कुछ भी रख लो भाग्य, तकदीर आदि । कर्म के बारे में अनेक लोग बात तो करते हैं पर वह कोई वस्तु है क्या? ऐसा नहीं दिखा पाते, केवल एक अंदाजा सा, कल्पना सी करते कि कोई एक रेखा होती है । कर्म क्या चीज है? तो मुख से प्राय: सब लोग बोल जाते कर्म-कर्म, पर वह कर्म क्या वस्तु है, यह बात जैन शासन में कही गई है । अत्यंत सूक्ष्म मैटर, धूल पुद्गल जीव के साथ लगे हैं और वे लग कैसे जाते है? तो जो वे बारीक पुद्गल हैं धूल कर्मरज, इन दिखने वाले पुद्गलों की तरह पुद्गल हैं, जिसे हम कर्म कहते हैं, वे है सूक्ष्म और उनका कर्मत्वपरिणति से पहले का सही नाम है कार्माणवर्गणा । वर्गणा कहते हैं परमाणुवों के संग को । तो कार्माण जाति की जो वर्गणायें लगी हैं जीव के साथ वे सब जगह ठसाठस भरी हैं । तो जीव के जब राग हो, विकार हो तो वे कार्माणवर्गणायें कर्मरूप बन जाती है और जीव के साथ बंध जाती हैं । कर्म वास्तविक वस्तु है, पौद्गलिक है, सूक्ष्म है । अगर कर्म साथ न होता तो जीव में नाना विकार कैसे जगते?
जीव के विकार का निमित्त अन्वयव्यतिरेकी कर्मविपाक―आप कहेंगे कि विकार यों जगते हैं कि दुनिया में ये पदार्थ बहुत दिखते हैं तो जिस पदार्थ का ख्याल होता है, जैसा निमित्त योग होता है, जैसा आश्रय मिलता है वैसे भाव बन जाते है । इसलिए तो प्रश्न है कि आपका उपयोग क्यों वहाँ गया? क्यों आपका वह आश्रय बना? तो आपका उपयोग बाहरी पदार्थो में जाता है यह तो फल है कार्य है मगर एक प्रेरणा मिली, एक क्षोभ हुआ, गड़बड़ाना हुआ उसका मूल निमित्त है कर्म का उदय । ये आसानी से ज्ञान में नहीं आ पाते, किंतु उसकी घटना इस तरह है कि जैसा सिनेमा में पर्दे के सामने फिल्म चलाने वाला बैठता है फिल्म चलती है । जैसा फिल्म चलाता है वैसा ही चित्रण पर्दे पर आ जाता है, ऐसे ही जिस-जिस ढंका कर्म फिल्म चलता है । कर्म का उदय होता है वह चित्रण इस उपयोग में ज्ञान में आ जाता है और उस चित्रण के आते ही आत्मा धधकता है । बहकता है, अपने को भूल जाता है और उस चित्रण को ही आत्मा मानने लगता है इसी को कहते हैं मिथ्यात्व और भ्रम । जहाँ अंदर में उस कर्म के चित्रण को माना कि यह मैं हूँ तो उसकी सारी प्रक्रिया फिर बदल जाती है । विषयों में आसक्ति, इष्ट अनिष्ट बुद्धि ये सब बातें आ जाती है । तो एक अनुमान प्रमाण से निश्चित कर लीजिए कि मुझ में जब क्रोध, मान, माया, लोभादिक भिन्न-भिन्न तरह के विकार होते हैं तो विकार में तो किसी को शक नहीं । सब जानते है कि मुझ में कषायों के विकार चल रहे है । तो जब ये विकार मुझ में चल रहे हैं तो यह निर्णय करें कि इस जीव के साथ कोई दूसरी उपाधि लगी है तब यह विकार जग रहा । जैसे अग्नि का संयोग पाकर पानी गरम हुआ, रोटी सिकी, तो कोई उपाधि साथ है । ऐसे ही मेरे में जब विकार चल रहे हैं तो कोई उपाधि साथ है और उसी उपाधि का नाम है कर्म । यह नहीं कि हमारा ज्ञान पुत्र मित्र आदिक में गया इसलिए राग हुआ । पुत्र मित्र आदिक में राग क्यों गया इसका भी तो कारण बतलावो । बस इसका कारण है कि चूंकि जीव है अमूर्त, तो उसके साथ कोई सूक्ष्म उपाधि लगी है जिसका उदय होने पर यह नाटक हो रहा है ।
