वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 114
From जैनकोष
कम्मादा-विहाव-सहावगुणं जो भाविऊण भावेण।
जिय सुद्धप्पा रुच्चइ तस्य य णियमेण होइ णिव्वाणं।।114।।
आत्मविभाव व आत्मस्वभाव की भेदभावना निर्वाण का प्रथम सोपान―मुक्ति का सबसे पहले का कदम क्या है? जो मोक्ष चाहता है, मोक्षमार्ग में चलना चाहता है उसका प्रारंभिक कदम है सम्यग्ज्ञान। अपने स्वभाव का और पर का व परभाव का सही ज्ञान करना, स्वभाव का ज्ञान कैसे? मैं सहज चैतन्य स्वभाव मात्र हूँ। जो मैं अपने आप हूँ बिना किसी पर उपाधि के हूँ, सहज हूँ वह मैं स्वयं यह ज्ञान मात्र हूँ सहज ज्ञानमात्र। एक तो ज्ञान की तरंग ज्ञान की वृत्ति क्योंकि परिणमन बिना वस्तु रहती ही नहीं है, पर वह परिणमन जिस वस्तु से प्रकट होता है वह वस्तु सहज किस प्रकार है उसके निरखने से स्वभाव का परिचय होता है। तो आत्मा के स्वभाव का ज्ञान होना और इसके अतिरिक्त अन्य का अन्य रूप से ज्ञान होना बस यह ही है मोक्ष का बीज। अब देखिये मोक्ष पाने के लिए शांति धाम पाने के लिए जो पौरुष करना है वह सब पौरुष अपने ज्ञान रूप है, उसमें पर वस्तु की आधीनता नहीं कि मेरे पास ऐसा कुटुंब हो जब मैं धर्म में लग सकूँगा या इतना आनंद हो तब मैं धर्म कर सकूँगा। कैसी भी स्थिति हो, विपत्ति की स्थिति हो, उपसर्ग की स्थिति हो, दरिद्रता की स्थिति हो, ज्ञानी जीव किसी भी स्थिति में उद्विग्न नहीं होता, क्योंकि उसे अपने शांति का श्रोतभूत निज परमात्म तत्त्व प्रकट हो गया है। मैं यह हूँ सहज अविकार। तो ऐसे अपने सहज स्वभाव का ज्ञान हो और पर पदार्थ का, परभाव का ज्ञान हो वह पुरुष मुक्ति को पायगा। पर पदार्थ क्या? मेरे आत्मा को छोड़कर शेष सब अनंत आत्मायें मेरे लिए पर हैं। समस्त पुद्गल द्रव्य मेरे लिए पर हैं, धर्म अधर्म आकाश काल ये मेरे लिए पर है, और परभाव क्या? कर्म विपाकज भाव। कर्म को छोड़कर शेष द्रव्य के संबंध उसके विकार के लिए निमित्त नहीं होता। जो ऐसा ख्याल बन रहा प्रायः लोगों का मेरी कषाय में निमित्त बाह्य पदार्थ है सो मेरी कषाय में निमित्त, मेरे सुख दुःख में निमित्त कोई भी बाह्य पदार्थ नहीं है, किंतु उस जाति का कर्मोदय, यह सांसारिक सुख भी मेरे कार्य का निमित्त है, और कर्म सब ध्वस्त हो जायें तो वह है आत्मा का स्वाभाविक अवस्था का निमित्त। हाँ तो कर्म को छोड़कर शेष अन्य द्रव्य का संबंध इस आत्मा के विकार का निमित्त नहीं है, हाँ आश्रयभूत है, कुछ पदार्थ जिनको नो कर्म कहा, सहायक कहा, पर उसके किसी भी प्रकार के भाव में विकार में निमित्त कर्मोदय को छोड़कर अन्य कुछ नहीं हैं। तो कर्म विपाक होने पर आत्मा में जो कर्म विपाक रस का प्रतिबिंब होता है वह कहलाता है परभाव। जैसे किसी माँ का लड़का बहुत सुशील है, पर एक दो मित्रों के साथ वह कुछ तास वगैरह खेलने लगा है, आवारा हो गया है तो जब लोग कहते हैं कि तुम्हारा लड़का तो तास खेलने लगा, आवारा हो गया तो माँ उत्तर देती है कि मेरा लड़का आवारा नहीं है, मेरा लड़का दोषवान नहीं है। यह दोष तो उस लड़के का है जिस मित्र की सोहबत कर रहा हो, उस मित्र पर थोपती है कि ये सब विकार दोष उस दूसरे बालक के हैं, मेरे बालक के नहीं हैं। तो उसकी दृष्टि क्या है कि मेरा बालक तो शुरू से, स्वभाव से गुणी है और उस दूसरे की सोहबत से इसमें यह अवगुण आया सो उस अवगुण को परसंग से आया हुआ जानकर कहती है माँ कि मेरा पुत्र तो निर्दोष है। तो ऐसे ही अपने आत्मा को देखिये अपना आत्मा सरसतः स्वभावतः स्वयं अकेला रहकर स्वयं अपने आप की परिणति से यह दोषवान नहीं है यह तो यह है। इसकी वृत्ति चलती है, इसकी अपने आप स्वयं जो परिणति चलेगी। उसमें विकार हा काम नहीं। रागद्वेषादिक का इसमें आभास नहीं। ये आये हैं तो अन्य प्रकार के जो कर्म हैं याने आत्मा तो चेतन है और चेतन से विपरीत जो कर्म हैं उन कर्मों के उदय से यह फोटो है, ये विभाव हैं, ये परभाव कहलाते हैं, सो आत्मा के स्वभाव का और परभाव का सही ज्ञान होना यह प्रथम कर्तव्य है। मुमुक्षुवों का प्रारंभिक प्रकाश के बाद का कर्तव्य―कल्याण चाहने वाले पुरुषों का फिर सही भेदविज्ञान हो करके फिर निज शुद्ध आत्मा रुचना बस यह नियम से निर्वाण का कारण है। मैं के निर्णय में इसका सारा भविष्य निर्भर है। मैं क्या हूँ यह जैसा निर्णय में आयगा उसके अनुसार इसकी परिणति बनेगी। यदि बाहरी रूपक, बाहरी संबंध, बाहरी वृत्तियाँ उनको निरखकर माना जाय कि मैं यह हूँ तो उसको पाप बंध है और दुर्गति का वह पात्र है, और जिसने अपने आप को विशुद्ध एक ज्ञान प्रकाश रूप में देखा तो वह पुरुष इस ज्ञान प्रकाश की आराधना करता हुआ अपने आपको पा लेगा और यह निर्णय में भी प्राप्त कर लेगा। तो निज शुद्ध आत्मा की रुचि के सब महत्त्व हैं। मैं क्या हूँ इसके निर्णय पर सारा भविष्य टिका हुआ है। पर्याय को निरखकर कषायों को निरखकर उन रूप अपने को मान डाला तो संसार में ऐसा ही जन्म मरण करते रहना होगा। और समस्त पर द्रव्यों से अछूता जिसके स्वरूप में किसी अन्य का प्रवेश ही नहीं हो सकता भले ही पदार्थ में पदार्थ का प्रवेश हो मगर स्वरूप में स्वभाव में किसी का प्रवेश नहीं होता। कठिन एक क्षेत्रावगाह भी हो जाए पर अन्य वस्तुओं का अपने स्वरूप में प्रवेश नहीं है। ऐसा जो निज शुद्ध आत्मा है वह जिसको रुच जाता है उसका नियम में निर्वाण होता है।