वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 151
From जैनकोष
जिणलिंगधरों जोई विराय सम्मत्तसंजुदो णाणी।
परमोवेक्खाइरियो सिवगइपहणायगो होइ।।151।।
विराग सम्यक्त्वसंयुक्त जिनलिंग धर महात्मा की शिवगतिपथनायकता―वास्तव में निश्चयतः आत्मा के निर्मल भाव मोक्ष के कारण हैं पर वह निर्मल भाव कैसे उत्पन्न हो और इस शरीर की क्या स्थिति रखी जाय कि जिससे हम निर्मल भाव में समर्थ हो सकें तो वह है नग्न दिगंबर मुद्रा अर्थात जिसको अपने आत्मा की साधना करना है उसको आत्मा के सिवाय अन्य किसी वस्तु में ममता और लगाव न रहना चाहिये। यदि अन्य तत्त्वों में ममता और लगाव रखा तो आत्मा का ध्यान न बनेगा सो जिसको आत्मतत्त्व की धुन लगी है वह पुरुष आत्मा के जानने के सिवाय अन्य वस्तु में लगाव रंच भी नहीं रखता। अब जो अन्य वस्तु में लगाव न रखे वह पुरुष अन्य वस्तुओं का संचय और प्रयोग कैसे कर सकता है? सो समग्र पर वस्तुओं का संचय मिटा लगाव मिट गया तो क्या रह गया वह? शरीर मात्र। शरीर तो कहीं छोड़ा नहीं जा सकता वह तो रहा ही रहा पर वही रहा कि बस वस्त्राभूषण या अन्य कोई वस्तुवें ये कुछ उस शरीर पर नहीं रहते। यह है आत्मतत्त्व के साधकों की मुद्रा। ऐसी दिगंबर अवस्था को धारण करता है जिस के अंतरंग में वैराग्य सम्यक्त्व प्रकट हो गये हैं ऐसे साधु तपस्वी ज्ञानी पुरुष वैरागी योगी मोक्ष मार्ग के नायक होते हैं। मोक्षस्वरूप का परिचय―मोक्षमार्ग मायने अपनी कैवल्य साधना का उपाय। मोक्ष मायने केवल रह जाना अथवा कहो अन्य वस्तुओं का छूट जाना दोनों तरह से देखा जा रहा है मोक्ष का स्वरूप। विधि के रूप से तो यह है कि केवल आत्मा का रह जाना यह है मोक्ष, क्योंकि आत्मा सद्भूत वस्तु है, वह भी मिटाये मिट नहीं सकता। तब वह तो रहेगा ही। तो जो स्वयं केवल अपने आप है ऐसा मान आत्मा रह जाना इसका नाम मोक्ष है। अब निषेध मुखेन देखिये जहाँ शरीर न रहा, कर्म न रहे, विकार भाव न रहे, इन सबसे जो मुक्त जीव। जैसे किसी साफ कमरे की बात कहना हो तो यों कह लीजिए कि कमरा बिल्कुल स्वच्छ है, या यों कहो कि उस कमरे में कूड़ा करकट रंच भी नहीं है, तो एक ने ‘है’ की ओर से कहा, एक ने ‘न’ की ओर से कहा कहा तो ऐसा ही है, मोक्ष को कोई ‘न’ की ओर से कहता है कि शरीर नहीं, कर्म नहीं, कोई परभाव प्रसंग नहीं ऐसी अवस्था को कहते हैं मोक्ष। तो कोई विधि मुखेन जानता है, केवल आत्मा ही आत्मा रहें, ऐसा कुछ संग प्रसंग नहीं, उसे कहते हैं मोक्ष। कैवल्य सिद्धि के लिये केवल की उपासना की अनिवार्यता―उस केवल की सिद्धि करने के लिये यहाँ केवल का ही ध्यान रखना चाहिए। यदि अपने आप को केवल अकेला रखना है सर्व आगंतुकों से दूर रहना है तो केवल का ध्यान बनाना चाहिए। इस केवल का ध्यान नहीं पुरुष तो बना पायेगा कि जो इस शरीर से भी एक रहेगा अर्थात शरीर के सिवाय अन्य किसी चीज का संबंध न बनाये वह कहलाती है दिगंबर मुद्रा और उससे मोक्ष मार्ग प्राप्त होगा। तो जो दिगंबर मुद्रा के धारी है और जिनके वैराग्य प्रकट हो गया है वे ज्ञानी पुरुष मोक्ष मार्ग पथिक के नावक होते हैं। वैराग्य क्या कर्मोदयवश अपने आप में उठने वाले रागादिक विभाग हैं। अपना स्वरूप स्वीकार न करना और उनसे उपेक्षा करके रहना यह कहलाता है वैराग्य। बाह्य वस्तु को छोड़ देने मात्र का जो ध्यान रखता है वह सही मायने में सफल क्यों नहीं है पाता कि वह बाह्य वस्तु को मैने त्याग दिया है ऐसे विकल्प में राग बनाये हुये हैं। अपने को विकल्प रहित रागरहित अनुभव नहीं