वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 118
From जैनकोष
किंपायफलं पक्कं विसमिस्सिदमोदमिव चारुसुहं।
जिब्भसुहं दिट्ठिपियं जह तह जाणक्खसोक्खं कि।।118।।
इंद्रियज सुखों की कष्टफल स्वरूपता―इससे पहले की गाथा में बताया है कि बहिरात्मा इंद्रिय जन्य सुखों को भोगता है, तो वे सुख कैसे हैं उसका वर्णन इस गाथा में किया है। ये इंद्रिय जन्य सुख, संसार के सुख ऐसे हैं कि जैसे कोई किंपाक फल को खाकर उसमें मौज मानता है, किंपाल फल होता है कोई विषफल जो कि ऊपर से बहुत सुहावना लगता है और उसको खा ले कोई तो मृत्यु हो जाय। तो जरा मीठा होने से उसके स्वाद में आकर उसके लोभी बनकर उस विषफल को कोई खा ले तो जैसे यह एक असार काम है, अथवा विष से मिले हुए लड्डू कोई खाले तो वह असार काम है इसी तरह ये सभी इंद्रिय जन्य सुख ये मात्र दृष्टि प्रिय हैं। तत्काल कुछ मन को रमाने वाले हैं, किंतु ये सब संसार के क्लेशों को बढ़ाने वाले हैं। इंद्रियज सुखों की दुःखफलरूपता का उदाहरण पूर्वक समर्थन―एक बार कोई चार डाकू कहीं से दो लाख का धन चुरा कर लाये। वे रात को किसी जंगल में ठहर गए। जब कुछ प्रभात हुआ तो उनमें यह सलाह हुई कि अब धन तो बँटेगा ही पर धन बँटने से पहले बाजार से खूब मिठाईयाँ मंगा कर खाई जावें, बाद में धन बाँट लेंगे। सो उनमें से दो चोर तो पास के नगर से मिठाई खरीदने गए और दो चोर उस धन की रखवाली करने के लिए रह गए। अब मिठाई खरीदने जाने वाले दोनों चोरों के मन में आया कि इस मिठाई में विष मिला कर उन दोनों को खिला दिया जाये वे दोनों मर जायेंगे तो हम तुम दोनों को एक-एक लाख का धन मिल जायगा, नहीं तो आधा-आधा लाख ही मिलेगा। सो वे तो चले विष मिली बहुत सुंदर मिठाई लेकर और इधर धन की रखवाली करने वाले दोनों चोरों ने सलाह किया कि हमारी ओर जो हो उसे हम गोली से सूद कर देंगे और तुम्हारी ओर जो हो उसे तुम गोली से सूट कर देना। वे दोनों मर जायेंगे जो हम तुम दोनों एक-एक लाख का धन बाँट लेंगे। ठीक है। आखिर दो चोर तो विषभरी बड़ी सुहावनी मिठाई लेकर चले और दो चोर अपनी-अपनी बंदूक तान कर बैठ गए। जब पास में आ गए तो दोनों चोरों को गोली से सूट कर दिया। वे तो मर गए अब शेष बचे दोनों चोरों ने आराम से बैठकर उस विषभरी मिठाई को खा लिया तो वे भी मर गए। सारा का सारा धन ज्यों का त्यों पड़ा रह गया। तो यहाँ दृष्टांत में यह बात कह रहे कि जैसे बड़े सुहावने मोदक हों पर उनमें मिला हुआ हो विष तो उनके खाने का फल मृत्यु है खोटा है। भले ही खाने में मधुर लगे व देखने में भी बड़े सुहावने लगें, पर उनके खाने का फल अत्यंत कटुक है। उनका फल विनाश है, ऐसे ही जो ये इंद्रिय जन्य सुख है ये देखने में भले ही बड़े सुहावने लगें, भोगने में भी भले ही बड़े सुखद प्रतीत हों पर इनका फल अत्यंत कटुक है। जो उन विषय सुखों में आशक्त है, जिनकी खोंटी भावना है वे पुरुष अपना घात करते हैं, संसार में रुलते हैं। तो जो इंद्रिय सुखों का प्रेमी है वह पुरुष बहिरात्मा है बहिरात्मा मिथ्यादृष्टि, अज्ञानी मोही, मूढ़ किन्हीं भी शब्दों से कहो, जन्म मरण की परंपरा को बढ़ाने वाला दुःखी जीव है।