वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 123
From जैनकोष
मलमुत्तधडव्वचिरं वासिय दुव्वासणं ण मुंचेइ।
पक्खालिय सम्मत्तजलो यण्णाणम्मएण पुण्णो वि।।123।।
जल से धोये गये भी मल मूत्रपूर्ण घट की तरह अज्ञान कर्म से दुर्वासना की संभवता―जिस प्रकार मल मूत्र से भरा हुआ घड़ा हो और कोई उस मल मूत्र को फेंक दे, उसे खूब पानी से धो भी डाले तो भी बहुत काल से मल मूत्र भरा होने से उस घड़े को बहुत साफ करने पर भी दुर्गंध होने के कारण अपनी दुर्गंध की वासना को छोड़ता नहीं है, इसी प्रकार ज्ञानामृत रूपी सम्यक्त्व जल से आत्मा को धो लेने पर भी ज्ञानी मनुष्य अपनी पूर्व वासना को सहसा नहीं छोड़ सकता। समाधि तंत्र में बताया है कि इस ज्ञान भावना से जब तक खूब साता रहे, निरंतर खूब साता रहे अन्यथा ये पूर्व भव के संस्कार उखड़ेंगे तो ये इसको सम्यक्त्व से भी गिरा सकते हैं, इस कारण सावधान होकर एक ही लक्ष्य रखना चाहिए कि मैं अपने को अविकार सहज ज्ञानस्वभाव रूप में ही निरखूँ। मैं यह ही हूँ अन्य नहीं हूँ यह पर्याय बन तो गई और इस समय यह स्थिति भी है पर यह उसका स्वरूप लाभ नहीं, स्वरूप की बात नहीं है, यह औपाधिक है, माया रूप है। यह आत्मा का सहज स्वरूप नहीं। तो ज्ञानी हुआ मायने उसने अपने सहज ज्ञान स्वभाव का परिचय पाया तो उसका कर्तव्य है कि समय-समय पर अपने उस सहज ज्ञान स्वरूप की उपासना बनाये रहें।