कर पाते और कारण अपने स्वरूप से अनभिज्ञ पुरुष विरक्त भी नहीं रह पाते। कोई पुरुष भावुकता में आकर बाह्य त्याग तो कर सकता है पर वह बाह्य त्याग रिक नहीं पाता। उसके अंतरंग विरक्त नहीं हुई। बल्कि अपना शुद्ध चैतन्य स्वरूप ही सुहाये अन्य संपर्क व जिसे विजउज न सुहाये वह योगी विरक्तंतु शिव गतिपथ नायक कहा गयावै। मोक्ष पथ का नायक कौन है। मोक्ष के मार्ग में चलने वाला कौन होता है? तो कहते हैं कि जिन मुद्रा का धारक ऐसा योगी ही शिवगतिपथंनायक है। शिव जिन मुद्रा मायने जहाँ कोई परिग्रह न रहे संग में समस्त बाह्य परिग्रहों से रहित केवल सहज ज्ञान मान अंतस्तत्त्व की उपासना वह है जिन मुद्रा का धारी जिस मुद्रा को धारण करके जिनेंद्र बनते हैं प्रभु बनते हैं अरहंत बनते हैं उस मुद्रा का नाम है जिन मुद्रा से जिन मुद्रा का धारक योगी पुरुष वैराग्य और सम्यक्त्व से युक्त होता हुआ परम उपेक्षा का धारी यह आचार्य है कुशल है निपुण है कर्मक्षय के मार्ग में। ऐसा योगी पुरुष मोक्ष मार्ग का नेता होता है। कर्मक्षय का कारण है ज्ञान और वैराग्य। ये दोनों आत्मा के स्वरूप है। देहरूप नहीं है। अन्य किसी पुद̖गल रूप नहीं है किंतु यह अपने आत्मा के स्वभाव के विकास रूप है। आत्मा उपयोग स्वरूप है। यह मान जाने अपने आप को जाने निश्चय से तो यह अपने आप को ही जानता है। सर्व स्थितियों में यह पर पदार्थ को नहीं जानता पर अपने को ही जान रही हो ऐसा निर्णय बने तो वह जानना सफल हैं। जान लिया अपने को जानता ही रहता है पर परिचय नहीं है कि मैं वास्तव में अपने को जानता हूँ। तो वह तो नाम जानने कि तरह ही है विधि सिद्धांत है इस कारण ऐसा ही हो रहा है। किंतु इसके ज्ञान में तो यह बात आती नहीं हैं। तो जैसे भव्य जीवों के मान में यह निर्णय बना हुआ है कि मैं अपने आपको ही जानता हूँ ओर इस तरह अपने को जानने का अनुभव भी बने यह कहलाता है ज्ञान ओर यह ज्ञान की ऐसी वृत्ति का ही नाम है वैराग्य। ज्ञान और वैराग्य के गिना आत्मा का पार नहीं हो सकता। जैसे लोग मरण से हैरान है और बातें सब अच्छी होती जाती धन भी कमाये खूब ठीक ज्ञान हो रहा कुटुंब भी अच्छा हो रहा। लौकिक इज्जत भी बढ़ने लगती राज्य में भी अधिकार बता लेते सब कुछ कर लेते पर इस बात में घुटना टेक देते हैं यह कि मरना पड़ेगा मरे बिना तो किसी की बात नहीं रहती। तो मरने से सब हैरान है ओर इस ही मृत्यु की दवा के कारण कुछ नीति रीति सही चलती रहती हैं। यदि मरण न होता तब तो न जाने कोई पुण्य वाला कोई विशिष्ट इच्छा वाला जगत में क्या कर डालता? या मरने पर कुछ साथ ले जाय जाता होता तो वह न जाने क्या जुल्म ढा देता। तो ये दो बातों से इतनी बड़ी हैरानी है एक तो मरना पड़ता है ओर दूसरे मरने पर कुछ साथ नहीं जाता। अगर एक बात भी सहूलियत में हो जाय कि मरना पड़े तो भले ही मर जाय मगर कुछ साथ ले जाया जाता तो भी यहाँ बहुत बड़ा जुल्म ढाया जा सकता है। जैसे मनुष्य इन दो बातों से हैरान हैं ऐसे ही यह जीव इन विषय कषायों से हैरान है। विषय कषायों से वह पार नहीं पा सकता इसको त्याग करना ही ज्ञान ओर वैराग्य में आकर ही ये अपने को शांत बना सकेंगे। कितने ही दिन जी लेवे कितने ही परिजनों का संग बना लेवे पर इस जीव का उद्धार नहीं होने का। उद्धार का उपाय तो सबसे निराला केवल अपने ज्ञान स्वरूप अंतस्तत्त्व के जानने से ही होगा। यह ही कर्म क्षय का निमित्त कहा जा रहा है सो जिन मुद्रा का धारी योगी विरागी सम्यक्त्व संयुक्त ज्ञानी शिवगति पंथ का नायक होता है।