वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 90
From जैनकोष
विषयविषतोऽनुप्रेक्षानुस्मृतिरतिलौल्यमतितृषानुभवो ।
भोगोपभोगपरिमाण-व्यतिक्रमा: पंच कथ्यंते ।। 90 ।।
निरतिचार व्रतों के पालन का ध्येय स्वानुभव की पात्रता बनाये रहना―जो पुरुष सहज परमात्म स्वरूप का अनुभव कर चुका और जिसकी धुन बन गई कि मुझ को ऐसा सबका अनुभव जगता रहे, स्वानुभव की धुन में ही रहता है, पर शारीरिक शक्ति या परिस्थिति इतनी सुल्झी हुई नहीं है कि वह निर्ग्रंथ दिगंबर होकर केवल स्वानुभव के कार्य में लगा रहे । उसे अनेक काम हैं, सहन नहीं हो सकती हैं भूख प्यास या अन्य वेदनायें तो वह घर में रहता है । अब घर में रहता हुआ वह ज्ञानी पुरुष इस विधि से रहे कि वह स्वानुभव करने का पात्र बना रहे तो उसके लिए बारह व्रत वाला वर्णन है कि इस विधि से चर्या करे तो उसका मन वश में रहेगा और उसे बहुत मौके मिलेंगे कि वह सहज परमात्मस्वरूप का अनुभव कर सकेगा । तो उस ही धारा में भोगोपभोग परिमाण व्रत का पालन करने वाला श्रावक कैसे दोषों को न करे, इसका वर्णन इस छंद में किया जा रहा है ।
भोगोपभोग परिमाणव्रत के पांच अतिचार―पहला दोष है विषयविषतोऽनुप्रेक्षा विषयरूपी विष में राग का न घटना । परिमाण भी रख रहा है पर मन चल रहा है । परिमाण रखकर भी इच्छा चल रही है, उस विषय विष से विमुक्त नहीं हो पाया हैं ऐसी अगर अंत: स्थिति चलती है तो चूँकि उसने परिमाण का उल्लंघन तो नहीं किया, अधिक कुछ अपराध तो नहीं, जिसका परिमाण से बाहर नाम है मगर कुछ मन चला तो यहाँ हुआ भोगोपभोग परिमाण का प्रथम अतिचार । यद्यपि समझने में यह भी आयगा कि जब मन चलता तब सब बिगड़ गया । व्रत के प्रति कुछ तो लगाव हो किसी ढंग से, चाहे उसमें कितना ही भंग चल रहा हो मगर कुछ न कुछ उपयोग लगाव में रहेगा तो उसे अतिचार कहते है । जब व्रत संबंधी इच्छा न रही, एकदम स्वच्छंद हो गए तो वह अनाचार कहलाता है । दूसरा है अनुस्मृति पूर्वकाल में भोगे हुए भोगों की चाह करना अनुस्मृति नाम का दोष है । जैसे कोई अपनी महिमा बताने के लिए पहली बातों को बहुत बताता है कि मैं ऐसे मौज में रहता था, मैं दूध घी आदिक बहुत-बहुत लेता था, आदिक बहुत बातें बताना यह भी एक अतिचार है फिर उसके बारे में स्मरण करना यह और भी बड़ा अतिचार है । भोगोपभोग परिमाणव्रत का तीसरा अतिचार है । अतिलौल्य―परिमाण तो कर लिया और जैसे मानो 5 हरी रखा तो छठी हरी तो नहीं खा रहा और उसी नाम की हरी ले रहा तो वह अतिलौल्य अतिचार है । क्योंकि भोगोपभोग परिमाण का उद्देश्य था कि आसक्ति न रहे । मगर वह आसक्ति कर रहा, पर परिमाण से बाहर नहीं ले रहा, इतना उसमें लगाव है इसलिए वह अतिचार में गिना गया है । चौथा अतिचार है अतितृषा―अनुपसेव्य में यह था कि जिस समय भोग रहा है उस समय उसमें आसक्ति चलती रहती है, पर अतितृषा में आगामीकाल में मैं भोगूं, उसके प्रति भी तृष्णा लगी रहना यह अतितृषा नाम का अतिचार है । पांचवां अतिचार है अनुभव । विषयों को नहीं भोग रहा तिस काल में भी वह ऐसा अभिप्राय बना रहा संकल्प बना रहा कि मानो वह भोग ही रहा हो ।
निरतिचार भोगोपभोग परिमाण व्रत के पालनहार के जीवन की समीचीनता―देखिये किस-किस तरह के कर्मविपाक होते हैं? ज्ञानदृष्टि के बल से अनुभवादि का अतिचार भी न लगे याने भोगे हुए भोगों का ख्याल न बने ऐसा जीवन में नियम संयम का रहता है तो बहुत से दोष अपने आप दूर हो जाते हैं । जो मनकृत दोष है उनको दूर करने का उपाय आश्रयभूत पदार्थों का त्याग करना हैं । यद्यपि जो भी विकार जगते हैं उनका निमित्त कारण कर्म का ही उदय है । पर जो बुद्धिपूर्वक विकार बनते हैं, जिसे अनुभवता है । अपनी बुद्धि में समझता है ऐसा विकार आश्रयभूत परपदार्थ का कारण लिए बिना नहीं बनता, तो चरणानुयोग की पद्धति इसी पर आधारित है कि वह आश्रयभूत कारण का त्याग करे ताकि उसका विकार हटने का वह अवसर मिले । यह उसमें भावना रहती है । तो पहली प्रतिमा से लेकर 11वीं प्रतिमा तक और मुनिव्रत में जो भी व्रत का आचरण है । बाह्य पदार्थों का परित्याग है उसका यह ही उद्देश्य है जैसे कि लोग कहते हैं कि न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी, ऐसे ही न रहेगा परिग्रह और न मन में कोई कल्पना आयगी । तो ऐसे भोग का उपभोग का और ऐसे अन्य पदार्थों का परिमाण कर लेना यह भोगोपभोग परिमाण है । यहाँ तक तीन गुणव्रत का वर्णन किया और 8 व्रत के वर्णन संपूर्ण हुए । अब शिक्षाव्रत के 4 व्रत आयेंगे । शिक्षाव्रत का मतलब है कि ऐसी क्रिया चेष्टा विचार जिससे मुनिव्रत पालन करने की शिक्षा मिले उन नियमों को कहते हैं शिक्षाव्रत । वे शिक्षाव्रत चार हैं जिनके नाम अगले छंद में कह रहे है ।