वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 12
From जैनकोष
जिणपूया मुणिदाणं करेइ जो देइ सत्तिरूवेण।
सम्माइट्ठी सावयधम्मी सो मोक्खमग्गर ओ।।12।।
जिन पूजक श्रावकधर्मी की मोक्षमार्गरतता―इस रयणसार ग्रंथ में श्रावकों के आचरण प्रसंग में आचार्य कुंदकुंद देव कह रहे हैं कि जो पुरुष अपनी शक्ति के अनुसार जिनेंद्रदेव की पूजा करता है और गुरुवों को, मुनियों को दान देता है वह मोक्षमार्ग में लीन धर्मात्मा सम्यग्दृष्टि श्रावक होता है। मोक्षमार्ग हैं सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, और सम्यक्चारित्र की एकता और जिनेंद्र भगवान ने मोक्षमार्ग का फल प्राप्त कर लिया, परमात्मा हो गए। तो उनकी पूजा में, उनके गुणों के स्मरण में अपने पापों का विनाश है, स्वभाव की सुध है और अपने स्वभाव में लीन होने की प्रेरणा मिलती है। इस जगत में किस वस्तु का समागम सारभूत है? सर्व भिन्न सत्तावान हैं, उनसे मेरा कुछ संबंध नहीं उनसे मेरे को कुछ काम नहीं। एक कल्पना वश फंसे हुए हैं। इससे आवश्यक जंच रहा है। यदि यह आत्मा जैसा अपने स्वरूप में है वैसा ही अकेला रहता तो इसको कोई कष्ट न था। यह सब बात जिनेंद्र देव की मूर्ति बतला रही है। जगत में किसी ठौर सार नहीं है। इसलिए एक जगह ऐसा बैठ जावो पैर पसार कर, पद्मासन से बैठी हुई मूर्ति मानो यह उपदेश दे रही है कि तुम कहीं मत जावो, अपने आप में रमो। यह हाथ पर हाथ रखे हुए मूर्ति मानो यह बता रही है कि जगत में कुछ भी करने योग्य बाहर में नहीं हैं, इसलिए समस्त कर्तव्य को छोड़ दो, हाथ पर हाथ रखकर बैठे हैं। नासाग्रदृष्टि मानो यह बतला रही है कि बाहर में कहीं कुछ देखने योग्य कुछ भी नहीं है। तुम अपने आप में अपने आपको निरखो, और वह सहज आनंद की मुस्कान मानो यह उपदेश दे रही है कि अपने उपयोग को अपने में लीन करो, वहाँ है सत्य आनंद। तो जिसने मोक्षमार्ग का फल पाया है ऐसे प्रभु की जो पूजा करता है सो वह भी मोक्षमार्ग में रत है, मोक्षमार्ग से भ्रष्ट नहीं है क्योंकि उस ही की सुध दिलाने वाला है। मुनि सेवक श्रावक धर्मी की मोक्षमार्गरतता―इसी तरह श्रावक जो शक्ति अनुसार भक्तिपूर्वक दान करता है―आहारदान, शास्त्रदान, औषधिदान और अभयदान, वह पुरुष भी मोक्षमार्ग में रत है। उसे आत्मा की सुध तो है, तब ही तो जो आत्मसाधना में लग रहा है, ऐसे सत्पात्रों की सेवा सुश्रुषा में चल रहा है। यदि व्यसनों में लगा होता तो व्यसनी पुरुषों को यह मित्र बनाये रहता। इसको अपने चारित्रपालन की धुन है इस कारण यह चारित्रधारियों की संगति में रहता है। चार प्रकार के दानों के संबंध में लिखा है कार्तिकेय स्वामी ने कि आहार दान देने से उसको एक दो दिन के लिए धर्मसाधना में जुटाया, औषधिदान देने से उसे कई दिनों के लिए धर्मसाधना में जुटाया, क्योंकि रोग से मुक्त हो जाय तो अनेक दिनों तक वह धर्मसाधना करेगा अभयदान देने से बहुत काल तक के लिए उसे साधना में जुटाया और शास्त्रदान (ज्ञानदान) देने से तो उसे अनंतकाल तक के लिए आत्मकल्याण में लगाया। क्योंकि मनुष्य का धन, जीव का धन एक ज्ञान है, सर्व कुछ पा लेने के बाद भी इस जीव को संतोष नहीं होता। एक सही ज्ञान जगे जो इस जीव को निराकुलता आयेगी। तो इस तरह जो चार प्रकार के दान साधुजनों को करता है वह मोक्षमार्ग में रत है, वह धर्मात्मा है। सद्गृहस्थ हैं, सही श्रावक है। जिन पूजा और दान ये दो मुख्य कर्तव्य बताये गए थे, उनके संबंध में यह समर्थन किया गया।