वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 137
From जैनकोष
उवसमई सम्मत्तं मिच्छत्तबलेण पेल्लए तस्स।
परिवट्टंति कसाया अवसप्पिणिकालदोसेण।।137।।
मिथ्यात्व का आघात―कदाचित इस जीव को कुछ सुविधा भी मिले ज्ञानार्जन आदिक की तो भी वर्तमान अवसर्पिणी काल के दोष से, मिथ्यात्व के उदय से प्रेरित हुए इस जीव के सम्यक्त्व का उपशम हो जाता है, सम्यक्त्व नहीं हो जाता और कषाय पुनः उत्पन्न हो जाती। कुछ झलक आयी, कुछ बात सीधी हुई तो वह भी उससे चिग जाता है। काल का परिवर्तन होता हो रहता है मगर मनुष्यों के उत्थान और पतन को देखकर काल के परिवर्तन की बात उपचार से है। इस काल में जीव इस ढंग से होते हैं यह बात तो युक्त है मगर काल में दोष आया है सो बात नहीं। काल तो अपनी शुद्ध पर्याय को लिए हुए होता है। एक-एक समय होना काल द्रव्य की शुद्ध पर्याय है और घड़ी घंटा महीना वगैरह जो लोग मानते हैं वे तो सही समयों का जो समुदाय है उसमें कल्पना की जाती है। तो इस काल में लोगों में ह्रास दिख जाता है। इसे कहते हैं अवसर्पिणी काल और देखो ऐसा योग हुआ कि यह बना हुंडावसर्पिणी काल। एक तो अवसर्पिणी काल में प्रकृत्या ही लोग पतन की ओर चलते हैं और उसमें अनेक अवसर्पिणी आदि के गुजरने के बाद हुंडावसर्पिणी आता है। तो आज के इस अवसर्पिणी काल को हुंडावसर्पिणी काल कहते हैं। धन्य हैं वे जीव कि जो ऐसे काल में, ऐसे क्षेत्र में अपने आप के सहज स्वरूप की दृष्टि बनाये रहते हैं पर जो मिथ्यात्व से प्रेरित है उनके कषाय बराबर उत्पन्न होती रहती हैं। कषाय ही इसकी एक फैक्ट्री है। रात दिन चौबीसों घंटे यह कषाय वृत्ति चलती ही रहती है। होनहार का आधार अहं प्रत्यय―यह जीव स्वरूपतः चैतन्य प्रकाशमान है। लेकिन इसका अनुभव आनंद न पाने से यह जीव बाह्य पदार्थों में यह मैं हूँ, ऐसी बुद्धि बनाता है। वास्तव में मैं हूँ के निर्णय से संसार और मोक्ष का फैसला हो जाता है, अविकार सहज स्वरूप में मैं हूँ ऐसी अनुभूति करने वाले के तो आत्मविकास में प्रगति चलती है और विकार में रागद्वेषादिक भावों में मैं हूँ ऐसा अनुभव करने से इसके रागादिक वृत्ति जगती है, तो मैं हूँ का निर्णय करना है, यह अपने को लाभदायक है। मैं क्या हूँ, जो स्वतः होऊं, पर पदार्थ का संबंध पाकर निमित्त पाकर जो कुछ बात बनती है वह मैं नहीं हूँ, मैं तो सहज ज्ञानस्वरूप मात्र हूँ। तो ऐसा अपना मैं का निर्णय करने पर तो मोक्षमार्ग मिल जाता है और उल्टा निर्णय बने, देह को ही माने कि यह मैं हूँ जो लोग दिखे उनको ही माने कि ये सब वास्तविक हैं। तो जो विपरीत रूप माने वह संसार में रुलता है और जो अपने को सही रूप में स्वीकार करे तो वह संसार भ्रमण से हट जाता है। निमित्त नैमित्तिक भाव सर्वत्र मिलेगा। और निमित्त नैमित्तिक भाव होने पर भी प्रत्येक पदार्थ मात्र अपने स्वरूप में ही परिणमता है, यह स्वतंत्रता भी देखेंगे। तो अपने परिणमन की स्वतंत्रता देखने से तो कायरता दूर होती है। कि अब मैं क्या करूँ? कर्म ही करते हैं जो करते हैं। मुझे तो भोगना ही बदा है...ये कायरताये में नहीं करती। और निमित्त नैमित्तिक भाव जान लेने से अंदर एक उमंग उठती है कि ये रागद्वेषादिक भाव औपाधिक हैं, मिथ्या हैं, शीघ्र हट सकने वाले हैं तो जो कुछ विकृति हो रही, जो अपनी आप की विडंबना चल रही है वह सब कर्मोदय का निमित्त पाकर चल रही है। मैं तो सहज ज्ञानमात्र हूँ, मेरे स्वरूप में विडंबना नहीं है, पर निमित्त पाकर विडंबना बन ही रही है। सो बाह्य पदार्थों को छोड़कर निज सहज ज्ञानस्वभाव में उपयोग को मग्न करें तो यह सब विडंबना रूप हो जाता है।