कर्म में प्रकृति स्थिति प्रदेश व अनुभाग के विभाग का एक दृष्टांत―ये कर्म क्या हैं, कितने हैं, कितनी स्थिति है, उनमें क्या शक्ति है? उनका बहुत विस्तार के साथ वर्णन जैन शासन में पाया जाता है । जैसे भोजन किया, भोजन पेट में गया । अब आप क्या करेंगे? जब तक थाली में था तो आपने उसे तोड़ा, कौर बनाया, मुख में डाला, चबाया, गुटक गए । अब आपका क्या वश उस भोजन में जो पेट में चला गया? उसे निकाल सकते क्या या उसे पेट के अंदर अगल बगल कर सेंकते क्या? अब आपका काम खतम । अब अपने आप ही जठराग्नि का निमित्त पाकर उस किए हुए भोजन में (1) प्रकृति (2) स्थिति (3) पिंड और (4) शक्ति ये चार चीजें आ जाती है । प्रकृति कैसे आती कि अब भोजन का यह हिस्सा पसीना बनेगा, यह खून बनेगा, यह वीर्य बनेगा, यह हड्डी बन जायगा, यह मल बन जायगा, यह मूत्र बन जायगा, इस प्रकृति को भीतर में कौन करेगा? यह सब आटोमैटिक ढंग से होगा । इसी को कहते निमित्त नैमित्तिक । अब जो इस ढंग की जठराग्नि है, पाचन शक्ति है । जिस ढंग का देह है उसका फर्क होता है तो उस भोजन में प्रकृति पड़ी है कि अमुक हिस्सा रस बनेगा । अमुक हिस्सा पसीना बनेगा, अमुक खून बनेगा... यह उसमें प्रकृति पड़ गई । स्थिति जो खून रूप बन जायगी वह 10-20 वर्ष रहेगी । जो हड्डी रूप बनेगी वह 40-50 वर्ष रहेगी । जो पसीना रूप बनेगी वह दो चार घंटे रहेगी । जो मूत्र बनेगी वह 4-6 घंटे रहेगी । जो मल बनेगा वह 10-12 घंटे रहेगा... यों उस भोजन के पिंड में जुदे-जुदे ढंग की जो स्थिति बनी उसमें आपने क्या किया? अब आपका क्या वश? बन रहा अपने आप मगर उसमें जुदे-जुदे ढंग के विभाग पढ़ गए । और देखो यह ही बात कर्म में पायी जाती । जो यहाँ हो रहा, जितना बड़ा पिंड होगा उसमें शक्ति न होगी, जितना छोटा पिंड होगा उसमें शक्ति अधिक होगी, यह भोजन की बात कह रहे है । जैसे भोजन का हिस्सा वीर्य बना बहुत छोटा पिंड, मगर शक्ति सब धातुवों से अधिक है । खून का हिस्सा अधिक बना मगर मल से बहुत कम है । तो खून में वीर्य से कर्म शक्ति है । मल से अधिक शक्ति है और जो मल करते है उसमें पिंड तो होता बड़ा मगर ताकत कुछ नहीं । यह व्यवस्था किसने बनाया? सब आटोमैटिक ढंग से यह व्यवस्था चल रही ।
बंधते समय कर्माणवर्गणावों में प्रकृति स्थिति प्रदेश अनुभाग का विभाजन―उक्त दृष्टांत की विधि की तरह यह जीव कोई विकार परिणाम करता है तो इसने बस परिणामभर किया, इसके आगे कुछ वश नहीं हैं । जैसे भोजन पेट में गया अब आपका कुछ वश नहीं, ऐसे ही जीव ने कषाय किया, बस अब आगे कुछ बात न करेगा यह । अपने आप ही इसके साथ लगी हुई कार्माण वर्गणायें कर्मरूप बन जायेंगी । और उनमें प्रकृति पड़ जायगी कि इतना हिस्सा इसके ज्ञान को रोकने का निमित्त होगा, इतना हिस्सा इनका सम्यक्त्व रोकने का कारण बनेगा । इतने कर्म इसके क्रोध, मान, माया, लोभादिक कषायों के निमित्त बनेंगे । उन कर्मों में स्थिति बन गई कि ये कर्मपुंज जीव के साथ हजार सागर रहेंगे, करोड़सागर रहेंगे । सागर होता है अनगिनते वर्षों का । पिंड भी बन गया कि इतने सागर प्रमाण रहेगा और शक्ति भी बन गई कि इसमें इतनी डिग्री फल देने की शक्ति रहेगी । यह प्रकृति, स्थिति, पिंड और शक्ति ये सब आटोमैटिक ढंग से स्वयं निर्णीत हो जाते हैं । फिर जब इसकी स्थिति पड़ी हुई है तो ये कर्म निकलते हैं परिणाम से तो कर्म के निकलने के समय का दृश्य बड़ा भयानक होता है । जैसे कोई दुष्ट मानो घर में आ गया, आपने उसको ठहरने को जगह दे दी । जब तक वह ठहरा है तब तक तो वह नरमाई से ठहरेगा और नरमाई से तो ठहरा मगर भीतर में वह गुब्बारा भरता रहेगा । और जब वह भीतर से निकलेगा तो ऐसी घटना बनाकर निकलेगा कि आप पछतायेंगे । ऐसे ही दुष्ट कर्म आत्मा के साथ बंध गए तो जब तक आत्मा में रह रहे है तब तक उनसे तकलीफ नहीं है मगर जब वे आत्मा से बाहर निकलते हैं मायने उदय होता, सूर्य का उदय मायने सूर्य का निकलना कर्म का उदय होना मायने कर्म का निकलना । जिस समय ये कर्म निकलते है तो इनमें अनुभाग फूटता है, विकृत रूप बनता है और उसका अक्स पड़ता है उस समय यह जीव घबरा जाता है । ऐसे इस जीव के साथ कर्म है और उनके उदय के अनुसार संसार में समागम मिलते ।
भावों को सतत विशुद्ध रखने की आवश्यकता का कारण―अनेत्योग मिलने का मूल निमित्त कारण है अपने कमाये हुए पुण्य पाप कर्म का उदय । इस कारण मनुष्यों को सदा सावधान रहना चाहिए । अपने भाव कभी खोटे न हों । किसी दूसरे के दान, लाभ भोग उपभोग वीर्य में विघ्न न डालें, दूसरे की ज्ञान साधना में उमंग बनाये, सर्व जीवों के प्रति सुख की कामना करें, जितना बन सके दूसरों के सुख शांति में काम आये । किसी के दुःखी होने की हमारी भावना न हो, हमारे भाव निर्मल रहें तो अपनी रक्षा है । और हमारे भाव खोटे होंगे तो हमारी बरबादी है । कोई यह न सोचे कि मैं इस जगह एकांत में हूँ तो जो चाहे मनमाने पाप करूं कौन देखता है । जब कोई देख ही नही रहा तो निंदा कहां से होगी ।... अरे ये कार्माण वर्गणा में तो आपके साथ लगी है, कैसे ही एकांत में आप गए, जैसा विकार हुआ । जैसा भाव हुआ उस प्रकार के कर्मरूप बन जायगा । कठिन प्रसंग तो यह ही है जीव के साथ । तो इन सब विडंबनाओं को दूर करने का एकमात्र उपाय यह है कि आप आराम से, समता से, धीरता से अपने आपके स्वरूप में ज्ञान ले जायें और जानें स्वरूप को कि यह मैं अमूर्त रूप, रस, गंध, स्पर्श रहित ज्ञानस्वरूप परमात्म पदार्थ हूँ । मैं स्वयं सहज यह हूँ, इसमें कष्ट का नाम नहीं । हमारे स्वरूप में पर का प्रवेश नहीं, हमारा स्वरूप अधूरा नहीं, यह मैं आत्मतत्त्व हूँ । आप सब लोग मंगलतंत्र में तीन बातें पढ़ते हैं―मैं ज्ञानमात्र हूँ । मेरे स्वरूप में अन्य का प्रवेश नहीं । अत: निर्भार हूँ आदि तो उनमें बड़ा रहस्य भरा है । और अपने अंत: स्वरूप का दर्शन इसके मनन के द्वारा होता है । अपने सहज स्वरूप को मान जायें कि मै यह हूँ फिर कष्ट का कोई काम नहीं रहता ।
।। इति रत्नकरंड प्रवचन प्रथम भाग समाप्त ।।